सुबह से ठंडे चूल्हे को देख आहें भरती वह अपनी छः वर्षीय बेटी और तीन वर्षीय बेटे को पास बिठाए गहरे मातम में ड़ूबी थी। उसे लकवा सा मार गया था। उसका मस्तिष्क मानो सोचने-विचारने की क्षमता खो बैठा था। पूरी रात उसने वहीं जमीन पर बैठे गुज़ार दी थी। दोनों बच्चे भी वहीं उसकी गोदी में पड़े- पड़े कब सो गये थे उसे कोई होश ही नहीं था। पड़ोस की बूढ़ी अम्मा ही बच्चों के लिए खाना ले आई थी।
" आह..! अब ऐसे घिनौने पाप का साया मेरे और इन बच्चों के सिर पर हमेशा मँड़राता रहेगा।"
उसकी दुःखभरी कराहें निकल रही थीं ।
अपना बिस्तर उसे काँटों और आग की लपलपाती शैया सा महसूस हो रहा था। अपने शरीर पर पति के स्पर्श को याद कर उसे यूँ लगता मानो साँप-बिच्छू और कीड़े उस पर बिलबिलाकर रेंग रहे हैं । उसके कानों में तब मानो पिघला गर्म सीसा किसी ने उड़ेल दिया था जब उसने सुना कि उसका पति चार बरस की मासूम के साथ दुष्कर्म के अपराध में पकड़ा गया है..!
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत ही संवेदनशील विषय का चुनाव किया है आपने आदरणीया और कोशिश अच्छी की है उसके लिए बधाई...
आदरणीया जनाब समर कबीर जी, श्री तेजवीर जी , आदरणीया नीलम जी एवं बबीता जी, मेरी लघुकथा पर आपके प्रोत्साहित करते उद्गार मुझे और भी बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। आप सभी का हार्दिक आभार
मुहतरमा अर्पणा शर्मा जी आदाब,उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय अर्पणा शर्मा जी। मार्मिक लघुकथा। आपने एक नाज़ुक विषय पर बेहद सावधानी एवम कुशलता से कलम चलाई है। सराहनीय क़दम।
आदरणीया अर्पणा शर्मा जी, समाज की ज्वलन्त समस्या बन रहे विषय पर अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति। बधाई स्वीकार करें ।
गिरती मानवीयता ,होते घृणित अपराधों ने नजदीकी रिश्तों पर से विश्वास उठता जा रहा हैं.आज सन्देहभरा जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैंज्वलंत आपराधिक समस्या का रचना द्वारा बेहतरीन प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीया अर्पणा दी.
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