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पिघलती हुई मोम

पिघलती हुई मोम

(अतुकांत)

हम दोनों .... दो छायाएँ

अन्धकारमय एकान्त में

फूटे हुए बुलबुलों-सी

सुन्न हो रही भावनाएँ

कितनी नदियों का संगम

है दर्द का सागर भीतर

वेदना का बढ़ता भंवर

उसमें आप-बीती हमारी

महत्वाक्षांएँ, बेसबब  बातें

आँसू ... मुझसे बढ़ कर तुम्हारे

तू, जो मेरे कंधे पर सिर रख कर

आँसुओं में सब कुछ बहा देती थी

आँसुओं की नमी अभी आँखों में

सतहों की परतों के नीचे क्या है

संचित मृत्यु ?

"कब", "कहाँ", "क्या" हुआ, सब पता है

बाकी है बस  एक छोटा-सा बड़ा सवाल

हुआ जो हुआ, सो हुआ, वह  क्यूँ  हुआ

अभाव में तुम्हारे अब मुझको

सभी कुछ प्र्श्नवाचक-सा लगता है

तुम्हारे लिए सुख की मनोती मांगते भी मैं

जब वेदना को प्रथक नहीं कर पाता

अंधकूप में सिर पटक कर मानो

प्यार मरने लगता है ....

अंधकारमय एकान्त में

बिखर रहे हैं अब धुँधला-रहे

पिघलती मोम-से मेरे

मौन-स्वर, मेरे मूक विलाप

तुम चले गए क्यूँ उस पार मेरे प्यार

गुमसुम, बंद कर मेरी आँखों के द्वार

                 ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 7:55am

आपका हार्दिक आभार,आदरणीय सुरेन्द्र जी

Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 7:53am

आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई लक्ष्मण जी

Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 7:52am

  मुझको इतना मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर जी।

Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 7:51am

आपका हार्दिक आभार, जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब, आपने मुझको बहुत मान दिया है

Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 7:48am

आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी

Comment by नाथ सोनांचली on May 7, 2018 at 5:41pm

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढिया अतुकांत लिखा आपने, इस प्रभावशाली रचना पर मेरी बधाई स्वीकार करें।सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2018 at 11:30am

आ. भाई विजय जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on May 6, 2018 at 10:31am

जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत सुंदर और प्रभावशाली कविता हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 6, 2018 at 7:23am

बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय  विजय निकोरे साहिब।

कृपया ध्यान दे...

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