रोशनी का कोई सुराख़ न सही
बेरुखी ही प्यार का अंदाज़ सही
कोई गिला नहीं कोई शिकवा नहीं
यह माना कि जिगर में तुम्हारे
कोई तीखी ख़राश है आज
तल्खी है, कसक है बहुत
है कशमकश भी बेशुमार
इस पर भी परीशां न हो
खालीपन को तुम
बहरहाल खाली न समझो
आएँगे लम्हें जब कलम से तुम्हारी
अश्कों के मोती गिर-गिर कर
किसी गज़ल के अश’आर बनेंगे
तब तरन्नुम से पढ़ना उनको
लाज़िमी है भरेंगे वह इश्क से मिले
चुभते खलते आज के खालीपन को
बनेंगे तोहफ़ा माज़ी के इकरार का
फ़ख्र होगा मुझको भी बेअंदाज़ तुम पर
याद रखना गज़ल के अश’आर तुम्हारे
बीमार इश्क का फ़कत नज़राना ही नहीं
वह उसकी तिलिस्मी ताहिर तामीर बनेंगे
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सराहना के लिए आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय बृजेश जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर जी। सुधार-संकेत के लिए भी बहुत बहुत आभार... सुधार कर दूँगा।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,
शीर्षक "ताहिर तामीर" अर्थात "पवित्र निर्माण",बहुत ख़ूब, आपकी कविता का ये अंदाज़ भी बहुत सुंदर और प्रभावी है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
'अश्कों से मोती गिर;गिर कर',इस पंक्ति में 'से' की जगह "के" करना उचित होगा ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ भाई।
आ. भाई विजय जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
वाह आदरणीय विजय जी..क्या खूब विवेचना की है..बधाई
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,
बहुत ही सुंदर भावों और विचारों की ताहिर-तामीर की आपने । हृदय तक पहुँच गई । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय श्याम जी
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
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