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ग़ज़ल --- असर होता है // दिनेश कुमार

2122--1122--1122--22
.
एक पत्थर पे भी उल्फ़त का असर होता है
दिल मे जज़्बा हो तो दीवार में दर होता है
.
घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन
जो भी जी जाए, वो दुनिया में अमर होता है
.
उसको हालात की गर्मी की भला क्या चिन्ता
जिसकी दहलीज़ पे अनुभव का शजर होता है
.
आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब होगा
दरो-दीवार का ढांचा तो खँडर होता है
.
वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश
जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है
.
हम फ़क़ीरों को ज़ियादा की नहीं चाह 'दिनेश'
जितना हासिल है, बस उतने में गुज़र होता है
.
मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 1, 2018 at 6:55pm

जनाब दिनेश कुमार साहिब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।मतले के उला मिसरे यह ऑप्शन भी हो सकता है । संगदिल पर भी मुहब्बत का असर होता है ।

Comment by Samar kabeer on January 1, 2018 at 5:32pm

जनाब दिनेश कुमार जी आदाब,आप कभी कभी पटल पर आते हैं,इस कारण से कुछ नये सदस्य आपको भी नया सदस्य समझते हैं ।

उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

Comment by नाथ सोनांचली on January 1, 2018 at 2:07pm

आद0 दिनेश कुमार जी सादर अभिवादन। बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने, शैर दर शैर दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर

Comment by नादिर ख़ान on January 1, 2018 at 1:27pm

वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश 
जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है
.
हम फ़क़ीरों को ज़ियादा की नहीं चाह 'दिनेश'
जितना हासिल है, बस उतने में गुज़र होता है
.

उम्दा ग़ज़ल हुयी है आदरणीय दिनेश कुमार जी मुबारकबाद स्वीकारें। ....

Comment by Ajay Tiwari on January 1, 2018 at 9:57am

आदरणीय दिनेश जी, खूबसूरत अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई. 

'दिल मे जज़्बा हो तो दीवार में दर होता है'      बहुत खूब! 

'एक पत्थर पे भी उल्फ़त का असर होता है' की जगह 'किसी'पत्थर पे भी उल्फ़त का असर होता है' भी एक विकल्प हो सकता है.

'देर से हो मगर उल्फत का असर होता है' या 'चाहे हो देर से उल्फत का असर होता है' के विकल्प भी आजमाए जा सकते हैं.

नव वर्ष मंगलमय हो !

सादर

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 1, 2018 at 1:05am

बहुत बढ़िया पेशकश। हार्दिक बधाई आदरणीय दिनेश कुमार जी। गुरूजन की टिप्पणियां हमें मार्गदर्शन प्रदान कर रहीं हैं।

Comment by दिनेश कुमार on December 31, 2017 at 8:24pm


हौसला अफ़ज़ाई के लिए दिली शुक्रिया आ. मुहम्मद आरिफ़ साहब।

Comment by Mohammed Arif on December 31, 2017 at 7:43pm


उसको हालात की गर्मी की भला क्या चिन्ता
जिसकी दहलीज़ पे अनुभव का शजर होता है ।वाह! वाह!! बहुत ही बेहतरीन शे'र हुआ है । मज़ा आ गया ।

बढ़िया ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद आदरणीय दिनेश कुमार जी ।

Comment by दिनेश कुमार on December 31, 2017 at 6:40pm

हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया आ. राम अवध जी।

दरो-दीवार वाले मिसरे में typing मिस्टेक तो संभव है, लेकिन बह्र में है। इसी प्रकार मक़्ते का सानी भी बह्र में ही है सर जी।

सादर।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 31, 2017 at 5:31pm

आदरणीय दिनेश कुमार जी खूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई।

 मेरे ज्ञान के अनुसार दरो दीवार का ढाँचा मिसरा बह्र में नहीं है। मक्ता का शानी मिसरा भी बह्र में नहीं है। इसको ऐसा किया जा सकता है।

जितना हासिल है उसी में ही गुज़र होता है। सादर

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