"फाइनली ख़ुदकुशी करने का इरादा है क्या? सुसाइड नोट लिखने जा रही हो?"
"मैं! मैं ऐसी बेवक़ूफी करूंगी! कभी नहीं!"
"तो फिर सोशल मीडिया के ज़माने में काग़ज़ पर क्या लिखना चाहती हो?" कोई कविता, शे'अर या कथा?"
"वैसी वाली मूरख भी नहीं रही अब मैं! जो मुझे चैन से जीने नहीं देते, उन्हें भी चैन से जीने नहीं दूंगी अब मैं!"
"तो क्या एक और फ़र्ज़ी ख़त लिख रही हो अपने मायके और वकील मित्रों को झूठे ज़ुल्मो-सितम बयां करके!"
"कुछ तो इंतज़ाम करना पड़ेगा न! पता नहीं मेरा शौहर कब तलाक़ दे दे या दूसरा निकाह कर ले? मुझे तो लगता है कि ससुराल वाले कहीं मुझे मार न डालें!"
"टीवी धारावाहिकों, समाचारों और क्राइम वाले कार्यक्रम देख-देखकर तुम्हारा दिमाग़ खुराफ़ाती हो गया है और कुछ नहीं! खोट तुम में है या तुम्हारे शौहर या ससुराल वालों में?" अन्तर्मन के इस सवाल ने शाहीन को झकझोर दिया।
बेटे के अभाव में शाहीन की अम्मीजान ने उसके वालिद साहब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ लड़कों जैसी परवरिश ही नहीं की थी, बल्कि पढ़ा-लिखा कर उसे तेज-तर्रार मॉडर्न भी बनाया था। कभी किसी से न दबने के हुनर सिखाये थे। नतीज़तन शाहीन न तो शौहर के साथ ख़ुश थी और न ही ससुराल वालों के साथ। शौहर के नापसंद अपने शौक और आदतों पर नियंत्रण न कर पाने की वज़ह से अनजाने भय से ग्रस्त रहते हुए जब-तब ऊल-जलूल ख़त लिख कर वह अपनी भड़ास निकालने की कोशिश करती थी।
"तुम्हारे शौहर का इतना ही कसूर है न कि वह आदर्शवादी है और नमाज़ी-परहेज़ी! अपने तमाम फ़र्ज़ तो निभाता है न! मॉडर्न न होना कोई गुनाह तो नहीं!" उसके अन्तर्मन ने उसे फिर समझाया, "अपने गिरेबां में कभी तो झांक कर देखो! तुम स्वार्थी, आत्मकेंद्रित हो या अमर्यादित और मनोरोगी सी?"
"मैं पागल तो नहीं हूं! शौहर और ससुराल वालों को मॉडर्न बनाने की कोशिश करने में हर्ज़ ही क्या है? कितने सारे मुसलमान भी तो कितना बदल चुके हैं अपने आप को नये हिन्दुस्तान में एड्जस्ट होने के लिए!"
"ज़माने के साथ चलने का मतलब यह भी तो नहीं है कि तुम अपनी ज़हनियत गंदी करो और दूसरों की भी! तुम्हारी समस्या कुछ और नहीं, बस मीडिया से बिगड़ी हुई तुम्हारी ज़हनियत ही है!" अन्तर्मन की बात सुनकर शाहीन ने टेबल पर रखा काग़ज़ फाड़ डाला और कलम सोफे पर फैंक कर आइने में अपनी शक्ल देखने लगी।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस लघु कथा के माध्यम आपने एक गहन सोच के लिए सामयिक अवस्था प्रस्तुत की है। लघु कथा इसमें बहुत सफ़ल हुई है। हार्दिक बधाई भाई शेख शहज़ाद उस्मानी साहब ।
रचना पर समय देकर अनुमोदन और अपनी राय से अवगत कराने और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी और आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। हर बार की तरहः पुनः एक उम्दा लघुकथा आपके माध्यम से पढ़ने को मिली। कोटिश बधाइयाँबधाइयाँ आपको।
आद० सोमेश कुमार जी की बात से मैं भी सहमत हूँ . बाकि लघु कथा तो हमेशा की तरह बहुत अच्छी लिखी है हार्दिक बधाई आद० उस्मानी जी
रचना के मर्म तक पहुंच कर अपने विचारों को साझा करते हुए अनुमोदन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब, जनाब समर कबीर साहिब, जनाब सोमेश कुमार साहिब और जनाब तेजवीर साहिब। जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब और जनाब सोमेश कुमार साहिब आपने जो मार्गदर्शन प्रदान किया है, वह भी महत्वपूर्ण है।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,इस बहतरीन लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें ।
कितने सारे मुसलमान भी तो कितना बदल चुके हैं अपने आप को नये हिन्दुस्तान में एड्जस्ट होने के लिए! यहा मुसलमान-हिन्दुस्तान शब्द विवशता का आभास करा रहा लगता है |मेरे विचार में इसे नया मुसलमान-नये समाज में ज़्यादा सार्थक लगता है |
अन्तर्मन की बात सुनकर शाहीन ने टेबल पर रखा काग़ज़ फाड़ डाला और कलम सोफे पर फैंक कर आइने में अपनी शक्ल देखने लगी-
अपने रूप को ,आत्मा को पहचानना यह एक गहन और सटीक अंत है |
सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई- Sheikh Shahzad Usmani भाई जी
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी।बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
आजकल हम उधार की मानसिकता से ग्रसित होते जा रहे हैं। हम क्या पहने, क्या खाएँ, कैसा दिखे, किससे कैसा बर्ताव करें यह सब सोशल मीडिया तय करने लगा है । सोशल मीडिया कोई बुरी चीज़ नहीं है मगर हम इसके ग़ुलाम हो जाए यह ग़लत है । शाहीन जैसी दोहरी मानसिकता वाली हज़ारों लड़ियाँ समाज में ऐसी ही ज़िंदगी बसर कर रही है । यह किसी एक समाज विशेष पर उंगली उठाने वाली बात नहीं है बल्कि हर समाज और वर्ग में शाहीन मिल जाएगी । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें इस कसावटपूर्ण लघुकथा के लिए ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online