१२२२ १२२२ १२२
चढ़े सूरज तलक सोए हुए हैं
किसी की याद में खोए हुए हैं
ग़ज़ल लिक्खी हुई है आंसुओं से
कहें किससे कि हम रोये हुए हैं
तभी भीगा हुआ तकिया मिला है
इसे अश्कों से हम धोये हुए हैं
कमर टूटी ज़फ़ा की चोट खाकर
मगर फिर भी वफ़ा ढोए हुए हैं
वहाँ चर्चा हमारा हो रहा है
न जाने हम कहाँ खोए हुए हैं
तुम्हारे दाग ज्यों के त्यों दिखेंगे
भले ही आईने धोए हुए हैं
चुभेंगे तुमको भी इक दिन ये कांटें
मेरी राहों में जो बोये हुए हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मोहतरम मोहम्मद आरिफ जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया |
आद० निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपकी इस्स्लाह काबिले गौर है
आद० समर भाई जी आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .
आद० अफरोज़ साहब आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से शुक्रिया आपका
सीमित काफ़िये के बावजूद अच्छी ग़ज़ल कही आपने ..
चूँकि फिल्बदी है इसलिये आप से आग्रह है कि समय मिलने पर इन अशआर को और मांजियेगा ..और कसावट आ जायेगी
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मसलन
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चुभेंगे तुमको भी इक दिन ये कांटें
मेरी राहों में जो बोये हुए हैं ....
उन्हें इक दिन यही काँटें चुभेंगे
जो मेरी राह में बोये हुए हैं
सादर
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