२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मेरी बगिया खिल उठी मौसम निराला हो गया
आ गई बेटी मेरे घर में उजाला हो गया
दीप खुशियों के जले शुभ शंख मानो बज उठे
देखिये साहिब मेरा तो घर शिवाला हो गया
लहलहाई यूँ फसल खेतों की मेरी देखिये
सोने चाँदी से मढ़ा इक इक निवाला हो गया
बिन सुरा सागर के जैसे खाली था मेरा वजूद
आते ही उसके लबालब ये पियाला हो गया
पढ़ते पढ़ते रात दिन आँखें मेरी थकती नहीं
उसका चेह्रा खूबसूरत इक रिसाला हो गया
छोड़ बाबुल की गली को एक दिन वो जायेगी
सोचकर मेरे अभी से दिल पे छाला हो गया
उसकी जानिब गर बुरी आँखें उठें तो खींच ले
ऐसा कातिल अब मेरी आँखों में जाला हो गया
---------------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत ही खूबसूरत एहसास। बधाई।
आदरणीय वासुदेव अग्रवाल जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
मोहतरम जनाब तस्दीक जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से शुक्रिया |
बृजेश कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |
मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा , बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
आद० समर भाई जी ,ग़ज़ल को आपका आशीष मिल गया और क्या चाहिए आपकी प्रतिक्रिया ने उत्साह दुगुना कर दिया |भोपाल के एक बड़े शायर डॉ० कमर अली शाह ने मेरी ये ग़ज़ल मंगवाई है उन्होंने इतनी दाद दी थी की शब्द नहीं हैं मेरे पास ,वो आपको भी जानते हैं |
आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया भाई जी |
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