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अंतिम बंटवारा ( लघुकथा ) जानकी बिष्ट वाही

सभी अपने पैने नख और दन्त अंदर समेटे पण्डित जी की श्राद वाली बात बैचेनी के साथ सुन रहे हैं।एक सुप्त ज्वालामुखी जो बिना वज़ह के अंदर ही अंदर धधक रहा है।साल भर में श्मशान वैराग्य खत्म हो चुका है और मानवीय विराग मुँह फाड़े निगलने को आतुर बैठा है। अभी अंतिम बंटवारा होना बाकि है।
" बड़े शहरों में ये सब करना मुश्किल है, न पण्डित मिलते हैं। न समय है।कब श्राद आये कब गए। मालूम ही नहीं चलता, मुझसे कोई उम्मीद मत रखना। " माँ और पिता का सबसे लाड़ला छोटा दो टूक बोला।
खिड़की से बाहर देखते मंझले को मानों इन बातों से कोई सरोकार नहीं था।
" हमें श्राद करने में भला क्या आपत्ति होगी।पर माँ का श्राद भी तो हमारे हिस्से में ही है।" बड़ी भाभी की आवाज़ का ज़र्रा ज़र्रा ये कह रहा था कि पिता का श्राद दूसरे करें।
"बड़े भाई का फ़र्ज़ होता है श्राद करना।हमें न सिखाओ।" मंझले की आवाज़ में सांप सी फ़ुफ़कार थी।
" माँ मेरे हिस्से में है।तुम दोनों फैसला कर लो बाबू जी के बारे में।"अब तक चुप बड़का बोला।
" जीते जी तो माँ- बाप के साथ बॉली बॉल का मैच खेलते रहे।मरने के बाद भी उन पुण्यात्माओं का बंटवारा ? ये मत भूलो हम सब भी उसी मार्ग के यात्री हैं ।"
"पण्डित जी ! ये हमारे घर का मामला है।"छोटा बल खाकर बोला।
" सच कहा, ये आप सभी का व्यक्तिगत मामला है, ...मुझे आप लोगों पर क्रोध नहीं दया आती है।" ये कह पण्डित जी घर से बाहर हो गए।


जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
नॉएडा

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Comment by Janki wahie on July 30, 2016 at 9:06pm
आ.सतविंदर जी! कथा में स्पष्ट दिख रहा है परिवार संयुक्त नहीं हैं।और जब भाई अलग अलग हो चुके हैं और जिन लड़कों ने माँ पिता को जीते जी बॉली बॉल बना रखा था अर्थात उनका भी बंटवारा कर रखा था तो क्या आश्चर्य मरने के बाद बंटवारा म करें।समाज में हमेशा तथ्य में ही कथ्य छुपे रहते हैं।इतना अतिश्योक्तिपूर्ण वर्ना इस विषय पर नहीं लिखा जाता।भारत में सांस्कृतिक विविधता बहुत ज्यादा हैं ।अतः परम्पराएँ भी ऊपर नीचे होती हैं।सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 26, 2016 at 9:33am
श्राद्ध श्रद्धा से निभाया जाने वाला संस्कार है।यदि श्रद्धा ही नहीं रही तो औपचारिकता भर के लिए श्राद्ध करना भी ठीक नहीं।आम तौर पर देखा तो यह गया है कि बंटवारा होने के बाद सब भाइयों के द्वारा ही अलग-अलग सब पितरों का श्राद्ध किया जाता है।यदि परिवार संयुक्त हो तो फिर भी श्राद्ध सब पितरों का जो रीति अनुसार चला आ रहा है किया ही जाता है क्योंकि चूल्हा एक है तो फिर अलग-अलग नहीं होता।बंटवारे के बाद कोई न तो किसी को बाध्य करता है कि फलाने का श्राद्ध तुम करो और फलाने पितर का श्राद्ध हम कर लेंगे।यह भाइयों के व्यक्तिगत मत पर है।अब श्राद्ध के मामले में मुझे रचना तथ्य से इतर नजर आई आदरणीया जानकी जी।क्षमा चाहूँगा।
तथापि कथ्य के माध्यम से पण्डित जी द्वारा सकारात्मक सन्देश का सम्प्रेषण हुआ है।हार्दिक बधाई।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 24, 2016 at 11:37am
आदरणीया जानकी जी यथार्थ का चित्रण करती इस शानदार लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
Comment by pratibha pande on June 23, 2016 at 7:46pm

  श्राद्ध  कर्म की  ज़िम्मेदारी का  भी बटवारा ,ह्रदय को चीरने वाला सत्य है ये पर होता ऐसा  ही है पितरों के ऋण से भी उबरना चाहते हैं पर अपनी सांसारिक सहूलियतों के साथ   ..तहे दिल से बधाई प्रेषित है आपको आदरणीया   ,कथा के पंडित जी संवेदनशील हैं वरना अक्सर देखने में आता है कि पंडित खुद शार्टकट सुझाते हैं यजमान को 

Comment by Shyam Narain Verma on June 23, 2016 at 3:16pm
बहुत उम्दा , बधाई इस लघुकथा के लिए ..
Comment by Rajendra kumar dubey on June 23, 2016 at 7:23am
आदरणीय जानकी विष्ठ जी बहुत ही हृदय स्पर्श करने वाली लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 23, 2016 at 5:19am
बहुत बढ़िया कथानक पर बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया जानकी बिष्ट वाही जी। परिवारजन के शिल्पबद्ध संवादों के बाद पंडित जी का संवाद कुछ बेहतर हो सकता था भाषा के मामले में! इसी तरह पंडित जी के अंतिम संवाद की अंतिम पंक्ति और अधिक मारक क्षमता वाली पंचपंक्ति हो सकती थी या समाज को बेहतरीन संदेश सम्प्रेषित किया जा सकता था, क्रोध और दया के भाव से बेहतर।
Comment by Rahila on June 22, 2016 at 11:05pm
वाह... दीदी!क्या खूब शब्द चयन किये है।नालायक औलाद जीतेजी ही नहीं माँ, बाप को मरने के बाद भी सुकून नही दे सकती।शानदार लेखन के लिये खूब बधाई।सादर

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Comment by rajesh kumari on June 22, 2016 at 11:00pm

उफ्फ्फ कहाँ से आ गई इतनी संवेदन हीनता आज की पीठी में मरने के बाद भी बटवारा अन्दर तक बीध गई ये लघु कथा |

बहुत- बहुत बधाई जानकी जी |

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 22, 2016 at 9:28pm
इस तरह के रस्म और रिवाज़ भावनाओं से जुड़े होते हैं, संस्कार उन्हें पालते हैं , जहां दोनों नहीं वहां ये बोझ और टाल - मटोल की चीज़ हो जाते हैं।
बधाई , इसी तथ्य को उजागर करती इस कथा के लिए , आदरणीय सुश्री जानकी बिष्ट जी , सादर।

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