आँख-मिचौनी
साँझ के रंगीन धुँधलके ...
आँख-मिचोनी खेलते
एक दूसरे को टटोलते
मद्धम रोशनी में उभरती रही
कोई पवित्र विलुप्त लालसा
आवेगों में खो जाने की
खो कर फिर तुम्हें पा लेने की
मुँडेर को पार करते
जानबूझ तुम्हारा धीरे हो जाना
दीखती लालसा सहसा
पकड़ में आकर फ़ासलों के पार
कुछ पल सुरक्षित, छिपी-छिपी मुझमें
अकेली, मेरी बाहों में रहने की
फिर डरती .. "हाय, कोई देख न ले"
सुन्दरतम पल थे आँख मिचोनी के
हम दोनों का वह टकरा जाना
समर्पण में मेरे सीने पर कभी
झुका हुआ माथा और झुक जाना
कभी पीछे से मुझको बाहों में भर
हँस देना, हँसती ही चली जाना, उन्मत
लिए आंचल में में सात समुद्रों का ज्वार
"पकड़ लिया न,
अब न जाने दूँगी कभी बाहों से बाहर"
कुहुकती हो कानों में... "मान लो हार"
बाहों में तुम्हारी हार जाना ही, प्रिय
जानती हो, धड़कन की जीत थी मेरी
मुझमें लुप्त हो जाने के बहाने
जीत की तरतीब वह तुम्हारी भी थी
नवजात झूमते गुलमोहर के फूल-सी
तुम्हारी वह बच्चे-सी प्रवाही हँसी
खुल जाते थे भीतर हमारे दरवाज़े सारे
मुसकराती रहती थी अविवेकी मन में
अकुलाती इच्छा कि कह दूँ तुमसे तत्पर
तुम न जाओ अभी, रखूँ मैं बाहों में तुमको
खेलें हम ऐसे ही सौ साल तक आँख-मिचौनी
ज़िन्दगी के झुठलाते-झूठे
अजनबी मैदान में
किराय के मकान में
यही है शायद
स्नेह की शब्दावली
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार,मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत उम्द: कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें।
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