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Sheikh Shahzad Usmani's Blog (338)

अनुयाइयों की पतंगें (लघुकथा)

'संस्कृति' अपनी 'ऐतिहासिक पुस्तकों' को सीने से लगाए उन जल्लादों के लगभग समीप ही खड़ी थी। 'संस्कार' संस्कृति से नज़रें चुराकर सिर झुकाए नज़ारों पर शर्मिंदा था, पर यहां आदतन साथ खड़े होने पर विवश था। वैश्वीकरण के तथाकथित दौर में धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यावसायिक और सामाजिक धर्म, कर्म, और राजधर्म फ़ांसी के फ़ंदों को निहारते हुए अपनी अपनी दशा और दिशा पर पुनर्विचार तो कर रहे थे, लेकिन चूंकि उनके कैंसर का आरंभिक स्तर डायग्नोज़ हो चुका था, इसलिए उनके इलाज़ में समय, ऊर्जा और धन बरबाद करने के…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 12, 2018 at 9:30am — 3 Comments

अपने सपनों के ताजमहल (लघुकथा)

"अय.. हय .. मेरी ताजमहल... मेरी नाज़महल... !" अपने प्यार की पहली निशानी को नयी पोषाक देकर चूमते हुए डॉक्टर साहिब ने कहा- "अब तो ख़ुश हो जा, तेरी मनपसंद टीवी विज्ञापनों वाली सारी चीज़ें दिला दीं तुझे! मॉडर्न हो गई अब तो मेरी 'महजबीं'!"



"लेकिन पप्पा, चेहरे के इन पिम्पल्ज़ और दागों का क्या होगा? कितने क़िस्म की दवाइयां और क्रीम ट्राइ कर डालीं, चेहरे पर पहले वाली चमक आती ही नहीं!" आइना सोफ़े पर पटकते हुए 'जवानी की दहलीज़ पर खड़ी' बिटिया ने कहा!…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 9, 2018 at 8:30pm — 5 Comments

आलू सरीखे (लघुकथा)

भीड़-भाड़ वाले सार्वजनिक स्थान के पास सड़क के किनारे दो पानी टिक्की के ठेले वाले सामने की साऊथ-इंडियन होटल में बढ़ती भीड़ से जलते हुए बातचीत में मशगूल थे।



"तू तो अच्छा मुंह चला लेता है! लम्बे भाषण भी दे सकता है! किसी बड़े राजनीतिक दल में शामिल हो जा, पता नहीं कब तेरे भी दिन फिर जायें!" ठेले में चार-पांच तरह के चटपटे पानी की बरनी संभालते पानी-टिक्की वाले ने दूसरे से कहा।



"ऐसी ही बात मैं तेरे लिए कहूं, तो? तू भी तो चतुराई से फूली हुई टिक्की में इतनी तरह के पानी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 9, 2018 at 2:30am — 7 Comments

रेशमी जाले (लघुकथा)

"अरे पप्पा! यह तो आपकी प्रिय हीरोइन है न! मोबाइल के इस नये विज्ञापन में यह क्यों कह रही है कि 'पूरा भारत यूं घूम रहा है' !" - इतना कह कर 'बड़े से घेरे वाली नई मिनी फ्रॉक' पहने आठवीं कक्षा की छात्रा अपने युवा देशभक्त-नेता पिता का हाथ थाम उनके चारों तरफ़ चक्कर लगाने लगी!



"यह तो 'मोबाइल नेटवर्क' का विज्ञापन सा लग रहा है! अपने देश का 'व्यापारिक नेटवर्क' इस वैश्वीकरण में 'घूमने' से ही बेहतरीन हो रहा है न!" युवा पिता ने अपनी बेटी की…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 7, 2018 at 2:58pm — 8 Comments

कैसा और कहां? (लघुकथा)

".. और सुनाओ, कैसे हो? हाउ आss यूss?"



"मालूम तो है न! ठीक-ठाक हूं!"



"ओके, मैं भी! लेकिन यह तो बताओ कि सब कुछ अच्छा ही है या अच्छा है सब कुछ 'ठोक-ठाक' के!"



"जानती तो हो ही तुम! घूम रहा हूं तुम्हारी तरह! लेकिन फ़र्क है!"



"फ़र्क! किस तरह का!"



"मेरा घूमना तुम्हारी तरह प्राकृतिक या ब्रह्मंड वाला कक्षा-चक्रीय नहीं है! मैं वैश्वीकरण के कारण घूम रहा हूं; यायावर सा हो गया हूं मैं!"



"हां, जानती तो हूं ही मैं भी!"



"तो…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 30, 2018 at 8:26pm — 3 Comments

राज़ की बातें (लघुकथा)

 "आज कुछ बदलाव सा लग रहा है हर बात में, क्या बात है? सब कुछ मेरी पसंद का!"


"ये मत सोचना जानूं कि देश के बदलाव के साथ ख़ुद को बदल रही हूं!  दरअसल तुम्हारी गोली मुझे अंदर तक घायल कर गई, कल रात!"


इतना कह कर पत्नि ने शरमाते हुए पति की लिखी नई ग़ज़ल वाली पर्ची उसके सीने वाली बायीं जेब में डाल दी!


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 29, 2018 at 3:30pm — 6 Comments

परिवर्तन या अपवर्तन (लघुकथा)

"बेटा, फल के आने से वृक्ष तक झुक जाते हैं, वर्षा के समय बादल झुक जाते हैं, संपत्ति के समय सज्जन भी नम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है! कह गए अपने तुलसीदास जी, समझे!" महाविद्यालय की कैंटीन में राजनीतिक गुफ़्तगु करते छात्र-समूह में से एक ने दूसरे की बात सुनकर हिदायत देने की कोशिश कर डाली!



"अबे, यह सब क़िताबों में ही रहने दे और आज की दुनिया की बात कर!" दूसरे छात्र ने चाट का दोना वेस्टबिन में डालते हुए कहा - "फल आने के अहंकार से संस्कार झुक जाते हैं, धनवर्षा के…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 27, 2018 at 8:15am — 4 Comments

द्वंद्व के ख़तरे (लघुकथा)

"लोकतंत्र ख़तरे में है!"

"कहां?"

"इस राष्ट्र में या उस मुल्क में या उन सभी देशों में जहां वह किसी तरह है!"

"अरे, यह कहो कि वही 'लोकतंत्र' जो कि कठपुतली बन गया है तथाकथित विकसितों के मायाजाल में!"

"हां, तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में या ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!"

"सच तो यह है कि जो धरातल, स्तंभों से दूर हो कर‌ खो सा गया है कहीं आसमान में!"

"हां, दिवास्वप्नों की आंधियों में!"

"... और अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!"

"भाई, इसी तरह यह क्यों नहीं कहते कि इंसानियत…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 25, 2018 at 7:00pm — 2 Comments

वार हर बार (लघुकथा)

"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे जान से मारने की कोशिश कर रहा है!"

"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे जड़ से ख़त्म करने की कोशिशें कर रहा है!"

"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे अपनी नौकरी से हटाने के की कोशिश कर रहा है या फिर मेरा तबादला कराने की कोशिशें कर रहा है!"

"हां, मुझे तो हमेशा यह भी लगता है कि मेरे अपनों को सता-सता कर या मुझे ब्लैकमेल कर मुझे दिग्भ्रमित करने की कोशिशें की जा रही हैं!"

दुनिया के मंच पर भिन्न-भिन्न किरदारों की अदायगी देख कर 'ईमानदारी' ने आंसू…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 24, 2018 at 2:30am — 12 Comments

विचार-मंथन के सागर में (अतुकान्त कविता)

"लोकतंत्र ख़तरे में है!

कहां

इस राष्ट्र में

या

उस मुल्क में!

या

उन सभी देशों में

जहां वह किसी तरह है!

या जो कि

कठपुतली बन गया है

तथाकथित विकसितों के मायाजाल में,

तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में! या

ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!

धरातल, स्तंभों से दूर हो कर

खो सा गया है

कहीं आसमान में!

दिवास्वप्नों की आंधियों में,

अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!



"इंसानियत ख़तरे में है!

कहां

इस मुल्क में

या

उस राष्ट्र…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 2:35pm — 14 Comments

देखा, अनदेखा देखा! (लघुकथा) :

17 अप्रैल, 2017 (मंगलवार) [रात नौ बजे]

डियर डायरी!



आज भी मैंने जो कहा-अनकहा सुना था, वैसा ही पाया और देखा भी, अपने इर्द-गिर्द, अपने घर में, समाज और परिवार में ही नहीं‌, पूरे देश और दुनिया में भी! कथनी और करनी में अंतर! एक से बढ़कर एक फेंकू! बदला लेने के पारम्परिक, ग़ैर-पारम्परिक और आधुनिक तौर-तरीक़े! बदलती हवायें, परिभाषाएं, अवसरवादिता और रीति-रिवाज़! रिश्तों की नीरसता और उनकी पोल! मशीनी आदमी का रमण-अमन-दमन-चलन और प्रकरण ! ख़रीद-फ़रोख़्त!  आधुनिक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 17, 2018 at 7:11pm — 3 Comments

नीयत और नियति (लघुकथा)

"वह भिखारी हमारी तरफ़ देख कर क्यों मुस्करा रहा था, जबकि हमने उस के कटोरे में कुछ भी नहीं डाला!"अतृप्त नज़रों को नज़रंदाज़ करती मॉडर्न लड़की ने भीड़-भाड़ वाली सड़क पर सपरिवार चलते हुए अपने पिता से पूछा!



पिताश्री चुप रहे और उसके गले में हाथ डाल कर बोले - "मत देख उधर! पैसों के लिए इम्प्रेस कर रहा होगा!"



सब के क़दम मेले के मुख्य द्वार की ओर तेजी से बढ़ ही रहे थे कि दादा जी धीरे से उस लड़की के कान में बोले - "दरअसल उसकी निगाहें अपने फटे-चिथे कपड़ों और तुम्हारे बदन दिखाऊ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 15, 2018 at 12:24am — 8 Comments

शील्डिंग ( ढाल) [लघुकथा]

"इन भूखों को कैसे सबक़ सिखाना है, मुझसे पूछो!" आधुनिक नव-यौवना ने पास ही खड़ी किशोर उम्र भतीजी की अत्याधुनिक कसी हुई पोशाक उसके शरीर पर किसी तरह समायोजित करते हुए कहा।

"इन पर ध्यान दिए बिना, है न!"

"हां, इन्हें दूर से ही अपनी आंखें सेंकने दो! कुछ गड़बड़ करें या छुएं, तभी अपने नुस्ख़े आजमाना है, समझीं! नीयत तो अधिकतर की वही होती है!" भतीजी की बात पर समझाते हुए युवती ने कहा - "नये ज़माने के साथ चलो और इसी ज़माने की ढालें साथ लेकर चलो! तन को पूरा ढंकलो या मनचाहा…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 15, 2018 at 12:13am — 6 Comments

ढाक के तीन पात (लघुकथा)

चुनाव नतीज़ों के साथ ही एक तरफ़ 'जीत' के जश्न हैं तो दूसरी तरफ़ 'हार' में छिपी प्रोत्साहक 'जीत' के जश्न हैं! जीते हुओं के चेहरों पर ' वैसी' मुस्काने नहीं हैं, जो असली में होती हैं! हारकर भी 'जीत' महसूस करने वालों के चेहरों पर कुछ अज़ीब सी मुस्कानें हैं! आम चुनावों में  विजेता दलों के संगठन और उसे अच्छी टक्कर देने वाला, नेस्तनाबूद माना जाने वाला इकलौता विरोधी संगठन, दोनों के ख़ास नेताओं के समक्ष ढेरों प्रश्न हैं!लोकतांत्रिक देश का आम आदमी भौंचक्का सा मीडिया पर अपनी…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 11, 2018 at 4:06am — 11 Comments

अवलम्बन (लघुकथा)

'भीड़' से हासिल अपने अनुभवों के मुताबिक़ मरियल से बुज़ुर्ग मियां-बीवी अपने कटोरे लेकर बहुचर्चित धरने वाली जगह पर कुछ मिलने की उम्मीद से पहुंचे। काफी देर तक भीड़ और अपने खाली कटोरों को ताकते हुए वे मंचीय भाषण सुनते रहे। फिर निराश होकर वहां से लौटने लगे।
"चलो मियां, किसी बड़े मंदिर या गुरुद्वारे की तरफ़ चलते हैं!" अपनी अधनंगी से पोती को गोदी में लेते हुए बीवी ने शौहर से कहा।
"हां चलो, वहीं…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 9, 2018 at 4:54am — 11 Comments

धतूरे (लघुकथा)

"कितनी बार कहा कि ऐसी पवित्र धार्मिक जगहों पर मंद-मंद मुस्कराया मत करो!" रामदीन को कोहनी मारते हुए उसके दोस्त ने कहा - " यहां चलते-फिरते सीसीटीवी कैमरे भी हैं! स्टिंग ऑपरेशन तक हो सकते हैं, समझे!"



"कितने दर्शन और करने होंगे! इस सदी में भी यहां ये कस्टम-सिस्टम! .. और कहां-कहां जाना पड़ेगा!" बड़ी बेचैनी के साथ धार्मिक औपचारिकताएं निभाते हुए रामदीन ने धीरे से कहा।



"आदत डाल ही लो! बड़े नेता के बेटे हो! अब जीवन में यही करना होगा!" - रामदीन के माथे से पसीने की बूंदें अपने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2018 at 10:17am — 11 Comments

तज़ुर्बे (लघुकथा)

"लगता है कि अभी भी यह उड़ना नहीं सीख पायी।"


"अरे नहीं! दरअसल वह  उड़ना भूल चुकी है बुरे तज़ुर्बों से !" - नई सदी की हैरान, परेशान नवयौवना को घर की छत पर अनिर्णय की स्थिति में देख उसके इर्द-गिर्द हवा में उड़ते एक गिद्ध ने अपने साथी कौवे से कहा। कौवा उस गिद्ध को घूरने सा लगा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 7, 2018 at 10:07pm — 16 Comments

ग़ुस्ताख़ी मुआफ़ (लघुकथा)

मिर्ज़ा मासाब कई बार मांसाहार छोड़ने की नाक़ामयाब कोशिशें कर चुके थे।‌ लेकिन उनके घर में बेगम साहिबा के रिवाज़ के मुताबिक़ हर छोटी-बड़ी ख़ुशी के मौक़े पर या तो चिकन पकता या मछली। कभी छोटे या बड़े की जुगाड़ होती या बाज़ार के कबाबों की! मिर्ज़ा जी के शाकाहारी बनने के ख़्वाब इस बार भी चकनाचूर हो गये। रात के ख़ाने के वक़्त दस्तरख़्वान पर बकरे का लज़ीज़ गोश्त पहले से कोई बातचीत किये बिना ही पेश कर दिया गया।‌ उन्होंने बुरा सा मुंह बनाते हुए बेगम की तरफ़ देखा।



"ख़ुशी का मौक़ा था न! आज…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 6, 2018 at 9:36pm — 6 Comments

मानवेतर कथा/लघुकथा (अतुकान्त कविता)

मानव से इतर
तीतर-बीतर
कौए-कबूतर
शेर-चूहे
सपना-परिकल्पना
कछुआ-खरग़ोश
होश-बेहोश
जड़-चेतन, मूर्त-अमूर्त
भूत प्रेत-एलिअन
जिनके
सजीव-निर्जीव पात्र
मानवीय आचरण में
सज्जन-दुर्जन
मानव-संवाद
तंज/कटाक्ष
यथार्थ सी कल्पना
प्रतीकात्मक
बिम्बात्मक
बोधात्मक
सार्थक सर्जना
व्यंजना-रंजना
कल्पना-लोक-भ्रमण
सार्थक
मानवेतर
कथा या हो लघुकथा सृजन!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 28, 2018 at 11:12pm — 9 Comments

मर्द का दर्द (लघुकथा)

उनके बंगले के बाहर आज फिर उनके दीवानों, प्रशंसकों और पत्रकारों की ग़ज़ब की भीड़ लगी हुई थी। एक वरिष्ठ पत्रकार को उनसे रूबरू होने का मौक़ा मिला। बातचीत शुरू हुई :



"बहुत-बहुत मुबारक हो आपकी एक और जीत !" पत्रकार ने अभिवादन करते हुए कहा - "अस्पताल से लौट कर अब कैसा महसूस कर रहे हैं?"

"चिकित्सकों की कर्मभूमि से अपनी कर्मभूमि पर जाने के लिए फिर से तैयार हूं!" उन्होंने अपनी चिर-परिचित जोशीली आवाज़ में पत्रकार को जवाब देते हुए कहा - "बचपन से ही सिर पर है अल्लाह का हाथ इस अल्लारक्खा…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 14, 2018 at 4:00am — 7 Comments

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