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निकलते अब पहाड़ों के सुरों से दर्द के नाले (ग़ज़ल 'राज'

१२२२   १२२२   १२२२   १२२२

कहीं मलबा कहीं पत्थर कहीं मकड़ी के हैं जाले

कहानी गाँव  की कहते घरों के आज ये ताले  

 

किया बर्बाद मौसम ने छुड़ाया गाँव घर आँगन

यहाँ दिन रात रिसते हैं दिलों में गम के ये छाले

 

भटकते शह्र में फिरते मिले दो वक्त की रोटी

सिसकते गाँव के चूल्हे तड़पते दीप के आले*

 

कहाँ संगीत झरनों के परिंदों की कहाँ चहकन 

निकलते अब  पहाड़ों के सुरों से  दर्द के नाले

 

लुटा…

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Added by rajesh kumari on July 8, 2017 at 6:30pm — 13 Comments

हम पत्थर को अपना बैठे (छोटी बह्र पर ग़ज़ल 'राज')

२ २ २ २  २ २ २ २

हम अपनों को बिसरा बैठे

गम पास हमारे आ बैठे

 

 जलने की तमन्ना थी दिल में

सूरज को हाथ लगा बैठे

 

तुम शाद रहो आबाद रहो

हम तो दिल को फुसला बैठे

 

जब दुनिया में इंसा न मिला

हम पत्थर को अपना बैठे

 

कश्ती ने  हाथ बढ़ाया जब

 हम दूर किनारे  जा बैठे

 

कैसा शिकवा कैसा गुस्सा

किस्मत से हाथ मिला बैठे

 

गिर्दाब बनाया  हमने जो                                  …

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Added by rajesh kumari on June 13, 2017 at 12:30pm — 9 Comments

बटा ग़िलाफ़ तलक माँ की उस रिजाई का (ग़ज़ल 'राज')

1212 1122 1212 22 (ग़ज़ल कतआ से शुरू है )

किसी की आँख से अश्कों की आशनाई का

किसी जुबान से लफ़्ज़ों की बेवफाई का

सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं

भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का

जमीन बिछ गई आकाश बन गया कम्बल

बटा ग़िलाफ़ तलक  माँ की उस रिजाई का

जहर भी पी गई मीरा  जुनून-ए-उल्फत में

न होश था न उसे इल्म जग हँसाई का

लगाम लग गई उसके फिजूल खर्चों पर

गया जो पैसा…

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Added by rajesh kumari on May 21, 2017 at 3:30pm — 13 Comments

“किन्नर” (लघु कथा 'राज')

पांच मिनट के लिए स्टेशन पर गाड़ी रुकी जनरल बोगी में पहले ही बहुत भीड़ थी उसपर बहुत से लोग और घुस आये जिनमे सजे धजे परफ्यूम की सुगंध बिखेरते चार किन्नर भी थे| कुछ लोगों के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान आ गई जैसे की कोई मनोरंजन का सामान देख लिया  हो कुछ लोगों ने अजीब सा मुंह बनाया तथा एक साइड को खिसक लिए जैसे की कोई छूत की बीमारी वाले आस- पास आ गए हों|

“अब ये  अपने धंधे पर लगेंगे” वहाँ बैठे लडकों के ग्रुप में से एक ने कहा| “हाँ यार आज कल तो ट्रेन में भी आराम से सफ़र नहीं कर सकते अच्छी…

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Added by rajesh kumari on April 24, 2017 at 12:08pm — 26 Comments

सुन्दरी सवैया (राज )

११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ २

सुन्दरी सवैया (मापनीयुक्त वर्णिक)

वर्णिक मापनी - 112 X 8 + 2 



निकले घर से नदिया लहरी शुचि शीतलता पहने गहना है|

चलते रहना मृदु  नीर लिए हर मौसम में उसको बहना है|

कटना छिलना उठना गिरना निज पीर सभी हँसके सहना है|

अधिकार नहीं कुछ बोल सके अनुशासन में उसको रहना है| 

 

खुशबू जिसमे सच की बसती उससे बढ़के इक फूल नहीं है|

जननी रखती निज पाँव जहाँ उससे शुचि पावन धूल नहीं है|

जिसके रहते अरि फूल छुए…

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Added by rajesh kumari on April 11, 2017 at 6:12pm — 7 Comments

खड़े तनकर तुम्हारे सामने दीवार भी हम थे (ग़ज़ल 'राज')

बहा तुमको लिए जाती थी जो वो  धार भी हम थे

हमी साहिल तुम्हारी नाव के  पतवार भी हम थे

निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम

खड़े तनकर  उसी के  सामने दीवार भी हम थे

मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर 

छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे

किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता 

तुम्हारा  दर्द पीने  को वहाँ गमख्वार भी हम थे

रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था

वहाँ मौजूद उसको काटने…

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Added by rajesh kumari on April 9, 2017 at 8:30pm — 21 Comments

‘नया मुर्दा’ (लघु कथा 'राज')

 नदी का वो  घाट पर जहाँ दूर-दूर तक मुर्दों के जलने से मांस की सड़ांध फैली रहती थी साँस लेना भी दूभर होता था वहीँ थोड़ी ही दूरी पर एक झोंपड़ी ऐसी भी थी जो चिता की अग्नि से रोशन होती थी|

भैरो सिंह का पूरा परिवार उसमे रहता था दो छोटे छोटे बच्चे झोंपड़ी के बाहर रेत के घरोंदे बनाते हुए अक्सर दिखाई दे जाते थे |

दो दिन से घाट पर कोई चिता नहीं जली थी बाहर बच्चे खेलते-खेलते उचक कर राह देखते- देखते थक गए थे कि अचानक उनको राम नाम सत्य है की आवाजें सुनाई दी सुनते ही बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े…

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Added by rajesh kumari on April 5, 2017 at 9:00pm — 20 Comments

इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए (ग़ज़ल 'राज')

हाजिरी वो ज्यों  लगाने आ गए

याद उनको फिर बहाने आ गए

 

मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या 

जख्म हमको भी छुपाने आ गए

 

चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर

लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए

 

जेब मेरी हो गई भारी जरा 

दोस्त मेरे आजमाने आ गए

 

रोज लिखना शायरी उनपर नई  

याद हमको वो फ़साने आ गए

 

शमअ इक है लाख परवाने यहाँ 

इश्क में खुद जाँ  लुटाने आ गए  

 

झील में अश्जार के धुलते …

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Added by rajesh kumari on April 2, 2017 at 11:00am — 24 Comments

सरसी छंद होली के रंग

 सरसी छंद

वृन्दावन की ले पिचकारी,बरसाने का रंग|

अंग अंग धो डालो पीकर ,महादेव की भंग|

राधा जैसी पावनता ले ,कान्हा जैसा प्यार|

बरसाओ पावन रंगों की ,रिमझिम मस्त फुहार| 

 

चन्दा से लेकर कुछ चाँदी ,औ सूरज से स्वर्ण|

केसर की क्यारी से चुनकर ,केसरिया नव पर्ण|

सच्चाई मन की अच्छाई ,साथ मिलाकर घोट|

पावन रंग बनाना  सच्चा ,नहीं मिलाना खोट|

 

द्वेष क्लेश से मैले मुखड़े ,जग में मिलें अनेक|

भूल हरा केसरिया आओ ,हों जाएँ सब…

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Added by rajesh kumari on March 13, 2017 at 7:29pm — 14 Comments

दुर्मिल सवैया ‘फाग बयार’

११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२

भँवरे कलियाँ तरु  झूम उठें जब फाग बयार करे बतियाँ|

दिन रैन कहाँ फिर चैन पड़े कतरा- कतरा कटती रतियाँ|

कविता, वनिता, सविता, सरिता ढक के मुखड़ा छुपती फिरती|

जब रंग अबीर लिए कर में निकले किसना धड़के छतियाँ|…

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Added by rajesh kumari on March 6, 2017 at 3:19pm — 18 Comments

चुगलियाँ कर बैठी आँखें और हैरानी मेरी (ग़ज़ल 'राज'

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

कितने रिश्ते तोड़ आई तल्ख़ मनमानी मेरी

क्यूँ गवारा हो किसी को अब परेशानी मेरी

 

शमअ के पहलू में रख कर जान  परवाना  कहे

इक कहानी खुद लिखेगी अब ये कुर्बानी मेरी

 

रूबरू आये तो धोका दे गया मेरा नकाब

चुगलियाँ कर बैठी आँखें और हैरानी मेरी  

 

टांक दो दिलकश सितारे कहकशाँ से तोड़कर

बोलती है अब्र से देखो चुनर धानी मेरी

 

शह्र भर में कू ब कू तक हो गई रुस्वाइयाँ

कर गई बर्बाद मुझको…

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Added by rajesh kumari on March 1, 2017 at 11:30am — 24 Comments

बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को (तरही ग़ज़ल 'राज')

221  1221 1221  122

अपनाया मुहब्बत में पतिंगो  ने क़जा को

बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को  

 

है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था

बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था  सजा को

 

जो लोग  सदाकत से करें पाक मुहब्बत

वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को

 

आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर   

समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को 

 

देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर

लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया…

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Added by rajesh kumari on February 17, 2017 at 10:30am — 16 Comments

यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये (ग़ज़ल 'राज')

२२१ २१२१ १२२१ २१२

बह्र-ए-मज़ारअ मुसम्मिन अखरब मकफूफ़

 

यूँ भीड़ में जनाब पुकारा न कीजिये

रुसवा हमें यूँ आप दुबारा न कीजिये

 

बिलकुल खुली किताब है चेहरा ये आपका

हर रोज पढ़ रहे हैं इशारा न कीजिये

 

नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ

यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये

 

मौजे मचल रही हैं तुम्हे देख देख कर

गर पाँव चूम लें तो किनारा न कीजिये

 

गुलशन उदास होगा परेशान डालियाँ

यूँ रास्ते गुलों से…

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Added by rajesh kumari on February 12, 2017 at 8:54am — 23 Comments

मेरी तरह से तुम्हारा ये हाल हो के न हो(ग़ज़ल 'राज')

१२१२  ११२२   १२१२  ११२

मेरी वफा का तुम्हें  कुछ ख़याल हो के न हो

इनायतों का खुदा की कमाल हो के न हो

 

मैं हो गई हूँ मुहब्बत में क्या से क्या ए सनम   

मेरी तरह से तुम्हारा ये हाल हो के न हो

 

बिना पढ़े ही निगाहों से दे दिया है जबाब

लिखा जो खत में वो मेरा सवाल हो के न हो

 

गुलाब  से ही मुहब्बत करे ज़माना यहाँ

शबाब उसमे है पूरा जमाल हो के न हो

 

कमाँ से कितने उछाले  हैं तीर भँवरे यहाँ

ये हाथ में है…

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Added by rajesh kumari on February 7, 2017 at 10:00pm — 16 Comments

सहम सहम निकल रही कली कली नकाब में (ग़ज़ल 'राज')

1212  1212  1212  1212

फँसा रहे बशर सदा गुनाह ओ सवाब में

हयात झूलती सदा सराब में हुबाब में

 

बची हुई अभी तलक महक किसी गुलाब में

बता रही हैं अस्थियाँ छुपी हुई किताब में

 

जहाँ जुदा हुए कभी रुके  वहीं सवाल हैं

गुजर गई है जिन्दगी लिखूँ मैं क्या जबाब में

 

लिखें जो ताब पर ग़ज़ल सुखनवरों की बात अलग

वगरना लोग देखते हैं आग आफ़ताब में

 

फ़िज़ूल में ही अब्र ये छुपा रहा है चाँद को

जमाल हुस्न का कभी न छुप सका…

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Added by rajesh kumari on January 25, 2017 at 11:00am — 13 Comments

“कमीने” (लघु कथा “राज”)

‘रिमझिम के तराने लेके आई बरसात.. याद आये किसी की वो पहली मुलाक़ात’ ---गाना बज रहा था  बिजनेसमैन आनंद सक्सेना साथ साथ गुनगुनाता जा रहा था रोमांटिक  होते हुए बगल में बैठी हुई पत्नी सुरभि के हाथ को धीरे से दबाकर  बोला- “सच में बरसात में लॉन्ग ड्राइव का अपना ही मजा होता है”.

“मिस्टर रोमांटिक, गाड़ी रोको रेड लाईट आ गई”  कहते हुए सुरभि ने मुस्कुराकर हाथ छुड़ा  लिया|

अचानक सड़क के बांयी और से बारिश से  तरबतर  दो बच्चे फटे पुराने कपड़ों में कीचड़ सने हुए नंगे पाँव से गाड़ी के पास आकर बोले…

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Added by rajesh kumari on January 23, 2017 at 10:56am — 31 Comments

‘खुशबू’ (लघु कथा 'राज')

“भैय्या, जल्दी बस रोकना!!” अचानक पीछे से किसी महिला की तेज आवाज आई|

सभी सवारी मुड़ कर  उस स्त्री को घूरती हुई नजरों से देखने लगी शाम होने को थी सभी को घर पँहुचने की जल्दी थी|

महिला के बुर्के  में शाल में लिपटी एक नन्ही सी बच्ची थी जो सो रही थी |ड्राइवर ने धीरे धीरे बस को एक साइड में रोक दिया| पीछे से वो महिला आगे आई और तुरत फुरत में बच्ची को ड्राईवर की गोद में डाल कर सडक के दूसरी और झाड़ियों में विलुप्त हो गई|

 ड्राईवर हतप्रभ रह गया कभी बच्ची को कभी सवारियों को देख…

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Added by rajesh kumari on January 18, 2017 at 7:16pm — 18 Comments

दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ (वादियों की एक दिलकश सुबह ग़ज़ल "राज")

2122   2122  212

सुन हवाओं की जवाँ सरगोशियाँ

दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ

 

देख  भँवरे   की नजर  में शोखियाँ  

चुपके  चुपके हँस रही थीं  तितलियाँ

 

 नींद में सोये  कँवल भी जग उठे     

गुफ्तगू जब कर रही थी किश्तियाँ

 

 छटपटाती कैद में थी  चाँदनी

हुस्न को ढाँपे हुए थी बदलियाँ

 

मुट्ठियों में भींच के सिन्दूर को

मुन्तज़िर खुर्शीद की थी रश्मियाँ  

 

फिक्र-ए-शाइर पे भी छाया नूर…

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Added by rajesh kumari on January 15, 2017 at 1:30pm — 18 Comments

मेरे कानों में मुहब्बत फुसफुसाया कौन था (ग़ज़ल 'राज ')

2122  2122  2122  212

किसने  होंटों पे तबस्सुम को  सजाया कौन था

छुप के दिल में वस्ल का दीपक जलाया कौन था

 

साँसे मेरी जीस्त मेरी मेरा अपना था वजूद

धडकनों पे मेरी जिसने हक जमाया कौन था

 

जब कभी भीगी तख़य्युल में कहीं पलकें मेरी

शबनमी उन  झालरों से मुस्कुराया कौन था

 

गुफ्तगू के उस सलीके पर मेरा तन मन निसार

बातों बातों में मुझे अपना बनाया  कौन था

 

जब तेरी फ़ुर्कत…

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Added by rajesh kumari on January 9, 2017 at 3:00pm — 18 Comments

पूंजियों की सीरतें भी काली गोरी देखिये(ग़ज़ल 'राज '

2122  2122  2122  212

कर की चोरी देखिये जी धन की चोरी देखिये

लूटकर पकड़े गये तो जब्रजोरी देखिये

 

नोट्बंदी देखिये जी नोट खोरी देखिये

पूंजियों की सीरतें  भी काली गोरी देखिये

 

नोट्बंदी का हथौड़ा ऐसा बैठा पीठ पर

भ्रष्टता की सरबसर टूटी तिजोरी देखिये

 

बह रहे हैं नोट सारे वो पुराने हर जगह

क्या समन्दर क्या नदी तालाब मोरी देखिये

 

लूटखोरी की बदौलत खत्म पैसे बैंक में

 लाइनों की टूटती अब आस…

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Added by rajesh kumari on December 13, 2016 at 12:08pm — 19 Comments

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