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दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ (वादियों की एक दिलकश सुबह ग़ज़ल "राज")

2122   2122  212

सुन हवाओं की जवाँ सरगोशियाँ

दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ

 

देख  भँवरे   की नजर  में शोखियाँ  

चुपके  चुपके हँस रही थीं  तितलियाँ

 

 नींद में सोये  कँवल भी जग उठे     

गुफ्तगू जब कर रही थी किश्तियाँ

 

 छटपटाती कैद में थी  चाँदनी

हुस्न को ढाँपे हुए थी बदलियाँ

 

मुट्ठियों में भींच के सिन्दूर को

मुन्तज़िर खुर्शीद की थी रश्मियाँ  

 

फिक्र-ए-शाइर पे भी छाया नूर सा

देख कातिल हुस्न की ये मस्तियाँ

 

चाहती है कौन बंधन जाल का 

मशविरा ये कर रही थी मछलियाँ

 

घोंसले  में जिन्दगी महफूज़ थी
शाख़ ने थामी हुई थी बिजलियाँ

 

हो गई कलियाँ शहाबी इश्क में

राज खोलें सब लबों की सुर्खियाँ 

---------मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 9:23pm

आद० रोहिताश्व मिश्रा जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 9:22pm

आद० गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरी ग़ज़ल धन्य हुई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 9:21pm

मुहतरम  जनाब  उस्मानी जी ,आपकी इस होंस्लाफ्जाई का दाद का तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ |

Comment by रोहिताश्व मिश्रा on January 17, 2017 at 9:13pm

Vaah.....

Bahut pyaari si ghazal..hai...

Vaaaah


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 17, 2017 at 8:49pm

आदरनीया राजे श जी , बढिया गज़ल कही है आपने , सभी अश आर अच्छे निकाले हैं आपने , बधाइयाँ स्वीकार करें ।  आ. समर भाई जी बातों  का ख़्याल कीजियेगा . साथ ही  मतले पर आ. मिथिलेश भाई  जी की सलाह भी खूब है ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 17, 2017 at 8:30pm
गुनगुनाने लायक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा। मोहतरम जनाब समर कबीर साहब व अन्य सभी वरिष्ठजन की टिप्पणियों से हमें भी बहुत लाभ होता है। आप सभी को हृदयतल से बहुत बहुत शुक्रिया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 7:55pm

मिथिलेश भैय्या आपका तहे दिल से शुक्रिया .आपकी इस्स्लाह भी स्वागत योग्य है बहुत अच्छा है | आप लोगों की इस्स्लाह से ग़ज़ल के सौन्दर्य में वाकई निखार आया है बहुत शुक्रगुजार हूँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 7:52pm

आद० समर भाई जी ,बहुत बहुत शुक्रिया. मूल पोस्ट में मतले में सुधार  कर लिया है .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 17, 2017 at 12:03pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. दीदी आपका मतला मैंने कुछ यूं गुनगुनाया है-

जब हवाओं में हुई सरगोशियाँ 

दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ

बाकी अशआर एक से बढ़कर एक हुए है. मक्ता भी जबरदस्त है. इस शानदार ग़ज़ल पर दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Samar kabeer on January 16, 2017 at 2:58pm
बहना संशोधन के बाद ग़ज़ल ख़ूब निखर गई है,लेकिन मतले का ऊला मिसरा फिर से देखिये,'सरगोशियाँ'न जवान होती हैं न बूढी ?
और जहाँ अनुस्वार की आवश्यकता है वहाँ फिर से देखिये,एक वचन और बहुवचन का फ़र्क़ पड़ रहा है ।

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