मुफरद बह्रों से बनने वाली मुजाहिफ बह्रेंइस बार हम बात करते हैं मुफरद बह्रों से बनने वाली मुजाहिफ बह्रों की। इन्हें देखकर तो अनुमान हो ही जायेगा कि बह्रों का समुद्र कितना बड़ा है। यह जानकारी संदर्भ के काम की है याद करने के काम की नहीं। उपयोग करते करते ये बह्रें स्वत: याद होने लगेंगी। यहॉं इन्हें देने का सीमित उद्देश्य यह है जब कभी किसी बह्र विशेष का कोई संदर्भ आये तो आपके पास वह संदर्भ के रूप में उपलब्ध रहे। और कहीं आपने इन सब पर एक एक ग़ज़ल तो क्या शेर भी कह लिया तो स्वयं को धन्य…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by मनोज अहसास Sep 27.
(श्री तिलक राज कपूर जी द्वारा मेल से भेजे गए पोस्ट को हुबहू पोस्ट किया जा रहा है.....एडमिन) जि़हाफ़:जि़हाफ़ का शाब्दिक अर्थ है न्यूनता या कमी। बह्र के संदर्भ में इसका अर्थ हो जाता है अरकान में मात्राओं की कमी। ग़ज़ल का आधार संगीत होने के कारण यह जरूरी हो गया कि मात्रिक विविधता पैदा की जाये जिससे बह्र विविधता प्राप्त हो सके। इसका हल तलाशा गया मूल अरकान में संगीतसम्मत मात्रायें कम कर उनके नये रूप बनाकर। मात्रायें कम करना कोई तदर्थ प्रक्रिया नहीं है, इसके निर्धारित नियम हैं।मुख्य…Continue
Started by Admin. Last reply by आवाज शर्मा Jul 20, 2011.
बह्र विवरण-अगला चरण:पिछली पोस्ट में जो जानकारी दी गयी थी उससे एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि सभी मुफ़रद बह्र एक ही रुक्न की आवृत्ति से बनती हैं तो वो प्रकृति से ही सालिम हैं और मुरक्कब बह्र अलग-अलग अरकान से बनती हैं तो सालिम हो नहीं सकतीं फिर सालिम परिभाषित करने की आवश्यकता कहॉं से पैदा हुई। जहॉं तक मूल अरकान की बात है उनके लिये सालिम परिभाषित करने की वास्तव में कोई आवश्यकता नहीं थी लेकिन अरकान के जि़हाफ़़ से मुज़ाहिफ़ बह्र बनती हैं और उनमें एक ही जि़हाफ़़ की आवृत्ति होने पर सालिम की…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by Tilak Raj Kapoor May 14, 2011.
ग़ज़ल की विधा में रदीफ़ काफि़या तक बात तो फिर भी आसानी से समझ में आ जाती है, लेकिन ग़ज़ल के तीन आधार तत्वों में तीसरा तत्व है बह्र जिसे मीटर भी कहा जा सकता है। आप चाहें तो इसे लय भी कह सकते हैं मात्रिक-क्रम भी कह सकते हैं।रदीफ़ और काफि़या की तरह ही किसी भी ग़ज़ल की बह्र मत्ले के शेर में निर्धारित की जाती है और रदीफ़ काफिया की तरह ही मत्ले में निर्धारित बह्र का पालन पूरी ग़ज़ल में आवश्यक होता है। प्रारंभिक जानकारी के लिये इतना जानना पर्याप्त होगा कि बह्र अपने आप में एकाधिक रुक्न…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by मिथिलेश वामनकर Jul 21.
काफि़या को लेकर अब कुछ विराम लेते हैं। जितना प्रस्तुत किया गया है उसपर हुई चर्चा को मिलाकर इतनी जानकारी तो उपलब्ध हो ही गयी है कि इस विषय में कोई चूक न हो। रदीफ़ को लेकर कहने को बहुत कुछ नहीं है फिर भी कोई प्रश्न हों तो इस पोस्ट पर चर्चा के माध्यम से उन्हें स्पष्ट किया जा सकता है। लेकिन रदीफ़ और काफि़या को लेकर कुछ महत्वपूर्ण है जिसपर चर्चा शेष है और वह है रदीफ़ और काफि़या के निर्धारण में सावधानी। यह तो अब तक स्पष्ट हो चुका है कि रदीफ़ की पुनरावृत्ति हर शेर में होती है और काफि़या का…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by kanta roy Jan 27, 2016.
पिछले आलेख में हमने प्रयास किया काफि़या को और स्पष्टता से समझने का और इसी प्रयास में कुछ दोष भी चर्चा में लिये। अगर अब तक की बात समझ आ गयी हो तो एक दोष और है जो चर्चा के लिये रह गया है लेकिन देवनागरी में अमहत्वपूर्ण है। यह दोष है इक्फ़ा का। कुछ ग़ज़लों में यह भी देखने को मिलता है। इक्फ़ा दोष तब उत्पन्न होता है जब व्यंजन में उच्चारण साम्यता के कारण मत्ले में दो अलग-अलग व्यंजन त्रुटिवश ले लिेये जाते हैं। वस्तुत: यह दोष त्रुटिवश ही होता है। इसके उदाहरण हैं त्रुटिवश 'सात' और 'आठ' को…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by Nilesh Shevgaonkar Apr 22, 2017.
काफि़या को लेकर आगे चलते हैं।पिछली बार अभ्यास के लिये ही गोविंद गुलशन जी की ग़ज़लों का लिंक देते हुए मैनें अनुरोध किया था कि उन ग़ज़लों को देखें कि किस तरह काफि़या का निर्वाह किया गया है। पता नहीं इसकी ज़रूरत भी किसी ने समझी या नहीं।कुछ प्रश्न जो चर्चा में आये उन्हें उत्तर सहित लेने से पहले कुछ और आधार स्पष्टता लाने का प्रयास कर लिया जाये जिससे बात समझने में सरलता रहे।काफि़या या तो मूल शब्द पर निर्धारित किया जाता है या उसके योजित स्वरूप पर। पिछली बार उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' लिये गये…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by Rachna Bhatia Apr 27, 2019.
एक बात जो आरंभ में ही स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यह आलेख काफि़या का हिन्दी में निर्धारण और पालन करने की चर्चा तक सीमित है। उर्दू, अरबी, फ़ारसी या इंग्लिश और फ्रेंच आदि भाषा में क्या होता मैं नहीं जानता।पिछले आलेख पर आधार स्तर के प्रश्न तो नहीं आये लेकिन ऐसे प्रश्न जरूर आ गये जो शायरी का आधार-ज्ञान प्राप्त हो जाने और कुछ ग़ज़ल कह लेने के बाद अपेक्षित होते हैं।प्राप्त प्रश्नों पर तो इस आलेख में विचार करेंगे ही लेकिन प्रश्नों के उत्तर पर आने से पहले पहले कुछ और आधार स्पष्टता प्राप्त…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by Rajeev Bharol Feb 22, 2012.
ग़ज़ल की आधार परिभाषायें जानने के बाद स्वाभाविक उत्सुकता रहती है इन परिभाषित तत्वों के प्रायोगिक उदाहरण जानने की। ग़ज़ल में बह्र का बहुत अधिक महत्व है लेकिन उत्सुकता सबसे अधिक काफि़या के प्रयोग को जानने की रहती है। आज प्रयास करते हैं काफि़या को उदाहरण सहित समझने की।सभी उदाहरण मैनें आखर कलश पर प्रकाशित गोविन्द गुलशन जी की ग़ज़लों से लिये हैं। एक मत्ला देखें:'दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआमिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ'इसमें 'बना हुआ' तो मत्ले की दोनों पंक्तियों के अंत में आने…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by विनोद 'निर्भय' Nov 17, 2018.
यह आलेख उनके लिये विशेष रूप से सहायक होगा जिनका ग़ज़ल से परिचय सिर्फ पढ़ने सुनने तक ही रहा है, इसकी विधा से नहीं। इस आधार आलेख में जो शब्द आपको नये लगें उनके लिये आप ई-मेल अथवा टिप्पणी के माध्यम से पृथक से प्रश्न कर सकते हैं लेकिन उचित होगा कि उसके पहले पूरा आलेख पढ़ लें; अधिकाँश उत्तर यहीं मिल जायेंगे। एक अच्छी परिपूर्ण ग़ज़ल कहने के लिये ग़ज़ल की कुछ आधार बातें समझना जरूरी है। जो संक्षिप्त में निम्नानुसार हैं:ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्ला, मक्ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन…Continue
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Started by Tilak Raj Kapoor. Last reply by Asif zaidi Jan 22, 2019.
Comment
प्रिय मित्रों,
गुरू जी के स्थान पर आप मुझे नाम से संबोधित करेंगे तो मुझे सहज लगेगा।
मैनें आरंभ में ही कह दिया कि मैं स्वयं सतत् विद्यार्थी हूँ ग़ज़ल विधा का और मानता हूँ कि इसमें एक दूसरे से सीखने को बहुत कुछ है। मेरा प्रयास वह साझा करने का रहेगा जो मुझे ज्ञात है। गुरू कहलाने के लिये आवश्यक गुरुत्व का अभाव होने से मैं आपके बीच एक ऐसे सहपाठी के रूप में उपस्थित हूँ जो अन्य पाठशालाओं से पढ़कर आयेगा और प्रयास करेगा कि सरल रूप में विधा की जानकारी प्राप्त हो।
जैसे-जेसे हम आगे बढ़ेंगे मेरी बात और स्पष्ट होती जायेगी, जहॉं मैं उत्तर देने में स्वयं को अक्षम पाऊँगा वहॉं अपने सम्पर्कों का भरपूर उपयोग करने का प्रयास करूँगा।
"यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता"
बिलकुल सही बात कही आपने तिलक जी. कई साल पहले जब मैं शाष्त्रीय संगीत कि शिक्षा ले रहा था तो मेरे गुरूजी कहा करते थे की संगीत तो तुम्हारे अंदर होता है जिसे मैं बाहर निकलने/निखारने की कोशिश कर रहा हूँ. यही बात गज़ल पर भी लागू होती है.
मुझे बताया गया कि ग़ज़ल पर विशद् ज्ञान रखने वाले उस्तादों से पूछ लिया गया है और वे इस कार्य के लिये समय देने की स्थिति में नहीं हैं और एक विकल्प के रूप में मुझे यह प्रयास करना है कि जो कुछ मुझ ज्ञात है ग़ज़ल विधा पर वह साझा कर सकूँ।
मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानता कि इस विषय पर कक्षायें ले सकूँ, लेकिन ज्ञात परिस्थितियों में प्रयास से पीछे भी नहीं हट सकता। अगर मैं वास्तव में कक्षायें ले सकता तो अब तक अपने ब्लॉग पर ही आरंभ कर चुका होता।
ग़ज़ल कहना सीखा जा सकता है इसपर मतभेद है। मैं इस मतभेद से सहमत हूँ फिर भी मानता हूँ कि ग़ज़ल का आधार ज्ञान भी व्यवस्थित रूप से प्राप्त हो जाये तो ग़ज़ल कहने की संभावना बढ़ जाती है। इसी सोच को ध्यान में रखकर मुझे जो ज्ञात है वह प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य करूँगा। बावजू़द इसके कि ग़ज़ल कहना सीखना हो तो इंटरनैट पर बहुत जानकारी उपलब्ध है, व्यवस्थित भी और अव्यवस्थित भी। अब वो वक्त नहीं रहा कि ज्ञान प्राप्त करना हो तो तक्षशिला जाना पड़े, इंटरनैट के माध्यम से तक्षशिला ही इच्छुक तक पहुँच जाती है।
मैं स्वयं ग़ज़ल का विद्यार्थी हूँ इसलिये मुझसे तक्षशिला स्तर की अपेक्षा तो ठीक नहीं रहेगी, हॉं इतना अवश्य है कि जो कुछ प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा उससे ग़ज़ल कहने के इच्छुक भले ही कुछ न सीख सकें, वे अवश्य सीख सकेंगे जो प्रतिबद्ध होंगे। प्रयास यह रहेगा कि अब तक मुझे जो प्राप्त हुआ है वह सामान्य हो सके।
बहुत से ऐसे शायर ऐसे हुए हैं जिनके नाम गुम हैं कलाम जिन्दा। और यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता। इसलिये अच्छी ग़ज़ल कहने के लिये अपने अंदर भाव पक्ष और सोच को तलाशना जरूरी होगा और फिर जरूरी होगा शब्द समर्थ होना।
पाठ तो सीमित रहेंगे विधान और विस्तृत चर्चा तक। चर्चा और गृह-कार्य में सक्रियता उनके लिये अवश्य सहायक होगी जो अभी इस विधा से परिचित नहीं हैं।
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