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जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'-(गजल)

२१२२ २१२२/ २१२२  २१२


रूप सँवरा  और  खुशबू  है  बनेली  जिस्म की
हो गयी है क्यों हवस ही अब सहेली जिस्म की।१।


ये शलभ यूँ  ही मचलते पास तब तक आयेंगे
जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की।२।


ये चमन  ऐसा  है  जिसमें  साथ  यारो उम्र के
सूखती जाती है चम्पा औ'र चमेली जिस्म की।३।


रूप का मेहमान ज्यों ही जायेगा सब छोड़ के
हो के रह जायेगी  सूनी  ये  हवेली जिस्म की।४।


रूह कहती है करो मत रूप का रसपान पर
छूटती है कब भला यूँ जिद हठेली जिस्म की।५।


शेष दुनिया तो फँसी है ढूँढने में इस का हल
तर गया वो बूझ  बैठा  जो पहेली जिस्म की।६।


मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2019 at 5:35am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार ।

Comment by Samar kabeer on February 4, 2019 at 4:18pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2019 at 7:31pm

आ. भाई पंकज जी,सादर अभिवादन। गजल पर आपकी आत्मीय व मनोहारी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2019 at 3:40pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर एक बेहतरीन गजल से मंच को नवाजने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2019 at 4:37am

आ. सुरेंद्र जी,सादर अभिवादन। गजल पर आपकी आत्मीय व मनोहारी प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।

Comment by नाथ सोनांचली on February 1, 2019 at 7:19am

आद0 लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर अभिवादन। बढिया और एक अलग टाइप की ग़ज़ल कही आपने जनाब, क्या कहने। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 1, 2019 at 6:25am

आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 1, 2019 at 6:23am

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । गजल के अनुमोदन और स्नेह के लिए आभार ।

Comment by Dayaram Methani on January 31, 2019 at 10:41pm

ये शलभ यूँ  ही मचलते पास तब तक आयेंगे
जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की। ------- अति सुंदर एवं सत्य।

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बहुत सुंदर एवं सत्य का बयान करती इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।

Comment by Sushil Sarna on January 31, 2019 at 8:04pm

शेष दुनिया तो फँसी है ढूँढने में इस का हल
तर गया वो बूझ बैठा जो पहेली जिस्म की

वाह आदरणीय लक्ष्मण जी वाह क्या अशआर कहे हैं आपने .... वास्तव में जिस्म की पहली तो कभी हल ही नहीं हुई। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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