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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-89

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 89वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब जिगर मुरादाबादी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे "

221       2121      1221       212

मफऊलु फाइलातु मफाईलु फाइलुन

(बह्र: मुजारे मुसम्मन् अखरब मक्फूफ महजूफ)

रदीफ़ :- रहे 
काफिया :- ईं (नहीं, हसीं, जबीं, हमनशीं, हमीं, तुम्हीं, कहीं, आस्तीं, ज़मीं, आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 नवम्बर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 नवम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 24 नवम्बर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

जनाब लक्षमण धामी साहिब ग़ज़ल को मान देने के लिए आपका मशकूर हूँ,,,
जलवा सा चाँद पे रहा तारे हसीं रहे
तुम जब तलक हुज़ूर मेरे हमनशीं रहे

दौराने गुफ़्तगू न किया ज़िक्र तक मेरा
क्या अब तुम्हारी दास्तां में हम नहीं रहे

कल हुस्न हमको छोड़ गया है नतीजतन
‘ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे’

अरसा गुज़र चुका है उसे फ़ासला किए
हर वक़्त मेरे सामने जो महजबीं रहे

एक शख़्स जहां दूर बहुत जाके बस गया
मैं भी वहीं रहूं मेरा दिल भी वहीं रहे

तुमसे जो दिल लगाया तो अंजाम ये हुआ
हम हम नहीं रहे हैं मगर तुम तुम्हीं रहे

मौलिक एवं अप्रकाशित
शेर दर शेर लाजवाब।
आदरणीय इमरान साहब उम्दा गजल कही आपने दिली मुबारकबाद कुबूल करें

अच्छा कहा है भाई.... वाह !!!

वाःहः उम्दा अशआर निकालें आपने,बधाई
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय इमरान खान जी ।
जनाब इमरान ख़ान साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले का ऊला मिसरा और चुस्त होना चाहिए था ।
दूसरे शैर में ऐब-ए-शुतरगुर्बा है, ऊला मिसरे में 'मेरा'और सानी में 'हम' ।
बाक़ी अशआर में शिल्प कमज़ोर है ।
जनाब इमरान ख़ान साहिब इस रचना पर बधाई आपको बाकी़ जनाब समर साहिब कह ही चुके हैं। गौ़र कीजिएगा,,
आद0 इमरान जी सादर अभिवादन, बढ़िया ग़ज़ल कही,मुबारकबाद कुबूल करें। सादर

बधाई स्वीकार करें 

अच्छी ग़ज़ल हुई है आ० इमरान खान साहब। बहुत बधाई आपको।

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