आदरणीय साथिओ,
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क्या खूब शीर्षक चुना है और उसके साथ न्याय भी हुआ है , बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय ।
१)----"मौन संग्राम"---
नन्हीं सी परी को लेकर घर मे प्रवेश करते ही अगरबत्ती की मधुर महक से वो उल्हासित हो उठी . ओह तो निनाद ने उसके स्वागत में यह सब किया है. उसका मन खिल उठा. अपने कमरे मे प्रवेश करते अचानक उसका ध्यान अमोघ के कमरे की ओर गया, ताज़ा फूलों की माला चित्र पर टँगी थी. धूप भी जल रहा था . ओह ! कैसे वह भूल गयी अजय की पुण्यतिथि. अमोघ ने पिछे मुड़कर उपहास और उपेक्षा से देख ऐसे हँसा जैसे कह रहा हो तुम्हें याद भी है मेरे पिता की पुण्य तिथि? . उसकी कटाक्ष दृष्टि उसे अंदर तक चीरती चली गई . अजय की तस्वीर उसके कमरे से यहाँ... क्या निनाद जी ने...? यदि उन्होने ऐसा किया है तो वह माफ नही कर पाएँगी. वो आज भी अजय से जुड़ीं है .सब घूम गया था चल चित्र सा---
निनाद के अस्पताल के कमरे मे आते ही उसने पूछा था
" अमोघ कैसा है? वो क्यो नहीं आया. जब मैं यहाँ आयी तब वह कोचिंग गया था." उसने अधैर्य होकर पूछा था.
" अम्मा ने उसे सब बता दिया है. तुम फ़िक्र ना करो . वो ठीक है. उससे पूछा था एक बार माँ को देखने चलोगे, पर ना में केवल सर हिलाया और अपनी पढ़ाई में मग्न हो गया." निनाद ने सपाट सा जवाब दिया था.
एक बार फिर उसे अपराध बोध ने घेर लिया . अमोघ का बचपन छिन कर उसने ना सुधरने वाली भूल की थी. असल में यह निर्णय तो उसने उसी के लिए लिया था. माँ के प्यार के साथ पिता का संरक्षण बच्चे के सहज जीवन के लिए जरूरी था. वो अपने पिता का प्यार जान ही कहाँ पाया था. बस वही सदा उसे उसके पिता के बारे में कुछ ना कुछ बताती रहती थी. सोचते सोचते उसकी आँख लगी ही थी कि मद्दम सी आवाज़ सुनाई दी--
" कैसी हो माँ?". आँखें खोल देखा तो आमने अमोघ खड़ा था, दूर झिझका हुआ सा. इधर आ वहाँ दूर क्यो खड़ा है, बैठ मेरे पास. फिर भी वो खड़ा ही रहा था. सपाट दृष्टि, उसमे लेश मात्र भी जिज्ञासा नहीं थी अपने छोटी बहन से मिलने की.बारह-तेरह साल का किशोर एकदम सयाना हो गया था.
एक दिन उसने अमोघ से कहा था "देख तेरी प्यारी सी बहना अब तुझे राखी बाँधेगी.उसे गोद नहीं उठाएगा."
" नहीं मम्मा अभी तो यह बहुत छोटी है." उसने दूर से ही कहा था. परी की तरफ़ देखा तक नहीं था. बस उसका मम्मा कहना दिली सुकून दे गया था.
क्या नारी का जीवन इतना लानत भरा भी हो सकता है. ना नारीत्व का सुख , ना मातृत्व की तुष्टी. जी मे आता है दोनों से मिले निर्वासन के हुक्नामें पर पागलों की तरह चीख उठे.
नही! नही!नहीं! ऐसा नहीं हो सकता मै इतनी कमजोर नहीं हूँ.परी को गोद मे उठाए,अमोघ की उँगली थामे वो चल पडी थी नये क्षितिज की खोज में.
दोनो के पिता अलग हैं तो क्या हुआ माँ तो एक ही है.
मौलिक व अप्रकाशित
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२) "बी प्रोफेशनल"-----
" मे आय कम इन सर." सुनयना ने केबिन मे प्रवेश करते हुए पूछा
"यस! यस! कम -कम अरे! ये कोई पूछने की बात है. तुम तो अब काम पर अच्छी पकड़ बना रही हो. भई मानना पड़ेगा हम तो तुम्हें बस खालिस गृहिणी समझते रहे. --विजय ने हँसते हुए उसे बैठने का इशारा किया
" इसमे वो सब काम है जो आपने मुझे दिया था. पूरा हो गया है. पेन ड्राइव आगे करते हुए वह बोली.
विजय पेन ड्राइव लगा काम देखने लगा और वह विचारों मे खो गई.
बच्चों की जिम्मेदारियों से थोड़ा-थोड़ा मुक्त होते ही अपने पति के कामों मे हाथ बटाना आरंभ कर दिया था और स्वभाव से मेहनतकश होने से जल्द ही काम पर पकड़ बना ली थी. अब तो बहुत सारा काम वह स्वतंत्र रुप से अपनी ज़िम्मेदारी मे लेकर करने लगी थी...
" अरे! वाह बडा जल्दी सब काम निपटा दिया. मानना पड़ेगा. " आनंदित होते हुए उसने कहा
" तो क्या आगे की सारी प्रोसेस व फ़ार्मलिटिज के लिए क्लाइंट को बुला लू. " वो उत्साहित होते हुए बोली
" अरे नही नही अभी दो-चार दिन रुको. इतनी जल्दी जल्दी सब प्रोसेस हुआ तो हमारी इमेज... विजय कहते हुए बाहर निकलने को उठ खड़े हुए .
" मै समझी नही."
व्यवसाय में व्यस्तता ना हो तो भी दिखानी पडती है.
मौलिक एवं अप्रकाशित
आ. तस्दिक जी आदाब. आपको रचनाए पसंद आई धन्यवाद
आपकी दूसरी कथा , व्यवसाय के दाँव पेंच पर लिखी अच्छी कहानी है ऐसा ही होता है सच में ...आपकी पहली कहानी पर थोडा उलझी हूँ आपने लिखा है' दोनों से मिले निर्वासन पर ' ये दोनों कौन हैं ? बेटा अमोघ तो नादान है , अक्सर बच्चे नया भाई / बहन आ जाने पर ऐसे ही रियेक्ट करते हैं ... बधाई आपको दोनों कथाओं पर आदरणीया नयना जी
आ.प्रतिभा दीदी प्रणाम, आपको दूसरी रचना पसंद आई इस हेतु धन्यवाद.// दूसरी कथा मे निर्वासन बेटे अमोघ व दूसरे पति निनाद द्वारा ही है. अमोघ नादान नही किशोर वयीन बच्चा है १३-१४ साल का. वो माँ द्वारा दूसरे विवाह से स्व्यं को उपेक्षित पाता है और माँ से दूरी बना लेता है तभी तो परी के जन्म के बाद अस्पताल नही जाता. रचना के बीच इन संवादो का डालने का उद्देश्य भी यही था //" कैसी हो माँ?". आँखें खोल देखा तो आमने अमोघ खड़ा था, दूर झिझका हुआ सा. इधर आ वहाँ दूर क्यो खड़ा है, बैठ मेरे पास. फिर भी वो खड़ा ही रहा था. सपाट दृष्टि, उसमे लेश मात्र भी जिज्ञासा नहीं थी अपने छोटी बहन से मिलने की.बारह-तेरह साल का किशोर एकदम सयाना हो गया था.// इन पंक्तियो पर गौर किजीए शायद मे आपके सवाल का जवाब दे पाई .सादर
आदरणीय नयना ताई, प्रथम प्रस्तुति थोड़ी उलझ हुई लगी । दूसरी प्रस्तुति का शीर्षक व कथ्य बहुत प्रभावशाली है । सादर शुभकामनाएं स्वीकार करें ।
आ. रवी दादा प्रणाम. आपको प्रथम रचना क्यों उलझी लगी समझ नही पाई. मैने अपनी तरफ से पुरजोर कोशिश की थी कि एक स्त्री द्वारा दूसरा विवाह कर लेने पर उसे किस-किस परिस्थिती से गुजरना पडता है. बावजूद रचना उलझ गई है तो पुनर्विचार कर संकलन मे ठीक करने की कोशिश करती हूँ. दूसरी रचना पसंद करने हेतु आभार आपका
आदरणीया दोनों ही कथाये बेहतरीन है . पहली कथा में पात्रों के नाम की अधिकता उलझाव पैदा करती है . सादर
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