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(१). सुश्री राजेश कुमारी जी
आकाँक्षा

“बिट्टू तुम्हारा बर्थ डे आने वाला है लिस्ट बना लो किस-किस फ्रेंड को बुलाओगे इस बार” रजत ने बेटे से कहा|
“पापा क्यूँ न इस बार हम कहीं ओर जाकर सेलीब्रेट करें” बिट्टू बोला |
"क्यूंकि तुम्हारे दोस्त तुम्हारी मम्मी की सूरत से डरते हैं इस लिए बचना चाहते हो.. हैं न ? अरे शादी से पहले ब्यूटी क्वीन थी तुम्हारी मम्मी तुम  क्या जानो वो तो उन कमीनों के एसिड फेंकने से ऐसा”.....
“ये क्या कह रहे हो बच्चे से कुछ तो सोचकर बोला करो” बीच में ही बात काट कर अलका बोली|
“नहीं मम्मी पापा, मैं किसी से बचना नहीं चाहता मैंने उनसे कह भी तो दिया था की मत आना मेरे  बर्थ डे पर मेरी मम्मी दुनिया में  सबसे सुन्दर है” कहते हुए बिट्टू उछलते हुए बाहर चला गया|
“सुनो अलका मेरे मन में एक आइडिया आया है इस बार बिट्टू को उसकी दादी के पास बर्थ डे मनाने ले चलते हैं फिर कुछ दिन वो दादी के पास रह लेगा इस बीच यहाँ आकर तुम्हारी प्लास्टिक सर्जरी करवा देते हैं पैसे भी लगभग पूरे हो चुके हैं तुम्हारा डॉक्टर बता रहा था कि  बाहर से डाक्टरों की टीम आई हुई है तो ठीक रहेगा बिट्टू को सरप्राइज भी मिल जाएगा अपनी खूबसूरत माँ को देख कर फूला नहीं समाएगा”
“कह तो आप ठीक रहे हैं बिट्टू भी कुछ समझदार हो गया है पर फिर भी मैं एक बार उससे बात करना चाहती हूँ” अलका बोली| “नहीं-नहीं तुम कुछ मत  कहो डॉक्टर  के पास चलते हैं वहीँ उसे बता देंगे” रजत बोला |
बिट्टू को लेकर वो डॉक्टर  के पास पँहुचे| बिट्टू और अलका को बाहर बिठाकर रजत कुछ देर में वापस आया और बिट्टू को अन्दर ले गया बिट्टू हतप्रभ सा सोच रहा था कि ये सब क्या हो रहा है |
डॉक्टर  ने बड़े प्यार से उसे अपने पास बिठाया और कंप्यूटर में एक खूबसूरत चेहरा दिखाते हुए  बोला:
“देखो बेटा कैसी लगती है ये ?"
“अच्छी है पर ये है कौन” ?बिट्टू ने पूछा |
“तुम्हारी माँ” डॉक्टर ने कहा|
“मेरी माँ  तो वो है अंकल ?” 
“हाँ ये भी वही है मतलब हम तुम्हारी माँ का चेहरा कुछ दिन में इतना खूबसूरत बना देंगे हूबहूब ऐसा है न मजे की बात जल्दी ही तुम्हारी आकाँक्षा भी पूरी हो जायेगी तुम अपने बर्थडे पर अपने दोस्तों को सरप्राइज दे सकते हो”
“नही....नही.. ईई ....मुझे मेरी माँ की सूरत नहीं बदलवानी मेरी माँ यही है ऐसी ही रहेगी मेरी कोई ऐसी आकाँक्षा नहीं है मेरी माँ दुनिया की सबसे खूबसूरत माँ है यदि आपने मेरी माँ का चेहरा बदला तो मैं रूठ कर दूर चला जाऊँगा” हिचकियों से रोते हुए बिट्टू बाहर की तरफ भागा|
अलका ने दौड़कर बिट्टू को गले लगा लिया रजत को देखते हुए बोली:
“तुम्हारा बेटा है न !! तुमने भी तो अपने माँ बाप के लाख मना  करने के बावजूद  ये कहकर शादी की थी कि मैं तुम्हारे लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत पत्नी हूँ |  जब मैं दुनिया की सबसे खूबसूरत पत्नि और  माँ हूँ तो केवल ज़माने को दिखाने  के लिए मुझे उस सूरत की आवश्यकता नहीं है जो मुझे मेरे बच्चे से दूर कर दे माफ़ करना डॉ साहब” |.
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(२). योगराज प्रभाकर
धूल सने दर्पण
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पत्नी की पीठ का दर्द दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था I सब घरेलू नुस्खे बेअसर साबित हुए थे, अत: बाबूजी उन्हें किसी विशेषज्ञ को दिखाना चाहते थे I कई दिनों से अपने बेटे से आग्रह कर रहे थे किन्तु बेटा उनकी बात को अनसुना करता आ रहा था I आज तो उसने दफ्तर में काम का बहाना बनाकर माँ को साफ़ इनकार कर दिया I बेटे का यूँ जवाब दे देना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था I पत्नी का रुआंसा सा चेहरा देख बाबू जी ने कहा:
"चल भागवान, मैं ही ले चलता हूँ तुम्हें डॉक्टर के पास I"
दर्द से लगभग कराहती हुई पत्नी को लेकर डॉक्टर के पास चल पड़े I कॉलोनी में निकल कर सड़क पार करते हुए पत्नी ने यकायक कम्पनी बाग़ की तरफ इशारा करते हुए पूछा:
"देखो जी, ये वही पार्क है न जहाँ कभी हम देर रात तक बैठे बतियाया करते थे ?"
"हाँ !" बाबू जी ने ठंडी सी आह भरते हुए उत्तर दिया I
"समय कितनी तेज़ी से बीत जाता है, नईं ?"
"सही कहती हो i" बाबू जी के स्वर में अभी भी उदासी थी I
"चलो न, थोड़ी देर के लिए चलें अन्दर I"
 "अरे मगर डॉक्टर के पास भी तो जाना है, खामखाह देर ही जाएगी I"
"थोड़ी देर बाद चलें जायेंगे,  अभी चलो न पार्क में I" पत्नी ने जिद करते हुए कहा I
"अच्छा अच्छा, चलता हूँ I"  पार्क की ओर मुड़ते हुए वे बोले I "अच्छा अब तुम यहाँ आराम से बैठ जाओ I" पार्क में प्रवेश करते ही बेंच की तरफ इशारा करते हुए बाबूजी ने कहा I
"तुम्हें याद है बरसों पहले हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे यहाँ ?" पत्नी की आखों में एक अजीब सी चमक आ रही थी I
"हाँ याद है ! और फिर हम स्टेशन के पास वाले ठेले से अक्सर शाम को चाट पापड़ी भी खाने जाया करते थे ?"
"हाँ, बिलकुल याद है I"
"पता नहीं क्यों आज बीते हुए वक़्त की यादें फिर से ताज़ा हो उठी हैं I"
"एक बात कहूँ जी ?"
 "हाँ कहो न I"
"आज हम पहले यहाँ चाट पापड़ी खायेंगे, फिर बड़े चौक पर जाकर बर्फ की चुस्की I"
"तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली, हम दोनों जगह ही चलेंगे I"
"उसके बाद माल रोड की ठंडी हवा भी खाने चलेंगे I" पत्नी का पीला चेहरा अब गुलाबी होने लगा था I
"जो हुकम मेरी सरकार ! तो मैं कोई ऑटो रिक्शा देखता हूँ I" बाबू जी के स्वर में अब उत्साह था I
"ऑटो रिक्शा क्यों जी ? हम तो यूँ ही पैदल टहलते टहलते जायेगे I" पत्नी ने बेंच से उठते हुए कहा I
"अरे इतनी दूर पैदल ? मगर तुम्हारा पीठ का दर्द..... ?"
"अब कोई दर्द नहीं है जी मुझे I बस तुम हाथ पकड़ लो मेरा I"
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(३). सुश्री सीमा सिंह जी
अपनी अपनी आकांक्षाएं

“बस मिष्ठी, यही आदत तुम्हारी नहीं पसंद है मुझे!” नाश्ते की ट्रे लेकर कमरे में प्रवेश करती माँ ने बिफरते हुए कहा। पत्नी के क्रोधित स्वर से सहाय बाबू भी उठ कर चले आये।
पूरा कमरा जंग का मैदान बना पड़ा था। बिटिया ने अपने कमरे में सारे कपड़े बिखरा रखे थे। पिता को मुस्कुराता देख बिटिया को भी शह मिल गई.
“क्या माँ? सब बेकार हैं, पुराने हैं! एक जोड़ा ऐसा नहीं है जिसको पहन पापा के साथ जा सकूँ।”
“भई, बिटिया दो एक साल में डॉक्टर बन जायेगी तो कपड़े तो ठीक-ठाक ही होने चाहिए उसके।”
पिता का सहारा पा मिष्ठी और मुखर हो उठी, “आप ही देखिए पापा, कितने बेकार कपड़े जमा कर दिए हैं माँ ने!”
“अभी दो सप्ताह पहले ही चार जोड़े इसको उठाकर दिए हैं मैंने!” आँगन में सफाई करती कामवाली की ओर इशारा कर, श्रीमती सहाय अपने क्रोध को दबाते हुए बोली। “मैं कहती हूँ, जब पहनने नहीं होते हैं तो खरीदती ही क्यूँ हो?”
“वही तो! उसकी पसंद के खरीदा करो,” सहाय बाबू ने पत्नी से कहा।
एकलौती संतान की हर ख्वाहिश मुँह पर आने से पहले ही पूरी करने की चाह रखने वाले सहाय बाबू का बचपन बहुत तंगहाली में बीता था। इसीलिए वो अपनी बेटी की हर इच्छा पूरी कर देने की चाह रखते थे। किन्तु, पत्नी दुनियादार महिला थी। वो नहीं चाहती थी कि एकलौते होंने के कारण बेटी पैसे के महत्व को नकार बेपरवाह हो जाये।
“अबकी बार अच्छे कपड़े दिलवा देंगे, तुम मेरे साथ चलना।” पिता ने फुसफुसा कर पुत्री से कहा, और पत्नी से आँखों ही आँखों में खुशामद करते हुआ कहा, “ये बेकार पड़े कपड़े अगर मिष्ठी नहीं पहनना चाहती तो महरी को ही दे दो।”
उदास आँगन बुहारती लड़की की आँखों में अचानक दीवाली के दिए जल उठे थे।
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(४). सुश्री शशि बंसल जी
अपनी-अपनी आस ( विषय - आकांक्षा )

" सुनो जी ! इस बार नए साल की पार्टी के लिए मुझे हीरों का हार चाहिए ही चाहिए ।पूरी कॉलोनी में एक मैं ही हूँ , जिसके पास एक भी ढंग का हार नहीं ।"
" जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो कोई इनकार कर सकता है भला ।सोच तो मैं भी रहा था , नई गाड़ी लेने की । तीन साल से एक ही गाड़ी चलाते-चलाते बोर हो गया हूँ । "
" तो खरीद लीजिये न ।"
" अरे हाँ ! घर में क्या नोटों का पेड़ लगा है ? फिर, पिछले महीने हमने जो फार्म-हाउस खरीदा था , उसकी किश्त भी तो भरनी है ।" बगीचे की ओर बढ़ते हुए वह निराश भाव से बोले ।
 " हूँ......। हम कब तक ऐसे ही आस को मार - मारकर जिएँगे , कभी सोचा है आपने ? " वह भी पीछे-पीछे चल पड़ी , और क्षुब्ध हो साथ की कुर्सी पर बैठ गई ।तभी उनके कानों से एक आवाज़ टकराई ।
  " आजे देसी घी री रोटी अन्ने मूँग री दाल खाई ने आवी रियू हूँ । दो बार हाथ धोई लीदा , अबार तक खुसबू आयी री है ..  साची , मजो आवी गयो ।नरा दिना बाद देसी घी की आस पूरन हुई .......। " बगल में बन रहे नए बँगले पर मजदूर की आकांक्षा सुन दोनों की महत्त्वाकांक्षी नज़रें मिलते ही झुक गईं ।
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(५). सुश्री जानकी वाही जी
समीकरण (आकांक्षा )

9 महीने माँ की कोख में बिताये स्वर्णिम पल ही मेरे लिए अपने से थे। बस, पल -पल बाहर की आवाज़ें मुझे डरा देती थीं।
" लड़की हुई तो ? "
 दादी ,पापा,माँ, पलक और छवि सभी को तो काका चाहिए। गुड़िया नहीं ?
 इस दुनियाँ में आने से पहले ही मेरा सौदा तय हो गया। कि, लड़की हुई तो ननिहाल में पलेगी। ये मेरे ज़ीने की शर्त थी।
जैसे -जैसे दिन करीब आ रहे थे मेरा दिल बैठा जा रहा था।सबकी अपनी-अपनी चाहतें थीं।मेरा क्या?
मैं भी माँ के आँचल की छाँव में सोना चाहती हूँ।बाबा के हाथों में झूलना और नन्हें -नन्हें कदमों से बहनों के पीछे भागना चाहती हूँ।खुले आसमान को मुठ्ठी में कैद करना चाहती हूँ।
"लेकिन देखो ना ! कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता ?"
आज़ ज्यों - ज्यों विदा की बेला करीब आ रही है। मैनें माँ की ऊँगली कस कर पकड़ ली है।
" अरे ! ये क्या ? नर्स आंटी ने दादी की गोद में ये किसे दे दिया ? सब उसे कितना प्यार कर रहे हैं । कान्हा- कान्हा कहकर पुचकार रहे हैं।"
मेरे अंदर सन्नाटा और बाहर ख़ुशी।
" ओ माँ ! ये कैसा समीकरण ?
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(६). श्री सतविंदर कुमार जी
उम्दा प्रचार पथ
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"अरे यार! इतनी पुस्तकें लिख चुका हूँ।फिर भी इस बार बड़ी मुश्किल से प्रकाशक मिल पाया।और पिछली पुस्तक की तो सराहना भी बहुत हुई।फिर भी......?"
चिंतित लेखक ने मित्र के समक्ष अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा।
"हूँssss सो तो है।"
"बस कुछ ऐसा हो जाए कि ये वाली पुस्तक सारे रिकार्ड तोड़ दे।फिर तो मेरा स्टारडम पक्का।इसके लिए प्रचार पर ख़ास ध्यान देना होगा।"
लेखक महोदय ने आगे बात जोड़ी।
"आप लेखक अच्छे हो।पर इतने भर से काम नहीं चलता भाई?"
मित्र ने चुटकी ली।
"मतलब?मैं कुछ समझा नहीं?"
"अरे यार!स्टारडम और दौलत पाने के लिए विशुद्ध रूप से व्यवसायी(बिज़नेसमैन) बनना पड़ता है।"
"यार!साफ़-साफ समझाओ कहना क्या चाहते हो?"
"बस इस उक्ति पर चलो-मैं धंदे में बनिया और भाड़ में जाए दुनिया।कुछ खाऊ-पीऊ बड़े पत्रकारों को इकट्ठा कर एक बड़ी प्रेस-वार्ता करो।और अपने देश या किसी पन्थ,क्षेत्र या जात विशेष पर घटिया टिप्पणी कर दो।"
 "हूँssssss!"
"हूँ क्या? फिर सोशल मीडिया पर कभी अच्छी और कभी बुरी टिप्पणी करते रहो और बाद में अपनी पुस्तक के विमोचन की तारीख निर्धारित कर दो।"
"फिर?"
"फिर क्या?बाकि काम तथाकथित देशभक्त ,उस पन्थ,जाति या क्षेत्र विशेष के ठेकेदार लोग अपने आप कर देंगे।।"
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(७). सुश्री कांता रॉय जी
मेरे सपने मेरी आकाँक्षायें
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" अगले हफ्ते आॅफिस से लम्बी छुट्टी लेकर बाहर जाने का प्लाॅन बना रही हूँ । इस बार मेरा प्रोजेक्ट वक्त पर पूरा हो गया है " स्मिता के चेहरे पर राहत थी ।
" फिर से , लेकिन अभी तो पिछले वीकेंड तुम लोग मैसूर होकर आये हो ? इस बार कुछ दिनों के लिए घर ही हो आओ ना ।मैं भी घर जा रही हूँ "
" घर ? "
" चौंक क्यों गयी ? अरी बाबा , हाँ ,तुम्हारा अपना घर "
"ओह नो , घर जाकर मूड खराब नहीं करनी है ।"
" अजीब लड़की हो ! .घर पर मूड खराब , वो कैसे ... ? "
" अरे , क्या बताऊँ यार , पापा की नौकरी नहीं ,घर -खर्च ..... ! बडी चिक्ललस है वहाँ । नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह अपने ऊपर नहीं लेना है "
" लेकिन तुम तो यहाँ एम. एन. सी. में इतना बडी पोस्ट पर , लाखों का पैकेज है तुम्हारा , तुम हो ना उनके लिए ..... उनकी तपस्या की वजह ही तुम यहां .......?"
" अब तुम भी मत शुरू हो जाना , उनकी तपस्या····व्हाट ? सभी माँ -बाप इतना करते हैं,कुछ भी ख़ास नहीं किया है ·····और मेरी लाईफ़ का क्या ? वीकेंड में आउटिंग , बाहर लंच ,डिनर और अपने को मेन्टेन रखने के बाद बचता कहाँ है कि·········?
मेरे भी अपने सपने है । उनकी आकाँक्षाओं के बोझ तले अपने सपनों का गला तो नहीं घोंट सकती हूँ ना ! "
स्मिता के अबाधित विचार सुन वह विचलित हो उठी।
"पापा मेरी कल की फ्लाइट है ,सुबह पहुंच रही हूँ। माँ को कहियेगा पीली दाल और चावल बनाकर रखे " फोन रखते ही वह जोर से रो पड़ी ।
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(८). श्री विजय जोशी जी
मेरी अभिलाषा
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"तुम इस बार न्यू ईयर में मसूरी जाना चाहती थी ना! क्या रिजर्वेशन हो गय? तुम आज खोई-खोई सी लग रही हो। क्या बात है?" मधु ने मालती से ऑफिस में पूछा । क्या ख़ाक मसूरी।
धर्मसंकट में फंसी मालती बोली-"नहीं यार उसके पहले ही गांव से मेरे सांस-ससुर जी लंबी बीमारी के साथ मेरी बीमारी बनकर आ धमके। डॉक्टर ने छः माह का इलाज व बेड रेस्ट दिया है।"
तो तुम्हारी वर्षों की मसूरी घूमने की अभिलाषा का क्या होगा?
मुझसे उनकी आकांक्षाऐं तो सूरसा के मुख जैसी है। यात्रा क्या मेरी नौकरी को लील जाये। ये बड़े श्रावण कुमार बनते फिरते है। जैसे तैसे उनको गांव के दलदल से निकल कर लाई। आज उन्हें यहाँ फिर उठा लाये। कहते है "अपने सिवा कौन है,इनका।"
फिर तुम्हारी यात्रा सखी! मैंने भी कह दिया कि यात्रा तो मैं जाऊँगी ही, चाहे जो हो जाये। मेरी भी वर्षों की अभिलाषाएं है।
आज वह माँ बाबूजी का वृद्धाश्रम का फार्म भर आये। और मसूरी का रिजर्वेशन फार्म भी।
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(९). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी
 "अंतिम इच्छा"

कई वर्षों से चलते आ रहे मुकदमे का निर्णय आज लगभग तय ही था| वो कटघरे में खड़ी एक व्यक्ति की तरफ इशारा कर न्यायाधीश से रोते हुए कह रही थी, "सर, इसी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर मेरी लज्जा भंग करने की कोशिश की...... और उसी समय इसका वो दोस्त मेरे हाथों से..... मारा गया| इन लोगों के झूठ का विश्वास मत करिये..."

प्रभावशाली व्यक्ति के उस बेटे के विरुद्ध कोई गवाह और सबूत नहीं मिल पाया था, जबकि उसने एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर दी थी, उसके कई प्रमाण थे| न्यायाधीश ने उसे मृत्युदण्ड दे दिया|

निर्णय सुनते ही उसकी आँखें पानी से भर गयीं, फिर भी खुदको संयत कर के उसने भर्राये गले से कहा, "सर.... अपनी आखिरी इच्छा आज यहीं बताना चाहती हूँ.."

"ठीक है बताएं?" न्यायाधीश ने अपनी सहमती दे दी|

 "मैं न्यायालय को एक दान देना चाहती हूँ..."

 "किस चीज़ का दान?"

 एक कैंची का.... “

 “कैंची का? क्यों?” न्यायाधीश ने हैरानी से पूछा|

 “ताकि न्याय की यह देवी अपने आँखों पर लगी पट्टी काट सके| अब इसे आवाज़ और आँसूंओं के स्पर्श की सच्चाई समझ में नहीं आती और तराज़ू के पलड़े भारी क्यों है वो भी इसे पता नहीं चल रहा|"


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(१०). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी

'गुलाबी तौलिया' 

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"तू इतना रोता क्यों है नहाने में ?"गुलाबी तौलिये में लिपटी हुई ने सफ़ेद तौलिये में लिपटे हुए से कहाI
"अरे ,अभी दो तीन दिन ही तो हुए हैं हमें इस दुनिया में आये Iक्यों तंग करती हैं ये नर्सें I और तू क्या इतना खुश रहती है हरदम ?"तुझे डर नहीं लगता ?"
"नहीं ,मै तो पुलिस हूँ "I
"क्या ?वो क्या होता है ?"
"पता नहीं ,पर मम्मा कहती है ,वो मुझे पुलिस बनाएगी जो किसी से नहीं डरे ,कभी भी I और मुझे लेकर मम्मा खूब दूर दूर घूमेगी ,सारी दुनिया बिना किसी से डरे I जब ये कहती है तो मम्मा की आँखें इतना चमकती हैं कि क्या बताऊँ "I
"तेरी मम्मा तुझसे बातें करती है "?
"हाँ ,दिन भर ,रात भर I"
"मेरी मम्मा तो बस दादी नानी और दूसरे लोगों से घिरी रहती है ,कभी मुझसे बात भी नहीं करती " सफ़ेद तौलिये के अन्दर रूआंसापन था I"और तेरे पापा? वो भी करते हैं तुझसे बात ?"
"मेरे पापा नहीं आते हैं Iमम्मा कहती है पापा को हमारी ज़रुरत नहीं है ,I" पल भर को गुलाबी तौलिये के अन्दर चुप्पी छा गई I"तेरी मम्मा ने तेरा कोई नाम रखा ?" चहक वापस लौट आई थी I
"नहीं , वो भी नहीं रखा "I
",मेरी मम्मा ने तो रख दिया ,हमेशा वो ही नाम लेकर बुलाती है "I
"क्या नाम रखा "?
"आकांक्षा " नर्स की गोद में गुलाबी तौलिये में लिपटी वो आवाज़ अब आगे निकल गई थी I
सफ़ेद तौलिये के अन्दर इतनी देर से रोकी रुलाई फूट पड़ी बुक्क से I
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(११). डॉ विजय शंकर जी 
जन-सेवा की आकांक्षा 

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अपने चौरासीवें जन्मदिन पर नेता जी गर्व से बता रहे थे , " देश सेवा , जनसेवा का व्रत लिया था , पूरा किया। मन असीम शान्ति से भरा रहता है।"
किसी ने धीरे से कहा , " ईश्वर महान है , उसने आपकी सारी इच्छायें पूरी कीं।"
नेता जी का स्वर बदला दृढ़ स्वर में उसी विनम्रता से बोले ," इच्छा तो कभी कोई थी ही नहीं। बस एक आकांक्षा थी कि मैं देश की और जन-जन की सेवा करूँ , कर रहा हूँ। बच्चे भी जन सेवा में लगे , ईश्वर ने यह भी सुन ली।"
फिर विनम्रता में मधुरता घोलते हुए बोले , " बच्चे जनसेवा में लगे हैं। मेरी आकांक्षा और बलवती होती जा रही है कि जीवन की अंतिम सांस तक जनसेवा करता रहूं। "
प्रातःदर्शन सभा विसर्जित हो गयी। नेता जी के महलनुमा आवास से निकलते हुए एक व्यक्ति ने अपने साथी से पूछा ," ये जीवन की अंतिम सांस तक क्या सेवा करेंगे ? दो दो सेवक सहारा देते हैं तो उठते बैठते हैं। सारे बाल बच्चे मंत्री-पदों पर सेट गए। अब और क्या चाहते हैं ? "
" अंतिम समय तक कुर्सी पर बने रहें , बस यही चाहते हैं. कुर्सी पर बैठे बैठे अंतिम सांस लें , बस , यही आकांक्षा रह गई है। "
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(१२). सुश्री नीता कसार जी 
"अरमान "

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घर की परिस्थितियों से वह अनजान नही थी जानती थी कितना कठिन है पाँच बच्चों की परवरिश और पढ़ाना माता पिता के लिये । पर साधारण सी दिखने वाली गुलाबों अपने भीतर दबी प्रतिभा का गला कैसे घोंट सकती थी ।
'एक समय ही खाना खाऊँगी पर मुझे पढने दो ना माँ '।
परिणामत: माँ की ममता ने उसे भारी मन से पढ़ाई के लिये हामी भर दी । पढ़ाई केसाथ साथउसनेनौकरी शुरू की, कुछ पैसे घर आने लगे । दुकान का मालिक उसके कार्य से खुश और सहकर्मी नाख़ुश रहने लगे ।
ईष्यावश उन्होंने उसे झूठे इल्ज़ाम में फँसाकर जेल भिजवा दिया ।
प्रतिभा सिसक कर चीत्कार कर उठी ।ग्लानि और पश्चाताप के पलों को उसने कविता के रूप में चायपत्ती के डिब्बे के टुक्डे पर लिख डाला ।
कविता जेल अधिकारी के हाथ लग गई । उसे लगा लेखन इसे दूर तक ले जायेगा उसने गुलाबों के लिये लेखन सामग्री मुहैया करा दी ।
लिखना शुरू किया तो लिखने लगी बाइज़्ज़त बरी होकर वह बाहर आई।उपन्यास लिख डाला । ख्याति उसके स्वागत को आतुर खड़ी थी ।
सोचकर वह मुस्कुरा उठी आज उसकी राह में नाम काम दाम पलक पाँवड़े बिछाये खड़े थे आँखें भर आई
प्रतिभा खिलखिला उठी जमाना टुकुर टुकुर देख रहा था।
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(१३). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
लघुकथा – आकांक्षा

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“ अरे भाई ! मैं ने जब तुम्हारा पता पूछा तो लोग कह रहे थे कि आप उस गूंगेबहरे के यहाँ जाना चाहते हो जो ३० साल से न जाने क्या कर रहा है ?” यह कहते हुए दोनों हंस दिए. मगर उस ने इशारे में बताना जारी रखा.
यह तेल के प्लास्टिक से बना डीजल टैंक है. यह इंजन कबाड़ी से ख़रीदा. ये एंगल मैं ने स्वयम वेल्ड किए है. सीट झूले की है. आगे यह प्लास्टिक का कांच है. यानि कुल मिला कर सब सामान मैंने ही इजाद किया है.
“ अब इसे चालू करो,” आदेश पाते ही उस ने इंजन चालू कर दिया. साथ खड़े व्यक्ति ने बारीकी से निरिक्षण किया. विंग काम कर रहा है. डेने व्यवस्थित है. पंखे उसे पीछे धकेल रहे है. बिलकुल कम्प्लीट. उस ने दोनों हाथों को ऊँचा कर अंगूठे से इशारा किया.
वह अपने सब से सस्ते टू सीटर हवाईजहाज को आकाश में ले कर उड़ चला. उस की गूंगी मुस्कान चीखचीख कर कह रही थी, “ मेरी आकांक्षा आज पूरी ही गई.”
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(१४). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 

आकांक्षाओं के पंख "

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"क्या बकवास कर रहे हैं आप? मैं उससे शादी क्यों कर लूँ ? पिछले पांच वर्ष से तो आप वायदा करते रहे और अब उससे शादी करने को कह रहें हैं, क्यों ?"

"अरे!क्या तुम जानती नहीं की अब मेरी बेटी का ब्याह होने वाला हैं और अब मैं तुमसे कोई सम्बन्ध नही रख सकता।"

" इसका मतलब आप मुझे खिलौना समझ खेलते रहे? "

" नहीं , यह बात तुम्हारे माता-पिता पहले ही जानते थे की मैं तुम्हे किसी के साथ सेटल कर दूंगा और फिर मैं बराबर तुम पर अपनी दौलत लुटाता रहा हूँ ।"

"अर्थात मुझे तुमने अपनी रखैल बना रखा था! "

" ऐसा ही समझ लो, फिर तुम जैसी लड़की का और क्या हो सकता हैं जो अपने पति तो क्या जन्म दी बेटी को भी पैसे के लिए लात मार आयी थी "

" ओह! ताना मार रहे हो ? चले जाओ यहाँ से और अपनी शक्ल अब कभी मत दिखाना " रजनीश को दुत्कार निम्मी गहरे अवसाद में घिरती अतीत की गलियों में विचरण करने लगी ।चमक-दमक से भरा जीवन जीने की आकांक्षा की ओर बढ़ते कदमों ने उसे आज वाकई में कहीं का नहीं छोड़ा था पूर्व पति निलय के कहे शब्द उसके दिलोदिमाग पर हथोड़े सा वार कर रहे थे-
" आकांक्षाओं के पंखों की कोई सीमा नहीं होती।उनको पाने की चाह में तुम कटी पतंग की तरह कही की नहीं रहोगी।"
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(१५). डॉ टी आर सुकुल जी 
आकाॅंक्षा

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‘‘क्यों ठेकेदार साहब! मिल आये? क्या कहा ‘जी साब‘ ने ?"
‘‘आप तो सब जानते हैं ‘एजी‘ साब! फिर क्यों जले पर नमक छिड़कते हैं? आपसे मदद करने को रिक्वेस्ट किया था पर आपने भी ......"
‘‘लेकिन भाई साब! टेंडर पास कराने के समय तो बड़ा उत्साह दिखा रहे थे? कहते थे सब कुछ हो जायेगा और अब बदल रहे हो, तो ‘जी साब‘ नाराज तो होंगे ही।"
‘‘ उस समय यह कहाॅं मालूम था कि कीमतें इतने जल्दी आसमान छूने लगेंगी, हमारा तो दिवाला ही निकल गया.....।"
‘‘लेकिन जब तब चर्चा में तो यही सुना जाता है कि पृथ्वी पर यदि कोई बुद्धिमान हैं तो वह हैं एमईएस के कान्ट्रेक्टर्स, बोलो गलत कहा क्या? टेंडर के पास कराने के समय जो परसेंटेज निर्धारित हुई थी वह तो उनकी , मेरी और एकाऊंटेन्ट की , देना ही पड़ेगी ... ... ।"
‘‘परंतु सर! मुझे बहुत ‘लाॅस‘ हुआ है इस काम में, आगे कभी समझ लेंगे पर अभी कुछ तो मानवीयता दिखाईये, आफटर आल हमारे वर्षों पुराने संबंध है?"
‘‘यार! क्या तुम्हारी यह आकाॅंक्षा वैसी ही नहीं है जैसे कोई पुत्र अपने पिता की हत्या करने के बाद बकील के माध्यम से जज के सामने गिडगिड़ाये कि उसकी सजा माफ कर दी जाये क्योंकि वह अनाथ हो गया है? "
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(१६). श्री राजेंद्र गौड़ जी 
आकांक्षा

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"बेटा, यह सिध्द पीठ है, जो मांगोगे, निश्चित मिलेगा."

"अरे वाह, फिर तो आज मैं अपनी इतने दिनो से दबी आकांक्षा यही मांगुगा."

"ओये, कपिल क्या माँगा."

"मैरी तो एक छोटी सी आकांक्षा है कि ईश्वर मानव मन में पहले अपराध के बोध की सी ग्लानि, सभी अपराधों में समान ही रहे तो समाज में अपराध पर रोक तो लगे."
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(१७). श्री तसदीक़ अहमद खान जी 
अधूरे सपने ( लघु कथा )

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आज का दिन राजेंद्र बाबू के लिए बहुत ख़ास है क्योंकि उनका बेटा श्याम पांच साल बाद विदेश से पढ़ाई समाप्त करके घर वापस आरहा था / उनके दोस्त मोहन गाँव के जमींदार हैं ,उनकी एक बेटी रुकमणि जो लाड प्यार में ज़्यादा नहीं पढ़ सकी /राजेंद्र बाबू की सिर्फ यही आकांछा है कि बेटे की शादी रुक्मणी से हो जाये / इस से उन्हें दो फायदे , मोहन की जायदाद अपनी हो जाएगी और पढ़ाई में लिया क़र्ज़ भी ख़त्म हो जायेगा। .... उनकी इतनी औक़ात कहाँ जो बीटा विदेश जा पाता / राजेंद्र बाबू सोच ही रहे थे की जीप के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी। .... वो बाहर पत्नि के साथ आये और मोहन ,उनकी पत्नि और बेटी के साथ हवाई अड्डे को रवाना हो गए / रास्ते में राजेंद्र बाबू कहीं खो गए। ........बेटा कहा करता था , शादी सिर्फ सात फेरों का नाम नहीं वह तो विचारों का मिलन है ,जातपात तो इंसान ने बनाये हैं / अचानक ड्राइवर ने ब्रेक लगाया। ... सब लोग हवाई अड्डे के अंदर चले गए / सभी यात्री विमान से उतर कर अपने अपने परिजनों की तरफ जा रहे थे परन्तु राजेंद्र बाबू की निगाहें बेटे को ढूंढ रहीं थीं। ... यकबयक राजेंद्र बाबू के सामने जो मंज़र आया उससे उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं उनकी आकांछाओं का खून हो चूका था /........ श्याम जिस लड़की के साथ उनकी तरफ आरहा था वह उसके कॉलेज की सहपाठी अनुसूचित जाति की राधा थी। ....
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(१८). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
साड्डा-हक -

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जब से वह स्नातक हुआ है, एक अच्छी नौकरी की चाहत में आये-दिन ही वह नुक्कड़ की दुकान में खड़ा होकर घण्टों रोज़गार समाचार-पत्र खंगालता रहता है। वह खूब अच्छी तरह समझता है कि छोटी सी दुकान की कमाई से कितनी मुश्किल से उसके बाऊ-जी घर चला पाते हैं । सिमरन की स्कूल की दो महीनें की फ़ीस भी अब तक नहीं जमा हो पाई है । ऊपर से बेबे-जी की बीमारी ने घर की अर्थव्यवस्था को और चरमरा डाला है | इसीलिए उसनें आस-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया है, लेकिन उनसे मिले पैसों से सिर्फ बेबे-जी की दवा ही आ पाती है।

उस दिन जब उसके सामने ही मकान-मालिक ने उसके बाऊ-जी को किराया न चुका पाने के कारण सरेआम ज़लील किया, तब से उसनें अखबार बांटने का भी काम शुरू कर दिया। 'बस्स..! एक वारी चंगी सी नौकरी मिल जावे... ' यही सोचते हुए वह जल्दी-जल्दी रोजगार समाचार-पत्र का एक-एक पन्ना टटोल रहा था । तभी सड़क पर हो रहे शोरगुल से उसका ध्यान भंग हो गया ।

उसके सारे हमउम्र दोस्त इकठ्ठा होकर नारे लगा रहे हैं। "धांधा-गर्दी नहीं चलेगी..! नहीं चलेगी.. ! साड्डा हक्क एत्थे रख..!" उत्सुकतावश वह भी दौड़ कर वहाँ पहुँच गया।

"की गल्ल है वीर.. ?" उसने मन्जीते के कन्धे पर हाथ रखते हुए पूछा।

"असीं लोग बेरोजगारी-भत्ते दी माँग कर रहे हाँ , चल तूँ वी आ जा, तूँ वी ताँ साड्डी बिरादरी (बेरोजगार) दा हैं ।" कहते हुए मन्जीते ने उसे भी भीड़ में घसीट लिया।

 

चारो तरफ हो रहे हंगामे से , घबराहट के मारे वह असहज हो उठा । उसके बिलकुल सामनें ही परमवीर, टीटू , सुहेल और उसके कितने ही दोस्त जोर-जोर से नारे लगा रहे हैं।

 

"ओये तैनू की न्यौता देना पैगा.. तुसी क्यों नहीं लगान्दा नारा ?" उसे खामोश खड़ा देख कर टीटू ने उसे झकझोर दिया।

"पर बाऊ जी तो कैह्न्दे है कि ..." वह पूरा कह भी न पाया था कि टीटू ने गुस्से से उसे परे धकेल दिया। अचानक लगे धक्के से वह भरभरा कर जमीन पर मुँह के बल जा गिरा।

काफ़ी देर अपनें घुटनों पर सिर रखे हुए वह न जाने क्या बडबडाता रहा ? फ़िर झटके से उठ खड़ा हुआ और हाथ उठा कर जोर-जोर से नारे लगाने लगा।

"भीख नहीं ,सानूं रोज़गार चाहीदा है ..!
"साड्डा हक्क एत्थे रक्ख...!"
"साड्डा हक्क एत्थे रक्ख...!”

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(१९). श्री प्रदीप कुमार पाण्डेय जी 
आकांक्षा

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शर्मा जी को अंदर आता देख अरुण ने पेपर छिपा लिया I अभी तीन चार महीने पहले ही शर्मा जी ने मकान खरीदा है अरुण के घर के पास Iएक वर्ष पहले ही इनके बेटे और बहु की दुर्घटना में मौत हो गई थी Iगाँव का अपना मकान बेच कर ये यहाँ पोते पुनीत के साथ आ बसे हैं Iरोज़ सुबह जॉगिंग करते हुए अरुण की शर्मा जी से मुलाक़ात हो जाती है जो बस में अपने पोते को छोड़ने आते हैं क्रिकेट की कोचिंग के लिएI 
" अरुण बेटे आज का पेपर आया ? आज राज्य क्रिकेट टीम में चुने हुए लड़कों की शायद लिस्ट आई हो I"
"अभी तो नहीं चाचा जी " उनसे बिना आँख मिलाये उसने कहा "I
"बस एक ही इच्छा अब बची है कि पुनीत का चयन राज्य टीम में हो जाय I तुम्हे पता ,है बेटा, पुनीत का पापा भी बहुत अच्छा क्रिकेट खेलता था Iपर तब मै हमेशा उसे रोकता था कि ये सब बेकार की चीज़ें हैं I हो जायेगा ना बेटा उसका चयन ?" उनकी आवाज़ में चिंता थी I
"क्यों नहीं होगा , आप ही तो बताते हैं कि पुनीत के कोच उससे बहुत खुश हैं , "I
"हाँ , वो तो कहते हैं कि अगर इस हीरे को सही तराशा गया तो देश को दूसरा कपिल देव मिल जायेगा "Iअब उनकी आवाज़ में ढेर सारा उत्साह था I
"आप चलिए चाचा जी ,पेपर आते ही मै खुद आपके पास आ जाऊंगा "एक एक शब्द मुश्किल से निकल रहा था उसके मुहं से I
चाचा जी के जाने के बाद उसने मुड़ा तुड़ा पेपर फिर खोल लिया जिसमे राज्य की पंद्रह साल तक के लड़कों की क्रिकेट टीम की सूची थी I पुनीत का दूर दूर तक कहीं नाम नहीं था I उसे ये भी समझ आ रहा था कि इन नामों में ज्यादातर किसी चयन कर्ता,पुराने खिलाडी या किसी और रसूखदार के रिश्तेदार होंगे I चाचा जी की आँखों की चमक और आवाज़ का उत्साह याद करके वो सर पकड़ कर कुर्सी पर बैठ गया
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(२०). श्री मोहन बेगोवाल जी 
आकांक्षा(लघुकथा)
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कई वर्षों से इसी शहर में नौकरी करता हुआ,आज मैं दफ्तर सुपरडेंट की पोस्ट पर प्रमोट  हुआ हूँ ।

गाँव से  शहर आने से पहले गाँव के लोगों ने कहा इसे अपने साथ ही काम में लगा लो, प्यारे, मगर बाप ने देखा था कि साथ वाले लोग कालिज में अपने बच्चों को पढाते है, उस ने मुझे शहर पढ़ने के लिए भेजा और पढ़ने के बाद सर्विस करते हुए, आज इसी शहर की एक कालोनी में अपना बढ़िया घर बना लिया, बच्चों को  भी कालिज में पढ़ा रहा हूँ ।

जब मैं उस दिन हाजरी रिपोर्ट दी तो सेवादार ने कहा, हमें पता चल गया है कि तुम हमारे ही हो, ऊम्र  भर जैसा मेरा  नौकरी करने का तरीका है,और बाकी भी कच्चा चिट्टा मेरे आने से पहले इस दफ्तर में  पहुँच गया था ।

 आज दफ्तर में सेवादारों की भर्ती के लिए इंटरवियुं चल रही थी, तब बातों बातों में साब ने कहा  “ये जो लोग नौकरी के लिए यहाँ आते है, इन्हें अपने जद्दी पुस्ती काम में ट्रेनिंग ले कर वही काम करना चाहिए, इस से उनके काम में निपुणता हासल होगी ” ।   

तो मेरा ध्यान मेरे गाँव में काम करते भाईयों की तरफ गया, वे लोग अपने कामों में कितनी मेहनत करते,और निपुण भी हैं अपने कामों में, मगर गाँव में काम करते उन्हें पूरी दिहाड़ी भी कम मिलती है, और साथ जुडी हीनता का भी शिकार होना पड़ता है, लुबाना कौम  के सुरिन्दर ने चमड़े के काम में डिप्लोमा क्या किया , बेचारे को क्या क्या नहीं सुनना पड़ा और आखर उसे गाँव  छोड़ कर जाना पड़ा ।

कुछ पल के लिए मुझे लगा जैसे साब  ने ये कह कर मुझे भी उसी हीनता की समंदर में फिर धकेल दिया हो।

और साब के कहे हुए शब्दों ने, मेरे अब तक कि सब किए करे पर पानी फेर दिया हो ।

हर बार जब भी कोई इस तरह की बात होती, तो पता नहीं मुझे ये क्यूँ लगता कि जिंदगी में बहुत कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मैं आधा अधुरा ही जी  रहा हूँ ।  

बात  काम की नहीं उस कि साथ जोड़ी जाती जाति हीनता के सांप की है, जो न जाने कब किसी को दंस जाए ।

और तब पैसा व पढाई की रौशनी भी इसे दंसने  से  रोक न पाए, अभी उनकी इस कही बात से मुझे लगा, जैसे कि उनके सामने मेरे खड़े होने के हौंसले को इन शब्दों ने पस्त कर दिया हो कि इन्हें अपना जद्दी पुस्ती काम करना चाहिए।

मगर पता नहीं फिर मैनें खुद में कहा से  होंसले को समेटते हुए कहा, “बचपन मन में जो  तथाकथित जाति हीनता का डर मन मे पनप जाता है, साब जी, क्या मैं उन से निजात पा सका हूँ, मैं तो कहता हूँ कि हमें यह ख्याल रखना चाहिए, कि बचपन के  कोरे मन में प्रिंट न हो जाए,वरना यह जिंदगी भर साथ ही नहीं छोड़ता ।

“बस,जाति -पाति के दुश्मन को पछाड़ कर,हम सभी लोग जब एक दूसरे के हाथ से हाथ मिला कर काम करें, काम केवल काम हो, जाति नहीं”, मगर मुझे  पता ही न चला कि कैसे वहाँ दफ्तर में खड़े खड़े मैनें ऊँची आवाज़ से कहा ।


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(२१). सुश्री शांति पुरोहित जी

"आकांक्षा"

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"अप्रत्याशित" घटना ही थी यह नेहा के जीवन की जिसे बर्दाश्त करना बड़ा मुश्किल काम था। नेहा का एक सपना था कि वो अपना शैक्षिक ज्ञान गाँवो में जाकर गाँव वालो के बीच बांटेगी। उनको स्वास्थ्य के प्रति सचेत करेगी । एक डॉ का फर्ज अदा करेगी ,जो उसने शादी से पहले ही देखा था।
पिता के सामने अपने जब अपने मन की बात रखी तो वो गदगद हो गए, पर माँ , स्वाभाविक ही था माँ तो बच्चे का ही सुख चाहेगी, पर बहुत समझाने पर माँ ने भी अपनी स्वीकारोक्ति दे ही दी।
दुगुने जोश से भर कर नेहा पढ़ाई में जुट गयी।
उम्मीद से ज्यादा अच्छी रैंक से उसने M.B.B.S पास किया।
अरे! क्या सोच रही हो नेहा? , नीलिमा ने मेडिकल कॉलेज के हाल में बैठी नेहा को पूछा ।
कुछ नही नीलू, लगता है मेरी आकांक्षा धरी रह जायेगी ।
ऐसा क्यों ?
अरे ! मम्मी-पापा ने आज ही मेरी सगाई तय कर दी और वो लड़का अमेरिका में कार्यरत है।
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(२२). डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

आकांक्षा

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‘आकांक्षा बड़ी हो गयी है ------‘
लिप्सा चिहुंक उठी I वह भयभीत होकर बिस्तर पर बैठ गयी – ‘कौन ----? कौन है यहाँ ?’
‘पहचाना नहीं ? मेरी बेटी को बारह साल से पाल रही हो I ’
लिप्सा को कोई दिखाई नहीं दिया I पर उसका अपराध-बोध सजग हो उठा – ‘तुम---? तुम मुझे डरा नहीं सकती I आज से बारह वर्ष पूर्व तुम मर चुकी थी I’
‘हाँ, तुमने मारा था मुझे I अपने बांझपन को झुठलाने और अपनी आकांक्षा पूरी करने के लिए I ‘
‘य्यानी---तुम सचमुच ---?’-लिप्सा भय से काँप उठी I
‘हाँ मैं सचमुच, मुझे आकांक्षा के बड़े होने का इन्तेजार था और वह बड़ी हो गयी I अब उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत नहीं I‘
‘तो अब तुम क्या चाह्ती हो ?’- लिप्सा ने थूक निगलते हुये पूंछा I 
‘सिंपल, अब मैं अपनी आकांक्षा पूरी करना चाहती हूँ I’ उसने अपनी शब्द पर जोर देते हुए कहा I
‘तुम्हारी आकांक्षा ---?’
‘हाँ’
‘और वह है क्या ?; -लिप्सा पसीने से तर थी I
‘बदला –--------! जान के बदले जान----- तुम्हारी जान ‘
‘न—न --नहीं ---------‘ – लिप्सा की आवाज डूबती चली गयी I उसका प्रतिरोध उसके गले में घुटकर रह गया I
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(२३). सुश्री कल्पना भट्ट जी 
बड़ा घर।

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"बेटे तुम्हारे माता-पिता की दो दिनों पूर्व घर के अंदर शॉट सर्किट से मृत्यु हो गयी है।"
"क्या? ये क्या कह रहे हैं अंकल?"
"हाँ बेटे, दोनों सवेरे-शाम घर के बाग में चाय की चुस्कियां लेते थे और तुम दोनों बेटों पर फक्र कर कहते थे कि तुम दोनों ने उनके वातानुकूलित बड़े घर का सपना पूरा किया है। तुम्हारी भेजी हुई हर वस्तु को हमें दिखाते थे।
"जी...लेकिन"
"दो दिनों से दिखाई नहीं दिए तो आज मेरी पत्नी उनके घर गयी तो बाहर तक बदबू आ रही थी, फिर हमने पुलिस को खबर की तो दोनों की बॉडी..... जली हुई मिली।"
"उफ्फ...." आगे से आवाज़ भर्रा गयी।
"तुम दोनों जल्दी आ जाओ।"
"अंकल, हम इतनी जल्दी नहीं आ पायेंगे, मैं आपको रुपये भेज दूंगा, आप प्लीज किसी को बुला कर......उनको विद्युत् शवदाह गृह में....." उसकी आवाज़ और भर्राने लगी
"लेकिन तुम लोग आते तो...."
"अंकल, माँ-पापा की आकांक्षाओं को विदेशी डॉलर के कर्जे ने दबोच रखा है। वो अपने पंमजे नहीं हटाएगी।" कहते हुए वो रोने लगा।
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(२४). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी 
"उधार की साँसे"

" देखिये जच्चा की हालत बहुत खराब है जल्दी से चार बोतल खून का इंतजाम किजीये ! " नर्स ने तेजी से आते हुए कहा.
" मगर सिस्टर बच्चा तो ठीक है ना ? उसे तो कोई खतरा नही ? "
" अरे , पहले मां को तो संभाले बच्चा तो ठीक ही रहेगा "
" नही ,नही , सिस्टर मन्नतो के बाद औलाद आ रही है , वो भी लडका ! हमारे खानदान का चिराग !आप तो बच्चे को को बचा ले "
" अरे, कैसे रिश्तेदार है आप ? बहू से ज्यादा बच्चे की चिन्ता है ! खानदान की चिन्ता है······· उफ्फ !"
" अरे····· ,कौन सी बहू ····? वो ? वो तो उधार की कोख है , पर····बच्चा हमारा खून है हमारा , वो तो बचना ही चाहिये ,समझे गये ना ? ······· हां ssss ..!"
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(२५). श्री तेजवीर सिंह जी
आकांक्षा

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सिने तारिका मीनाक्षी के महलनुमा बंगले में लगभग दो दर्ज़न काम करने वाले थे!इनमें ही एक विधवा शकीला भी थी!जिसका इकलौता सात आठ साल का बेटा सुल्तान सिंह था!शकीला रसोई का काम देखती थी!
कभी कभी स्कूल की छुट्टी के दिन सुल्तान भी उसके साथ आ जाता था!मीनाक्षी ने सुल्तान सिंह के नाम पर सवाल किया तो सुल्तान ने बताया कि उसकी मॉ मुसलमान है और पापा हिन्दू राजपूत थे,उन्हें कट्टर पंथियों ने इस विवाह के कारण मार दिया था!
मीनाक्षी ने एक दो बार सुल्तान को कुछ रुपये देने चाहे मगर सुल्तान ने यह कह कर मना कर दिया,"मेरे पापा ने मुझे सिखाया था कि पैसा सिर्फ़ मेहनत की कमाई का ही लेना चाहिये अन्यथा वह भीख कहलाता है!मीनाक्षी अब सुल्तान से छोटे मोटे काम करा लेती और आर्थिक मदद कर देती!
मीनाक्षी दीवाली,ईद,नया साल आदि त्यौहारों पर अपने सभी कामगारों को सपरिवार दावत देती थी!सभी को तोहफ़े भी देती थी!इस बार भी सभी को दीवाली पर दावत का निमंत्रण था!मीनाक्षी ने सोचा कि सुल्तान सिंह के पास दावत में पहनने के लिये अच्छे वस्त्र नहीं होंगे अतः उन्होंने सुल्तान के हम उम्र अपने पुत्र के कुछ पुराने मगर बेहद कीमती वस्त्र शकीला को दे दिये!
दीवाली की दावत वाले दिन मीनाक्षी ने देखा कि सभी अन्य बच्चे उसके दिये चमकीले और भडकीले कीमती वस्त्र पहने थे मगर सुल्तान सिंह एक मामूली सी पोशाक पहने था!मीनाक्षी को बुरा लगा!उसने सुल्तान को पूछ लिया,
"क्यों सुल्तान, क्या तुम्हारी यह पोशाक मेरे दिये वस्त्रों से अधिक कीमती और सुंदर है"!
"नहीं मैडम कदापि नहीं,मेरी यह पोशाक आपके दिये वस्त्रों का मुक़ाबला किसी भी द्रष्टिकोण से नहीं कर सकती"!
"फ़िर क्या वज़ह थी जो तुमने मेरी दी पोशाक नहीं पहनी"!
“मैडम ,मेरे पापा की सदैव एक ही आकांक्षा थी कि उनका परिवार ईद और दीवाली पर हमेशा नये वस्त्र पहने और वह भी मेहनत की कमाई से"!
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(२६). सुश्री नयना(आरती)कानिटकर जी
"छल"

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निधि जब आय.आय.टी से बी.टेक. की डिग्री गोल्ड मेडल के साथ प्राप्त कर बाहर निकली तो एक मल्टी नेशनल कंपनी का प्रस्ताव भी हाथ मे था। बडी आनंदित थी की उसने माँ की आकांक्षा को आज पूरा कर दिया।अब उसकी बारी थी अपने सपने पूरा करने की ।हैदराबाद मे नौकरी पर उपस्थित होते ही उसने तय कर लिया था की एक ना एक दिन वह अपनी मेहनत के बल पर इसी कंपनी मे सबसे बडे ओहदे पर पहूँचेगी।
रात-दिन एक कर उसने बडी मेहनत से अपने प्रोजेक्ट को समयसीमा से पहले ही पूरा कर लिया था और मोहित ने भी उसे पूरा साथ दिया था काम मे। इन बीते वक्त मे वह अपने परिवार से दूर होती चली गई.सोचा चलो वक्त है क्यों ना माँ-पापा से एक बार मिल लिया जाए और वो बिखरे रिश्ते समेटने अपने घर आ गयी थी।
लेकिन तभी उसके पिछे उसके साथी मोहित ने उसके साथ छल किया और प्रोजेक्ट को अपने नाम से प्रस्तुत कर दिया। वापस आते ही उसे बास ने अपने केबीन मे बुलाकर काम छोड छुट्टी पर जाने के लिये फटकार लगाई थी।
"लेकिन सर!! ये काम तो मैं जाने से पहले ही पूरा कर गई थी।उसने सारे काम की क्रम वार फ़ेहरिस्त अपने बास के सामने रख दी।
" ओह तो मोहित ने जो काम अपने नाम से मेरे पास जमा किया वो----?
"सर!!! काम मे वो मेरा भागिदार था मगर मैने जीवन मे अपना भागिदार बनने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था शायद इसी वजह से उसने मेरे साथ छल किया है. --निधि की आँखें भर आयी।
"अभी भी वक्त नही गुजरा तुम चाहो तो हम दोनो एक होकर-----तुम्हारी महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकते है।"
गुस्से ने निधि थर-थर काँपने लगी बोली-- मैं यथार्थ मे जीना जानती हू सर!! अंहकार ने आप को अंधा कर दिया है।
माँ हमेशा कहती रही बेटी अतिमहत्वाकांक्षा मदांध व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती है--कितना सच कहती थी.सारा सामान उठा निधि केबीन से बाहर निकल आई।
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(२७). सुश्री अनीता जैन जी 

कर्तव्य वेदी

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ससुराल में आते ही आर्थिक संकट देख उस दुल्हन ने अपने सारे गहने उतारे और तत्क्षण उसे ले बाहर बैठक की ओर चल पड़ी।
" क्या तुम मुझे छोड़ दोगी ? मैं तो तुम्हें प्रिय हूँ ना ? ऐसे कैसे कर सकती हो तुम ?"-----आवाज से वह चौक उठी। मुड़ने को हुई कि फिर से वही आवाज ·······!

"कौन हो तुम ? और कहाँ हो ?दिखाई क्यूँ नही दे रहे ? सामने आओ.."

सुधा थोडा घबरा गई थी | नया घर,नया माहौल ,नये रिश्ते ..बहुत ध्यान रख रही थी वो कि कुछ गलती न हो जाए |

तभी फिर वही आवाज़ ..

" क्या तुम्हारा दिल नही टूट गया ऐसा करते हुए ..कितने अरमानों से पसंद किया था तुमने और एक झटके में सब छोड दोगी | तुम्हारा मन देखा था हमने जब हमें छू -छू कर अपने तन पर सजाने की आकांक्षा सीधे आंखों में चमक रही थी |" वह चकित थी। पोटली से बाहर झाँकते ज़ेवर उसकी राह रोके उसे अपने कर्म पथ से भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे। |
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(२८). श्री प्रदीप नील जी
" आकांक्षा और महत्वाकांक्षा

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राम लाल बहुत बार मजाक करता है ” साहब, आप कहें तो गाड़ी के ब्रेक हटवा ही दें। “
साहब अच्छे मूड में होते हैं तो गाड़ी की खिड़की से पान की पीक थूक कर एक भरपूर ठहाका लगाते हैं और एक आंख दबा कर कहते हैं ” हट स्साला। “
दर असल राम लाल को ब्रेक पर पांव रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। दबंग अफसर का ड्राइवर होने के यही तो मज़े हैं कि अधिकार न होने के बावज़ूद गाड़ी पर लाल बत्ती लगी रहती है और हूटर लगातार हांऊ-हांऊ करता रहता है। नतीज़ा, दूर से ही सड़क खाली होने लगती है। एकाध बेवकूफ आगे अड़ा भी रहे तो राम लाल को बस इतना करना होता है कि ओवरटेक करके गाड़ी उसके आगे अड़ा दे। नीचे उतर कर उसको झापड़ जड़ने का काम साहब का।
आज भी वही हुआ। राम लाल ने साईकिल वाले के आगे अड़ा कर गाड़ी को जोर से ब्रेक मार दिए थे। बाप-बेटा गिरते-गिरते बचे, बेचारे। लेकिन जब उन्होने लाल-पीले हुए साहब को अपनी तरफ आते देखा तो क्रोध भूल कर बुरी तरह सहम गए, दोनो।
साहब के कुछ बोलने से पहले ही गरीब आदमी सफाई देने के लिए कैरियर पर कंबल ओढे बेटे की तरफ इशारा करके गिड़गिड़ाने लगा “ साहब, गलती से बीच सड़क आ गया क्योंकि मेरा ध्यान इस बीमार बेटे में था। “
अफसर दहाड़ा “ जबकि मेरा ध्यान पूरे देश की जनता पर था, समझे ?“
गरीब ने हाथ जोड़े “ साहब, अपने बेटे को बचाने के बारे में सोच रहा था...“
अफसर ने थप्पड़ जड़ने को आदतन हाथ उठाया और दहाड़ा था “ और मैं क्या देश को खाने कीे... “
कहते-कहते वाक्य अधूरा रह गया और अफसर का हाथ अचानक ही ढीला पड़ गया। फिर वह थके कदमों से चल कर गाड़ी में जा बैठा। राम लाल ने भी बिन कुछ बोले गाड़ी आगे बढा दी।
ड्राइवर है तो क्या हुआ ? इतना तो वह भी समझता है कि इस घटना के बाद साहब का चेहरा लटका हुआ क्यों है।
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(२९). श्री समर कबीर जी
"उम्मीदें"

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"तक़रीबन दस वर्ष पहले मेरा ट्रांस्फ़र किसी दूसरे शह्र में हो गया था,दस वर्ष बाद अपने वतन में आकर मैं बहुत ख़ुश था,आज मेरी उम्मीद पूरी हो गई थी,ड्यूटी ज्वाइन करने के बाद रविवार के दिन मैं अपने एक पुराने मित्र अजय के घर जा पहुँचा,वो मुझे देखकर भौंचक्का रह गया ,मैंने अपने किसी भी मित्र को अपनी वतन वापसी की सूचना नहीं दी थी ,वो मेरे गले से लिपट गया,पुरानी यादें ताज़ा की गईं,बातों का सिलसिला जो शुरू हुवा तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था,दौरान-ए-गुफ़्तुगू मैंने उससे पूछा कि ,यार ये बता कि तेरे कितने बच्चे हैं ,
और तू क्या करता है ?
वह बोला ,
मैं आजकल ऑटो रिक्शा चलाता हूँ और मेरी दो बेटियाँ हैं,बड़ी की उम्र 9 बर्ष है और छोटी 8 वर्ष की है ,बड़ी बेटी है तो बुद्धिमान लेकिन सहमी सहमी सी रहती है,छोटी बहुत स्मार्ट है और पढ़ने में तेज़ भी ।
मैंने पुछा ,
दोनों क्या एक ही स्कूल में पढ़ने जाती हैं ?
वह बोला,
बड़ी को सरकारी स्कूल में भर्ती कराया है ,और छोटी को कॉन्वेंट में शिक्षा दिला रहा हूँ ,
मैंने पूछा,ऐसा क्यूँ कर रहे हो ? तुम्हें तो दोनों के साथ समान व्यव्हार करना चाहिए,मेरी इस बात का उसने जो जवाब दिया,मैं उसे सुनकर स्तब्ध रह गया,
वह बोला,
छोटी बेटी से मैंने बहुत सी "उम्मीदें" लगा रखी हैं,
उस की बात सुनकर मेरा मन दुखी हो गया और मैं उसके पास से उठकर अपने घर आ गया" ।
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(३०). श्री पवन जैन जी
बरसगांठ

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खूंटी पर थैला टांग कर,हाथ मुँह धोकर ,खाली टिफ़िन मंजने
रख कर ब्यारी (रात का भोजन )करने बैठ गये ।
"आज तरकारी तो बड़ी स्वादी बनी है ।"
"हां बन गई ।"
"अरे वा खीर भी ,का बात है ।"
"कुछ नहीं आज वो ,का कहत हैं हमारी शादी की बरसगांठ है ना तो, हम सोचे अच्छे से मिर्च मसाले की तरकारी ही बना ले,केक बेक तो हमारे सपनन (स्वप्नों ) में है ।"
"खुटिया से वो थैला तो उतार ।"
थैला से नई साड़ी निकाल कर देते हुए ,"हम भी तुहार लाने
कछू लाय हैं ,देख तो ।"
"अरे वा ,बहुतई अच्छी है,एक दम नई फैशन की ।अब हम बुढ़ापे में कहाँ पहनेगे ऐसी ?"
"अबे का तुम्हारो बुढ़ापो आ गऔ ?"
"हऔ और नई तो का । होरी पे कमला आ रई ,उखों दे देंगे ।"
"ओवर टेम कर कर के साड़ी लई ,और तें कह रई कमला
खो दे देगे ।"
"ओवर टेम पे तो बच्चों ही को हक है ।"
"हमें का ,और हमारी का इच्छा ? हमारे तो सिर पे छप्पर बनी रय और दो टेम की रोटी मिलत रय ,और का करने।"
हमने तो सुख दुख में प्रेम से रहबे की कसम खाई है बा निभ रई
भगवान भरोसे ।
दोनों गलबहियाँ दे रजाई ओढ़ के सो गए, निश्चिन्त ।
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(३१). श्री मनन कुमार सिंह जी
आकांक्षा
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 रात्रि के नौ से ऊपर का समय था।भले राम जी ढाबे से खाना पैक कराकर निकले।अचानक ही बगल के पार्लर से फुदकती-सी एक युवा मंडली निकली।बेशउर-सी चलती जीन्स वाली लड़की भलेराम के लाख बचाने के बावजूद उनके दायें कंधे से टकरा गयी।शायद उसके दायें कंधे में कुछ ज्यादा चोट आयी थी,वह पीछे जाती हुई चिल्लाई,'मीन,यू मीन'।लड़के की आवाज भलेराम के कानों में पड़ी,'क्या हुआ?' वह लड़की कुछ भुनभुना रही थी,बाकी दोनों लड़कियाँ मौन थीं।आगे की बातें भलेराम नहीं सुन सके,वे आगे बढ़ चुके थे।कुछ दूर जाने के बाद वे पीछे मुड़े।वह झुण्ड अब किसी दूसरी दूकान में दाखिल हो रहा था,ढाबे वाला दंपत्ति भलेराम की तरफ देख रहा था।उन्हें लगा जैसे वे लोग गत को आगत की नजर से देख रहे थे,स्थिति का विश्लेषण कर रहे थे।भलेराम जी का मन डगमगाया।कहाँ सोचते थे कि नयी रोशनी फैलानेवाली है,पढ़-लिखकर आज की लड़कियाँ एक नये सामाजिक बदलाव का पर्याय बनेंगी,पर यहाँ तो जैसे महज अंग्रेजी जादियाँ पैदा हो हो रहीहैं।वे तो कहे गये शब्द के मतलब पर भी शायद गौर न करती हों या उनके मतलब कदाचित उनके लिए बेमतलब वाली बातें हों।भलेराम की कामना-कली मुरझाने लगी।
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(३२). श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
लोक-प्रियता
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सेवा-निवृत श्री शिवकुमर एक “साहित्यिक-सरोज” मंच से जुड़कर अपने पत्रकार मित्र के माध्यम से अध्यक्ष जी और उनके वरिष्ट साथियों की रचनाए पत्र में यदा कदा प्रकाशित कराकर चहेते बन गए,तथा अपना प्रथक मंच बना सभी साथियों को अपने मंच से जोड़ने में सफल हो | वहां शाश्त्रीय छंदों के विधान की भाषा को अपनी शैली में लिखने के अतिरिक्त नए नए नामों से कुछ “लोक-छंद” लोकप्रिय करने के लिए श्रेष्ठ रचनाकार का चयन कर सम्मान-पत्र देना शुरू किया | एक साथी कैलाश नाथ ने फिर एक प्रथक मंच बनाकर शिवकुमार जी की एक “विधा” का शिल्प-विधान अपने मंच पर प्रकाशित किया तो शिव कुमार आग बबूला हो गए और अपने विश्वस्त शिष्य से इसे चोरी करना बता विरोध कराया | इस पर कैस्लाश नाथ ने अपने मंच से उस विधा को हटा दिया | इसे अपना अपमान बताकर यह कहते हुए तीव्र विरोध जताने लगे कि इसे हटाने से तो गलत सन्देश जा रहा है | उस विधा के नीचे “रचयिता गुरु शिवकुमार” लिखना चाहिए था | “साहित्य-सरोज” मंच के पुरोधा तक विवाद पहुंचा तो वस्तुस्थिति जानकार शास्त्रीय छंदों से खिलवाड़ को पाप कृत्य समझते हुए शिवकुमार की “लोकप्रिय गुरु” कहलाने की आकांक्षा भांपते हुए उन्हें सलाह दी कि आपको तो राजनीति में ------
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(३३). श्री विनय कुमार सिंह जी
पुराना दर्द
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आज फिर से पुराना दर्द उभर आया था , किसी तरह से प्रयास करके पास के मेज पर रखी दवा खायी और बिस्तर पर लेट गया | किनारे वाली अलमारी में रखा फोटो धूल खाकर काफी जर्द हो गया था लेकिन फिर भी उसे देखकर एक मुस्कान खिंच आती थी उसके चेहरे पर | ये लगभग बीस साल पहले की फोटो थी जब बेटा विदेश जा रहा था | उसी के पीछे उसकी और पत्नी की भी तस्वीर भी रखी थी जिसमे दोनों ऐसे बैठे थे जैसे जबरदस्ती बैठाये गए हों |
 हां , जबरदस्ती ही तो बैठाये गए थे दोनों क्यूंकि उसने कभी भी पत्नी को स्वीकार नहीं किया था | न तो वो उसकी अपनी कल्पना के अनुरूप थी और न हीं माँ पिता की अवहेलना कर सकता था | पर एकलौते पुत्र पर सब कुछ लगा कर जैसे वो कुछ साबित करना चाहता था | पत्नी ने कई बार दबी जबान में कहा भी कि एकलौता है तो क्या , उसकी हर जिद्द मत पूरा करो , लेकिन जितना ही वो कहती , उतना ही वो उसको खुली छूट देता गया | बेटा आगे बढ़ता गया , पत्नी की जिंदगी पीछे छूटती गयी , एक समय आया जब बेटा बाहर किसी और देश निकला और पत्नी ने भी किसी और दुनिया में जाने की राह पकड़ ली | फिर जैसे जैसे बेटे से बातचीत घटने लगी , वैसे वैसे उसे पत्नी की उपस्थिति महसूस होने लगी | लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और उसने अपनी अलग दुनियां में जाने की तैयारी कर ली थी | पत्नी के अंतिम संस्कार में बेटा आया तो जरूर था लेकिन उसके हाव भाव ने जाहिर कर दिया था कि अब यहाँ उसका कुछ नहीं रहा | उसकी बात करने की हर कोशिश को नकारता हुआ बेटा उसकी बात काटकर बाहर निकल जाता | जल्दी जल्दी सब निपटाकर बेटा निकल गया और छोड़ गया उसके लिए वो सूनापन जिसे कभी उसने पत्नी के लिए रख छोड़ा था |एकबार फिर वो उठा , अपनी और पत्नी की तस्वीर उठाकर उसकी धूल साफ़ की और धीरे से उसे आगे रख दिया | अब अपने सीने पर पड़े बोझ से उसे थोड़ी राहत महसूस होने लगी |
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(३४). सुश्री सविता मिश्रा जी
सब तन कपड़ा ~~(विषयाधारित लघुकथा)

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रमा रोज-रोज बच्चों से कहती कि कोई झुग्गी बस्ती पता करें । बच्चें टाल जातें । अलमारी खोलती और कई कपड़े अलग कर थैले में रख देती | पुराने थैले को खोल देखती फिर छाँट कर एक-दो कपड़े निकाल बच्चों को पहनने को कहती | लेकिन अलमारी के कोने में हफ्तों से अनछुआ पड़ा देख उन्हें फिर थैले में भर देती | थैलों को देख ‘गरीब पाकर खुश हो जायेंगे’ मन ही मन सोच खुश हो जाती | दीपावली आते-आते कई थैले इकट्ठे हो गये थे। बच्चों को एकाक थैला दें एमजी रोड पर शाम को ठण्ड से सिकुड़ते हुए को दे आने को कहती | बच्चें सुनकर अनसुना कर देंते |
‘एक तो घर में जगह नहीं उप्पर से नये कपड़े चाहिए पर पुराने किसी को देने को कहो तो मुहं बनता ‘ भुनभुनाते हुए थैले सहेजती | रोज-रोज की कीच-कीच होती रमा के घर इस बात को लेकर |
आज दीपावली पर बच्चों को कपड़े की जिद पकड़े देख रमा भड़क उठी -” नए कपड़े खरीदो, एक दो बार पहन ही रख दो | पैसे जैसे पेड़ पर उगते हैं | किसी को देने को कहो तो वो भी सुनाई नहीं पड़ता | आज जाके सारे थैले देकर आओ किसी गरीब को फिर नए खरीदने की बात हो |”
“ऐसा हैं मम्मी, ये पुराने कपड़े हम नहीं देने जायेंगे वो भी स्कूटर से | पापा को कहो कार लें दें | ”
“अच्छा ! अब पुरानी चीजें किसी को देने चलना हो तो कार चाहिए स्कूटर से शर्म आती है क्या ?”
“आप घर में बैठी रहतीं | निकलिए बाहर तनिक | कार होंगी तो रखे रहेंगे उसी में |दूरदराज जहाँ जरूरत मंद दिखें दे दो |”
“ठीक है चल मैं खुद चलती आज | देखती हूँ कैसे नहीं मिलते जरूरतमंद!!!! निकाल स्कूटर मैं आ रहीं |”
मुश्किल से दो थैले पकड़ किसी तरह सड़क किनारे झुग्गी बस्ती में पहुँची रमा | पर ये क्या !! थैला लेकर दो, फिर चार,फिर आठ झोपड़े के चक्कर लगा ली | कीचड़, कूड़े के ढेर से से बचती=बचाती घंटो बाद भरा थैला टाँगे दूर खड़े बेटे के पास पहुँच गयी |
” क्या हुआ मम्मी ? नहीं मिला कोई गरीब ? नहीं लिया किसी ने कपड़े ??”
“सब तन कपड़ा चाह रहीं थीं मैं, कपड़े भले चिथड़े हो पर एक दो के घर के सामने यहाँ तो  कार खड़ी थी , भले खचाड़ा ही सही | छत भले झुग्गी थी, पर टाटा स्काई की छतरी मुझे मुहं चिढ़ा रही थी | हट्टे-कट्टे लड़के बड़े-बड़े मोबाईल में मगन थे | सोचा आगे जाऊं शायद कोई जरूरत मंद मिले | पर ना , उनसे ज्यादा गरीब तो मैं थी बेटा जो बड़े बेटे के कपड़े छोटे को और छोटे के बेटी को पहना रहीं थीं |


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(३५). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 

"सिपहसलार" - (लघुकथा)

बीज अंकुरित हो चुका था। आस- पास मौजूद कुछ एक पेड़ों की जड़ें नवांकुर के उज्ज्वल भविष्य के लिए दुआयें कर रही थीं । ज़रा सा सुकोमल तना तन कर भूमि के बाहर आकर सूर्य का प्रकाश पाने को लालायित सा था । बाहर ज़मीन पर खड़े पेड़ आपस में जो विचार विमर्श कर रहे थे, वह सब अब उसे बारी-बारी से सुनाई दे रहा था । नवांकुर के दिलो-दिमाग़ को उनकी सभी बातें बारी-बारी से झकझोर रहीं थीं -
"कितने अरमान थे कि पथिकों को छाया देंगे, लेकिन पथिकों को फुरसत ही नहीं कि हमारे नीचे कुछ देर ठहरें । "
"हमने सोचा था कि मानव द्वारा बिगाड़े गये पर्यावरण के कल्याण हेतु अपना कुछ श्रमदान, अंशदान देंगे, लेकिन यहाँ तो हम अपने ही अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं मानव से ही !"
"एक-एक करके जैसे-तैसे हमारा कारवाँ बनता है अपने मिशन के लिए , हम में से कोई शहीद हो जाता है, तो किसी की निर्मम हत्या कर दी जाती है ! "
"सही कहते हो भाई, हम में से कई तो मौसम के बदलते तेवर से बीमार और ज़ख़्मी हो जाते हैं और बेमौत मारे जाते हैं !"
"नवांकुरों को हम क्या मार्गदर्शन करें, उन्हें कैसे प्रोत्साहित करें इस स्वार्थी प्रदूषित वातावरण में !"
इन सब बातों को सुनकर वह नवांकुर तना हतोत्साहित हो कर अपने आसपास मौजूद उन जड़ों से पूछने लगा - " क्या मैं यहीं आप लोगों के साथ रह सकता हूँ जीवन भर ?"
"नहीं, तुम्हें अपने मिशन पर जाना ही होगा ! वैसे भी यहाँ हमारे कौन से अरमान पूरे हो रहे हैं, संघर्ष तो हम भी कर रहे हैं न !" - जड़ों ने निराश स्वर में कहा - " जल संकट, भूमि-क्षरण और प्रदूषण जैसी तकलीफों से हम भी तो दो-चार हो रहे हैं !"
नवांकुर तना कभी भूमि की तरफ़ रुख़ करता, तो कभी भूमि के बाहर पेड़-पौधों को देखता ! वह विकास यात्रा के पहले सोपान पर ही अपनी इच्छाओं व सपनों को लेकर बहुत ही सशंकित, विस्मित, अचंभित सा हो रहा था !
उसकी मनोदशा को समझ कर बहुत नज़दीक वाले पेड़ ने उससे कहा - "घबराओ मत, इस धरा पर यह सब मानव का ही किया धरा है ! मानव अपने हितार्थ कितना भी स्वार्थी क्यों न हो जाए, अंततः वह हमें ही तो याद करता है ! सो बस , संघर्ष करते हुए तुम्हें जवान होना है और पर्यावरण संतुलन के संग्राम में एक सिपहसलार यानी सेनानी की भूमिका निभानी है बिना किसी स्वार्थ और लिप्सा के !"

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यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित I

निवेदित संशोधन के लिए आभार पूज्य योगराज सर जी।
निवेदित संशोधन के लिए आभार पूज्य योगराज सर जी।

कृपया मेरी रचना के संसोधित रूप को संकलन में स्थान देने की कृपा करे ...

साड्डा-हक -

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जब से वह स्नातक हुआ है, एक अच्छी नौकरी की चाहत में आये-दिन ही वह नुक्कड़ की दुकान में खड़ा होकर घण्टों रोज़गार समाचार-पत्र खंगालता रहता है। वह खूब अच्छी तरह समझता है कि छोटी सी दुकान की कमाई से कितनी मुश्किल से उसके बाऊ-जी घर चला पाते हैं । सिमरन की स्कूल की दो महीनें की फ़ीस भी अब तक नहीं जमा हो पाई है । ऊपर से बेबे-जी की बीमारी ने घर की अर्थव्यवस्था को और चरमरा डाला है | इसीलिए उसनें आस-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया है, लेकिन उनसे मिले पैसों से सिर्फ बेबे-जी की दवा ही आ पाती है।

उस दिन जब उसके सामने ही मकान-मालिक ने उसके बाऊ-जी को किराया न चुका पाने के कारण सरेआम ज़लील किया, तब से उसनें अखबार बांटने का भी काम शुरू कर दिया। 'बस्स..! एक वारी चंगी सी नौकरी मिल जावे... ' यही सोचते हुए वह जल्दी-जल्दी रोजगार समाचार-पत्र का एक-एक पन्ना टटोल रहा था । तभी सड़क पर हो रहे शोरगुल से उसका ध्यान भंग हो गया ।

उसके सारे हमउम्र दोस्त इकठ्ठा होकर नारे लगा रहे हैं। "धांधा-गर्दी नहीं चलेगी..! नहीं चलेगी.. ! साड्डा हक्क एत्थे रख..!" उत्सुकतावश वह भी दौड़ कर वहाँ पहुँच गया।

"की गल्ल है वीर.. ?" उसने मन्जीते के कन्धे पर हाथ रखते हुए पूछा।

"असीं लोग बेरोजगारी-भत्ते दी माँग कर रहे हाँ , चल तूँ वी आ जा, तूँ वी ताँ साड्डी बिरादरी (बेरोजगार) दा हैं ।" कहते हुए मन्जीते ने उसे भी भीड़ में घसीट लिया।

 

चारो तरफ हो रहे हंगामे से , घबराहट के मारे वह असहज हो उठा । उसके बिलकुल सामनें ही परमवीर, टीटू , सुहेल और उसके कितने ही दोस्त जोर-जोर से नारे लगा रहे हैं।

 

"ओये तैनू की न्यौता देना पैगा.. तुसी क्यों नहीं लगान्दा नारा ?" उसे खामोश खड़ा देख कर टीटू ने उसे झकझोर दिया।

"पर बाऊ जी तो कैह्न्दे है कि ..." वह पूरा कह भी न पाया था कि टीटू ने गुस्से से उसे परे धकेल दिया। अचानक लगे धक्के से वह भरभरा कर जमीन पर मुँह के बल जा गिरा।

काफ़ी देर अपनें घुटनों पर सिर रखे हुए वह न जाने क्या बडबडाता रहा ? फ़िर झटके से उठ खड़ा हुआ और हाथ उठा कर जोर-जोर से नारे लगाने लगा।

"भीख नहीं ,सानूं रोज़गार चाहीदा है ..!
"साड्डा हक्क एत्थे रक्ख...!"
"साड्डा हक्क एत्थे रक्ख...!”

हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी!जिस सफ़लता और  द्रुत गति से आपने ओ॰ बी॰ ओ॰ लघुकथा गोष्ठी-९ को संकलित और प्रकाशित किया,वह भी ३१ दिसंबर की रात को,निश्चित ही एक आश्चर्य जनक कार्य है!वैसे तो आप पहले भी ऐसे चमत्कार करते रहे हैं!पर इस बार तो पिछले सारे रिकार्ड तोड दिये!लघुकथा गोष्ठी का स्तर दिन व दिन निखर रहा है!यह एक शुभ संदेश है!इस बार कई नये नाम शामिल हुए मगर साथ ही कुछ पुराने मशहूर कथाकारों के शामिल ना होने से कुछ अच्छी रचनायें पढने से वंचित रह गये!आदरणीय रवि प्रभाकर जी, आदरणीय सौरभ पांडे जी,आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी एवम आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी की प्रविष्टियां नज़र नहीं आयीं!ये सभी मेरे प्रिय और पसंदीदा लघुकथाकार हैं!मुझे निराश होना पडा!आदरणीया सविता मिश्रा जी ने देर रात को लघुकथा डाली अतः मैं उसपर टिप्पणी नहीं कर सका! अभी १२ - १४ दिन का अस्पताल का पीडादायक अनुभव और आपरेशन के बाद की बंदिशें ज्यादा देर जागने और बैठने की अनुमति नहीं देती!आदरणीय सविता जी की लघुकथा भी उच्च स्तरीय थी!मुझे बहुत अच्छी लगी!सविता जी को हार्दिक बधाई!आदरणीय योगरज जी को पुनः हार्दिक बधाई!

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित I

आदरनीय योगराज भाई साहब ! सब से पहले सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएँ. दूसरा, नव वर्ष पर इस संकलन का तौहफा. यह दूसरी ख़ुशी. इतनी तीव्र गति से संकलन निकलने पर हार्दिक बधाई. आप की कार्य गति, प्रगति व तीव्रता को नमन. आप के मार्गदर्शन में निकले इस उत्कर्ष संकलन के लिए आप के साथ-साथ सभी लघुकथाकारों को बधाई.

सम्मान्य मंच/गोष्ठी संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी, मेरी लघु कथा को संकलन में स्थापित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद। पूरी कोशिश करूँगा कि अगली बार कुछ अच्छी अपेक्षा अनुरूप रचना प्रस्तुत कर सकूँ । सादर

संशोधित रचना 

संयोग

"कितनी सुंदर लाल रंग की ये कार ,उफ़ हाथ रखो तो मानों फिसल जाये ,ये तो और भी प्यारी है चमकीली सुनहरी कार . काश ! कभी मैं कार में बैठ पाती "

   सिग्नल पर फूल बेचने वाली कम्मो हमेशा ऐसे ही हसरत भरी निगाहों से कारों को देखती .जब कोई कार लाल बत्ती होते रूकती ,कम्मो फूल ले शीशे के पास खड़ी हो जाती.यदि शीशा नीचे  नहीं भी होता तो वह कार को सहलाती रहती .कभी कोई फूल लेने या उसे भगाने  के लिए कांच नीचे करता तो वह ,लपक कर अंदर देखने लगती .उसे और कोई गाड़ी नहीं पर कार बहुत आकर्षित करती ,उसकी दिली तमन्ना थी कि वह कभी कार के अंदर भी बैठती .उसदिन शाम होने को आया था,उसके फूल लगभग सारे बिक चुके थे .फूल वाले  का हिसाब कर वह अपनी बस्ती की तरफ जा रही थी कि एक कार तेजी से बगल से गुजरी .आदतानुसार वह लालच भरी नज़रों से कार की तरफ देखने लगी ,तो देखा अंदर एक लड़की शीशे पर हाथ मार मार रो या चिल्ला रही है . उसने देखा कुछ लोग और भी हैं कार में जो उस लड़की को खींच रहें हैं या मार पीट कर रहें हैं .

  कम्मो ने आव देखा न ताव एक बड़ा सा पत्थर उठा कर चला दिया ,जो सीधे कांच तोडती चालक को जा लगी .कार का संतुलन बिगड़ गया और वह सामने पेड़ से जा टकराई .कम्मो के वहां पहुँचने तक ,घायल चालक और लड़की को छोड़ दो लड़के तेजी से  भाग गए . कार में धुँआ धुँआ सा भर गया था . उस फटेहाल लड़की को उसने झट से अपना स्वेटर खोल कर पहना दिया .

"दीदी ,मैं यहीं रहती हूँ ",ऊँगली से उसने अपना घर दिखाया .

थोड़ी देर के बाद ही , वह घर से अपनी माँ के साथ निकली तो सामने एक नीली रंग की कार देख ,उसकी इच्छा बलवती हो जोर मारने  लगी .तभी दरवाजा खुला ,अंदर से वही  दीदी अच्छे कपड़ों में उतरी साथ में उसके पिताजी ,स्वेटर  लौटाते हुए उन्होंने हाथ जोड़ कहा ,

"बहनजी ये आपकी लड़की है ? इसने मेरी बेटी की इज्जत बचाई है .बहुत बहादुर है .बोलो बेटा  तुमको क्या चाहिए ?"

कहना न होगा कि,थोड़े ही समय बाद कम्मो ख़ुशी ख़ुशी उस नीली कार के अंदर बैठ शहर के चक्कर लगा रही थी .आज उसकी एक बड़ी आकांक्षा जो पूरी हो गयी थी .

मोहतरम जनाब योगराज साहिब , प्रोग्राम की बेहतर निज़ामत , कामयाबी और जल्द संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

आदरणीय प्रभाकर जी ,
इस लघुकथा उत्सव के कुशल-संचालन के लिए कृपया बधाई स्वीकारें। यह देख और भी प्रसन्नता हुई कि गोष्ठी समाप्त होते ही आपका सम्पादन का काम भी संपन्न हो चुका था।
हरि -इच्छा कि इस बार शीतकालीन अवकाश ने मुझे दो दिन लगातार इस गोष्ठी के समापन तक जुड़े रहने का अवसर दिया । पिछली बार मैं समयाभाव के कारण हर रचना तक नहीं पहुँच पाया था , मगर इस बार मैंने इसमे इसमे पूरी सक्रियता से भाग लिया। आभारी हूँ OBO टीम का जिसने ऐसे उत्सव मनाए जाने की परिकल्पना की और इसे मूर्त रूप दिया। इस गोष्ठी से जो मैंने सीखा , वह आप सब से साँझा करने का मन है :
1 गोष्ठी का विषय लगभग एक महीना एडवांस में दे देना बहुत ही सराहनीय कदम है। इससे लेखक को प्रदत्त विषय पर मनन करने, लघुकथा लिखने , उसे बार -बार परिमार्जित करने और भाषाई अशुद्धियों को दूर करने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है। मैंने भी ब्लॉग पर जिस दिन विषय " आकांक्षा " प्रकाशित हुआ , उसी दिन से इस पर काम करना शुरू कर दिया था। बहुत अच्छी परम्परा है , कृपया बनाए रखिएगा।
2 . हर लेखक यहाँ गोष्ठी की लगभग सभी रचनाओं पर अपनी टिप्पणी देने पहुँचता है , यह बहुत ही सौहार्द्रपूर्ण कदम है। एक अन्य सोशल मिडिया की तरह नहीं कि तुम मेरी रचना पर आओगे , तभी तुम्हारी रचना पर आऊंगा। और उससे भी अच्छी बात यह लगी कि लेखक, बुरा न मानकर हर टिप्पणी को सर माथे लेता है और सीखने का प्रयास करता है। टिप्पणियाँ भी बिना किसी द्वेष के आती हैं। लेखक बहुत सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें इतना बढ़िया वातावरण मिल रहा है। और यही वजह है कि बहुत अच्छी-अच्छी रचनाएँ सामने आ रही हैं। एक अन्य सोशल मीडिया पर मैंने देखा है कि ज्यों ही आपने किसी स्थापित लेखक से असहमति व्यक्त की , उसके चेले-चमचे झुण्ड में प्रकट हो कर गरियाना शुरू कर देते हैं। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। इस वातावरण को आपने बहुत बढ़िया तरीके से प्रदूषण-रहित बना रखा है , बधाई स्वीकारें।
3 मुझे यह भी देख कर प्रसन्नता हुई कि "सीखने-सिखाने" की परम्परा यहाँ अनवरत चलती रहती है, और सुझावों को मान भी दिया जाता है। पिछली लघुकथा गोष्ठी में सदस्यों द्वारा प्रयुक्त टिप्पणियों में , लघुकथा "हुई है " के प्रयोग से मुझे बहुत असुविधा हो रही थी। मुझे यह देख संतोष हुआ कि इस बार यह प्रयोग नहीं के बराबर ही दिखा। मैं आभारी हूँ आप सभी का कि आपने इस पर ध्यान दिया। हालाँकि , मेरा तब आपत्ति उठाने का तरीका कोई बहुत बढ़िया नहीं था ; और अब मैंने यह भी सीखा कि वह तरीका मंच की गरिमा के अनुरूप तो हरगिज़ ही नहीं था। मेरी सही बात को जब कोई गलत ठहराता है तो तर्क ( और कई बार तो कुतर्क पर भी ) उतर आता हूँ, यह मेरे स्वभाव की कमज़ोरी है । वादा रहा , भविष्य में मैं भी ध्यान रखूँगा कि मंच पर सार्थक बहस में , कोई मेरी सही बात को भी गलत कहेगा तो भी संयम बनाए रखूंगा।
मेरी तरफ से पूरे परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं। आप चिरायु हों प्रभाकर जी ताकि सदस्य आपके कुशल मार्गदर्शन में लिखते रहें।

ओबीओ पर आपके सयोजन में वर्ष 2015 में लघुकथा गोष्ठी के सफल 9 आयोजन के लिए हार्दिक  बधाई एवं सभी रचनकारों के स्तरीय प्रयासों को नमन | ओबीओ के सभी सदस्यों को नव वर्ष की मंगल कामनाएं 

प्रस्तुत अक में 32 वें नम्बर पर मेरी लघुकथा का शीर्षक लोकप्रियता के जगह "महत्वाकांक्षा" कर कृतार्थ करे आदरणीय जैसा की आपने अपनी टिपण्णी में सुझाया था | 

सादर 

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