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ग़ज़ल नूर की- कहीं से उड़ के परिन्दे कहीं पे उतरे हैं

कहीं से उड़ के परिन्दे कहीं पे उतरे हैं  
ख़ुदा से हो के ख़फ़ा हम ज़मीं पे उतरे हैं.
.
तुम्हारे ढब से मिली बारहा जो रुसवाई  
हर एक बात पे हाँ से नहीं पे उतरे हैं.
.
हमारी आँखों की झीलें भी इक ठिकाना है     
तुम्हारी यादों के सारस यहीं पे उतरे हैं.
.
हमारी फ़िक्र से नीचे फ़लक मुहल्ला है  
ये शम्स चाँद सितारे वहीं पे उतरे हैं.  
.
हज़ारों बार ज़मीं ने ये माथा चूमा है
उजाले सजदों के मेरे जबीं पे उतरे हैं.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 


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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 31, 2021 at 11:06am

आभार आ. बृजेश जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 30, 2021 at 11:23am

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आदरणीय नीलेश जी...हरेक शे'र बेमिशाल

और मतला

कहीं से उड़ के परिन्दे कहीं पे उतरे हैं  
ख़ुदा से हो के ख़फ़ा हम ज़मीं पे उतरे हैं...जबरजस्त

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 27, 2021 at 7:53am

आभार आ. समर सर 

Comment by Samar kabeer on December 26, 2021 at 7:08pm

जनाब निलेश 'नूर' जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 24, 2021 at 10:43pm

आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
//आपकी ग़ज़ल पर मैंने कोई इस्लाह देने की जसारत नहीं की है, पाठक के रूप में एक सवाल आपसे किया है, जिस पर आप नाराज़ हो गये।//
मेरी किस बात से आपको लगा कि मैं नाराज़ हो गया हूँ??
आप ही टिप्पणी करें, कोई जवाब दे तो आप ही तय कर लें कि कोई नाराज़ है या नहीं..
मैंने सिर्फ आपके जवाब में तीन बातें कही और वो तीनों बातें पूर्णत: ठीक हैं..
आप मेरे जवाब से इतने कुढ़ गये कि फिर बिना मांगे सलाह देने लगे कि मेरा आचरण कैसा हो..
मुझे न मीठे का शौक है न कसैले से परहेज़... अलबत्ता कोई यूँ ही कुछ भी कहने भर  को कहता रहे  तो दांत खट्टे ज़रूर कर देता हूँ ..
आपने कह दिया रुख//// क्या मतलब बनता है वहां  रुख का??? मैं क्यूँ मानूँ कि धरती ख़ुदा कि है///
आप अपने ऊटपटांग ख़याल थोपें और फिर जब जवाब जी हुजुरी में न हो तो आचरण पर भाषण दें?? 
ये अदबी भोंडा पन है.. और मैं नो नोंसेंस आदमी हूँ ... 
सनद रहे 
नमस्ते 


Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 24, 2021 at 10:56am

तीन बातें!

//1) तख़य्युल पर इस्लाह न हो।

2) यह आपकी मान्यता है कि ज़मीन भी ख़ुदा की है, मैं तो आसमान भी अपना ही मानता हूँ।

3) कोपभवन चाहे राजा का हो उस पर अधिकार रानियों का होता है। 

रही बात रुख़ की ,,, तो कतई नहीं, ढब को रुख़ कर के बेढ़ब नहीं करूँगा।//

आ. निलेश नूर साहिब, आपकी ग़ज़ल पर मैंने एक पाठक के तौर पर टिप्पणी की थी, और ग़ज़ल अच्छी लगी तो उस पर पसंदगी का इज़हार भी किया।

आपकी ग़ज़ल पर मैंने कोई इस्लाह देने की जसारत नहीं की है, पाठक के रूप में एक सवाल आपसे किया है, जिस पर आप नाराज़ हो गये।

मैंने ढब को रुख़ करने के लिए भी नहीं कहा मह्ज़ अपना नज़रिया पेश किया था, जिस से सहमत होना या असहमत होना आपका निर्णय है। 

एक बात कहूँगा कि सिर्फ़ मीठा खाने से कई बीमारियां जकड़ सकती हैं, कभी-कभी कुछ कसैला न चाहते हुए भी निगल लेना चाहिए। अपने पाठकों या फॉलोवर्स को झिड़कना या उनसे नाराज़ आप जैसे दानिशवरों को शोभा नहीं देता है।  शुभ-शुभ। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 23, 2021 at 10:47pm

धन्यवाद आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,

तीन बातें!

1) तख़य्युल पर इस्लाह न हो।

2) यह आपकी मान्यता है कि ज़मीन भी ख़ुदा की है, मैं तो आसमान भी अपना ही मानता हूँ।

3) कोपभवन चाहे राजा का हो उस पर अधिकार रानियों का होता है। 

रही बात रुख़ की ,,, तो कतई नहीं, ढब को रुख़ कर के बेढ़ब नहीं करूँगा।

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 23, 2021 at 10:42pm

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 23, 2021 at 9:08pm

आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।

"ख़ुदा से हो के ख़फ़ा हम ज़मीं पे उतरे हैं."  इस मिसरे पर नज़र् ए सानी फ़रमाएं, ज़मीं भी ख़ुदा की ही कायनात का हिस्सा है।

''तुम्हारे ढब से मिली"   "तुम्हारे रुख़ से मिली"   सादर। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2021 at 2:15pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई.

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