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एडमिन 

२०१५०३१९०७ 

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 18, 2015 at 5:37am

आदरणीय नवीनमणिजी, सुझाव सलाहें मिल गयीं हैं. तदनुरूप अभ्यास करें. आपकी पहली प्रस्तुति से गुजर रहा हूँ. आपकी प्रस्तुतियाँ अपनी ऊर्जा से आगे भी रोमांचित करेंगीं इसका पूरा विश्वास है. यह मंच सीखने के बेहतर अवसर उपलब्ध करायेगा.

एक बात जो अवश्य कही जानी चाहिये थी - हम एक थे, हम एक हैं ,हम एक ही होंगे सदा
यह मिसरा आपके अन्य मिसरों के वज़न से भिन्न है. इसे भी देख लीजियेगा.
शुभ-शुभ
 

Comment by Naveen Mani Tripathi on March 17, 2015 at 11:47pm
आप सभी आदरणीय रचनाकारों का स्नेह पाकर आभारी हूँ । विश्वास है निरंतर आप सब के अमूल्य सुझाव मुझे यूँ ही मिलते रहेंगे ।
Comment by Nidhi Agrawal on March 17, 2015 at 4:20pm

सुन्दर ग़ज़ल हुई.. ये दोनों शेर बहुत उम्दा बने 

नुक्कड़ो पर भेड़िये हैं नोचते हर जिस्म को ।
हर मुसाफिर को नकाबों की यहां दरकार है ।।

हम एक थे, हम एक हैं ,हम एक ही होंगे सदा ।
वोट का मजहब ये बातें कर गया इनकार है।।

Comment by Nirmal Nadeem on March 17, 2015 at 3:27pm

माँ की ममता बाप का साया कहाँ परदेश में ।
रोटियों के खौफ से टूटा हुआ ऐतबार है ।।

ye sher dekhiye.... yahaa AITBAAR lafz hone ki wajah se misra kharij ho rha hai....

जिसमें जितना दम था वो बोया जहर इस मुल्क में।
कातिलों के हाथ से गिरती कहाँ सरकार है ।।

is sher me ZAHAR ki wajah se misra kharij ho rha hai.. 

ZAHAR nahi ZAHR hota hai jiska wazan 21 hota hai....jaise.....SHAHR, LAHR,SABR, KABR aadi.

ghazal to bahut umda hui hai janab sirf in misro ko theek kar lijiye. shukriya.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 17, 2015 at 11:08am

आदरणीय नवीन भाई , गज़ल में बातें खूब सुन्दर कहीं हैं , हार्दिक बधाइयाँ । जहाँ तक काफिये का सवाल है उसे आप निम्न अनुसार चाहें तो सुधार लीजियेगा , पसंद न आये तो  कुछ और सोचियेगा ।

चैनलों की शाख को अब झूठ का आधार है ।
सिर्फ तारीफों की चर्चा में बिका अखबार है ।।

ऐस कर ने से बाक़ी शेर ठीक हो जायें गे , बस ये मिसरा  -- रोटियों के खौफ से टूटा हुआ ऐतबार है - और सुधारना पड़ेगा  --- इसे चाहे तो आप --   रोटियों के चाह में छूटा हुआ घरबार है --- कर सकते हैं ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 17, 2015 at 10:13am

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई 

आदरणीय बागी सर से सहमत हूँ काफियाबंदी में सुधार की दरकार है. मतले में अम्बार /अखबार के स्थान पर बाज़ार / अखबार किया जा सकता है 

चैनलों की शाख पर अब झूठ का बाजार है ।
सिर्फ तारीफों की चर्चा में बिका अखबार है ।।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 16, 2015 at 10:07pm

obo परिवार में स्वागत है आपका!बहुत ही उम्दा शुरुवात की है आपने!आ० बागी सर! की बात पर जरूर गौर करियेगा!

कथन के स्तर पर लाजव़ाब और समसामयिक रचना पर बहुत बहुत बधाई!!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 16, 2015 at 9:47pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, एक अच्छी ग़ज़ल काफिया स्तर पर खारिज हो गयी है, केवल एक शेर ....

//माँ की ममता बाप का साया कहाँ परदेश में ।
रोटियों के खौफ से टूटा हुआ ऐतबार है ।।//

को छोड़कर शेष अशआर में गलत काफियाबंदी कर दी गयी है, उक्त कोट किये गए शेर का मिसरा सानी की तकती एक बार देख लें, सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 16, 2015 at 8:02pm

आ० नवीन जी

कल ही आप सदस्य बने और आज ही आपकी सुंदर गजल रचना पढ़कर आनंद आ गया  . आपका इस परिवार में स्वागत है .

Comment by Hari Prakash Dubey on March 16, 2015 at 7:16pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ,सुन्दर ग़ज़ल

चैनलों की शाख पर अब झूठ का अम्बार है ।

सिर्फ तारीफों की चर्चा में बिका अखबार है ।।.....वाह , हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

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