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खोया रहता हूँ मैं जिनकी यादों में - सलीम रज़ा रीवा

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............................

खोया रहता हूँ मैं जिनकी यादों में

उनकी  ही खुशबू है मेरी साँसों में

.

दिल के हाथों था मजबूर बहुत वरना

आता कब  मैं  उनकी मीठी बातों में

.

उनको खो देने का भी अहसास हुआ

रंग-ए-हिना जब देखा उनके हाथों में

.

खो कर दुनिया आख़िर उनको पाया है

यूँ  ही  नहीं  है नाम मेरा अफसानों में

.

हर शय में उनका ही चेहरा दिखता है

उनके  ही  सपने  हैं मे री  आँखों  में

.

उनको पाकर मैंने सब कुछ पाया है

खुशियों  की सौग़ात है मेरे  हांथो  में

.

हर पल मुझको उनकी याद सताती है

नीद नहीं  आती  है  अब  तो रातों में

.....................................

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 21, 2017 at 10:26pm

आदरणीय नीलेश जी , अपने छोटे भाई की बात दिल से न लीजिएगा , 
आपकी वजह से मिसरे में बेहतर मशवरा मिल गया , और कही कुछ हो तो जरूर ध्यान केंद्रित कराएँ आभार ,

Comment by SALIM RAZA REWA on September 21, 2017 at 10:23pm

आली जनाब समर साहिब ,
आपके मशवरे से दिल को तसल्ली हुई मैं यह सुधर कर लूंगा आपका तहे दिल से शुक्रिया ,
आदरणीय नीलेश जी , अपने छोटे भाई की बात दिल से न लीजिएगा ,
आपकी वजह से मिसरे में बेहतर मशवरा मिल गया , और कही कुछ हो तो जरूर ध्यान केंद्रित कराएँ आभार ,

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 21, 2017 at 9:29pm

शुक्रिया आ. समर सर इस ख़ुलासे के लिए...
मैं  हमेशा उलझ जाता हूँ इसमें 
सादर 

Comment by Samar kabeer on September 21, 2017 at 9:11pm
क़ाफ़िया मतले से ही तय होता है,हुस्न-ए-मतला के सानी को अगर यूँ कर लें तो :-
'वो दिखता है मुझको मस्त फ़ज़ाओं में'
Comment by SALIM RAZA REWA on September 21, 2017 at 8:47pm

आदरणीय नीलेश जी ,
आपका मत सही लगा इसलिए हमने अपना मत हटा लिया ,शेर में आपका मशवरा अच्छा है ,
अब इस बात पर गुनी जन कुछ बात करे तो एक साथ सुधार करता हूँ।
अवगत करने के लिए शुक्रिया ,

Comment by Mohammed Arif on September 21, 2017 at 5:30pm
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब, डहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें तथा जनाब निलेश जी बातों का संज्ञान लें ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 21, 2017 at 3:58pm

आ. सलीम रज़ा साहब,
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई ...
मैं मंच के गुणीजनों   से जानना चाहूँगा कि ग़ज़ल का काफ़िया मतले   से तय होगा या हुस्न-ए-मतला से क्यूँ कि यहाँ मतले में ओं स्वर  काफ़िया है लेकिन हुस्न-ए-मतला में आरों काफ़िया हो गया है.
इस शेर को यूँ करें तो शायद गैय्यता बढ़ जायेगी
.

दिल के हाथों था मजबूर बहुत वरना

आता /कब/  मैं  उनकी मीठी बातों में
.
पुन: बधाई 
सादर 

 

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