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ग़ज़ल रोज़ मुकरते किरदारों से क्या लेना

22 22 22 22 22 2

रंग बदलते रुख़सारों से क्या लेना ।
रोज मुकरते किरदारों से क्या लेना ।।

गंगा को मैली करती हैं सरकारें ।
उनको जग के उद्धारोँ से क्या लेना ।।

खूब कफ़स का जीवन जिसको भाया है ।
उस पंछी को अधिकारों से क्या लेना ।।

जंतर मंतर पर बैठा वह अनसन में ।

राजा को अब लाचारों से क्या लेना ।।

टूट चुका है उसका अंतर मन जब से ।

जग में दिखते मनुहारों से क्या लेना ।।

फुटपाथों पर जिस्म बिक रहा खबरों में ।
उसको छपते अखबारों से क्या लेना ।।

काम न् आए नेता जो भी मौके पर ।
हमको उसके आभारों से क्या लेना ।।

दफ़्न हुए भौरे पंखुड़ियों में फँस कर ।

फूलों को इन बेचारों से क्या लेना ।।

परिणामों पर खूब हुई चर्चा देखो ।
इस चर्चा पर गद्दारों से क्या लेना ।।

सच को ही मै सच कहता हूं महफ़िल में ।
कान लगे इन दीवारों से क्या लेना ।।

हो न् सका जो बाप का वो जनता का कब ।
राजनीति के खुद्दारों से क्या लेना ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on April 5, 2017 at 6:39pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आद० नवीन जी बधाई स्वीकारें 


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2017 at 6:08pm

आदरणीय नवीन भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है ... बधाइयाँ स्वीक्कार करें ।

Comment by Mahendra Kumar on April 4, 2017 at 9:48pm
बढ़िया ग़ज़ल है आदरणीय नवीन जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं, देख लीजिएगा। सादर।
Comment by Naveen Mani Tripathi on April 2, 2017 at 6:34pm
आ0 कबीर सर सादर आभार के साथ नमन ।
Comment by Samar kabeer on April 2, 2017 at 6:14pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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