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सफ़र (कविता)

सफ़र

सोचा जब भी
सफ़र कर लूँ
शुद्ध हवा खा लूँ
पहाड़ो के बीच
किसी झरने के करीब
एक डेरा डाल लूँ
ख्वाबों में बादल
आने लगे ।
उमड़ते घुमड़ते एहसास
छू रहे थे बादल
पहाड़ों के शिखर को
हलके से झांक रहा था रवि
नर्म मुलायम मखमली चादर
डेरे के पास शर्मा रही थी
जो रवि को देख पुल्लकित
हो खिल गयी
और मैं इस सफ़र
का आनंद ले रही थी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on November 16, 2016 at 9:14pm

हार्दिक बधाई आदरणीय कल्पना जी।बेहतरीन कविता।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 15, 2016 at 9:09pm

नर्म अह्सास ख़्वाबों को जीती प्यारी कविता बहुत बहुत बधाई 

Comment by Samar kabeer on November 15, 2016 at 8:39pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,हमेशा की तरह अच्छी कविता लिखी है आपने,हमारे पास अहसासात की ही दौलत तो है, ख़्वाब ही हमारी कुल जमा पूंजी है जिसे हम जितना ख़र्च करते हैं ये बढ़ती ही रहती है,बहुत ख़ूब अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
11वीं पंक्ति-'पहाड़ों के शिखर को'मेरे ख़याल से इस पंक्ति को यूँ होना चाहिये "पहाड़ों के शिखर से"क्या में सही हूँ,या ?
Comment by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 7:23pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी ख़्वाबी अहसासों को आपने सुंदर शब्दों में पिरोया है। सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। 

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