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ग़ज़ल -- मेरी ग़ज़ल का हर एक पहलू नया नया है ( दिनेश कुमार )

121 22 -- 121 22 -- 121 22

नया ज़माना है पा में घुंघरू नया नया है
मुहब्बतों का ये रक़्स हर-सू नया नया है

कहाँ से सीखा है यूँ नज़र से शिकार करना
तेरी कमाँ पर ये तीर-ए-अब्रू नया नया है

निग़ाह-ए-साक़ी से मत उलझना ए दोस्त मेरे
वो मय से छलके है रिन्द भी तू नया नया है

जवान बेटे को देख मुझको यही है लगता
कि मेरे शाने पे एक बाज़ू नया नया है

मैं तिफ़्ले-मकतब हूँ मीरो-ग़ालिब को पढ़ने वाला
मेरी ज़बाँ पे ये रंग-ए-उर्दू नया नया है

रदीफ़ भी देखिए नई है, नया है लहजा
मेरी ग़ज़ल का हर एक पहलू नया नया है

( पा = पैर ; रक़्स = नृत्य ; हर-सू = हर तरफ ;
मय = शराब ; रिन्द = शराबी ; शाना = कन्धा ;
तिफ़्ले-मकतब = a school boy, raw and inexperienced person )

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by दिनेश कुमार on November 10, 2016 at 3:49pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर। बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by दिनेश कुमार on November 10, 2016 at 3:48pm
आदरणीय भाई धर्मेन्द्र सिंह जी। बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by दिनेश कुमार on November 10, 2016 at 3:48pm
आदरणीय समर कबीर साहब। बहुत बहुत शुक्रिया। नवाज़िश है आपकी।

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 10:28am

आदरणीय दिनेश भाई , खूबसूरत ग़ज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 7:58pm

दानिश'साहिब,बहुत ख़ूब, शैर दर शैर दाद

Comment by Samar kabeer on November 9, 2016 at 5:00pm
जनाब दिनेश कुमार'दानिश'साहिब आदाब,बहुत ख़ूब वाह, उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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