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अनपढ़ और अनिपुण (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"तुम लोगों की बातचीत सुन रहा था। बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हो, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो!" आलोक नेे गृह-निर्माण कार्य में लगे कारीगरों से कहा।
"नहीं साहब, हम तो अंगूठा छाप हैं!" बड़े कारीगर ने ईंट के ऊपर सीमेंट-गारा डालकर उस पर दूसरी ईंट जमाते हुए कहा।
"तो फिर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेते हो?"
"हम पढ़-लिख नहीं पाये, तो टीवी देखकर पढ़े-लिखों की भाषा ध्यान से सुनकर सीखते हैं, आप लोगों की बातें सुनकर भी कुछ सीख लेते हैं!" कारीगर ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा।
"लेकिन तुम लोग तो इतने बढ़िया कारीगर भी हो, सुंदर भवन निर्माण कर लेते हो!" आलोक ने नई शैली में बनी दीवार की ओर देखते हुए कहा।
"साहब, हम 'अनपढ़' हैं, मगर 'अनिपुण' नहीं! विरासत में मिले अपने काम में 'निपुण' हैं!"
यह सुनकर आलोक फिर अपने करियर के अंधकार में खो सा गया। डिग्रियां हासिल कर लीं, लेकिन नौकरी हेतु किसी भी साक्षात्कार में सफल नहीं हुआ; न पिता का कारोबार संभाल सका, न ही कोई नौकरी हासिल कर पाया। वह पढ़ा-लिखा अनिपुण था, अनपढ़ नहीं!

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 8, 2016 at 10:59pm
रचना पर समय देकर इसके कथ्य पर अपने विचार साझा करने व प्रोत्साहन देने के लिए तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब गिरिराज भंडारी साहब और मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा।

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2016 at 12:12pm

बहुत सुन्दर ! ज़मीनी वास्तविकता और केवल डिगरी पा कर तथाकथित पढे लिखों की वास्तविक स्थिति को खूब शब्द मिले हैं ! हार्दिक बधाइयाँ ।


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Comment by rajesh kumari on June 8, 2016 at 11:23am

सच कहा आपने पढेलिखे बेरोजगार बहुत हैं बहुत अच्छी प्रेरणास्पद लघु कथा हुई हार्दिक बधाई आ० उस्मानी जी 


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Comment by rajesh kumari on June 8, 2016 at 11:22am

सच कहा आपने पढेलिखे बेरोजगार बहुत हैं बहुत अच्छी प्रेरणास्पद लघु कथा हुई हार्दिक बधाई आ० उस्मानी जी 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 8, 2016 at 11:19am
मेरी इस ब्लोग पोस्ट पर समय देकर रचना के मर्म व उद्देश्य से सहमत होते हुए अपने विचार साझा करने व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी और आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी।
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 8, 2016 at 8:24am
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी , एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, प्रतिभा , कौशल , निपुणता का भण्डार है हमारा देश , बस सब महत्वहीन कर दिया गया हैं , केवल हम और हमारा वोट बैंक रह गया है।
बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर , सादर।
Comment by pratibha pande on June 8, 2016 at 7:58am

हमारी शिक्षा व्यवस्था की ये बड़ी पुरानी कमज़ोर नस है जिसके चलते बेरोजगारों की भीड़ बढती ही जा रही है  ,कथा का विषय समसामयिक और सार्थक है  शिल्प कसा हुआ है ,  हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर आदरणीय उस्मानी जी 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 7, 2016 at 3:33pm
आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी कृपया शब्द 'अनिपुण' के विभिन्न सामान्य/विशिष्ट अर्थों को संदर्भ में लीजिएगा। "पढ़े-लिखे अनिपुण" से आशय उन छात्रों/बेरोज़गारों से है जो इंजीनियर, डॉक्टर बनने या भेड़चाल पर बिना विवेक व अभिरुचि के एम.बी.ए. जैसे डिग्री पाठ्यक्रम रटन-विद्या या जुगाड़-पद्धति से हासिल कर लेते हैं अच्छे पदों पर पहुंचने के लिए, किन्तु अपने विषय विशेष पर उनका उतना कमांड नहीं हो पाता कि नियोक्ता को साक्षात्कार वगैरह में प्रश्नोत्तर में या दिये गये कार्य को पूरा करके पर्याप्त संतुष्ट कर सकें। ऐसे युवा विद्यालयीन/महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम की प्रयोगात्मक निपुणता हासिल किए बिना केवल रटे हुए सैद्धांतिक पाठों के आधार पर डिग्रियां हासिल कर लेते हैं। नौकरी मिल जाने पर भी काम ढंग से न कर पाने पर नौकरी से निकाल दिए जाते हैं या स्वयं ही नौकरी छोड़ देते हैं। डिग्रियों का ठप्पा लिया पिता या परिवार के जमे जमाये कारोबार में न तो दिलचस्पी लेते हैं, न ही सीखने की कोशिश करते हैं। ये डिग्री धारी केवल माँ-बाप का पैसा बरबाद कर बेरोज़गारों की संख्या बढ़ाते रहते हैं। जबकि अनपढ़ उनके विपरीत कुछ सीखने व जीविकोपार्जन के लिए निपुण होने का भरसक प्रयास करते हैं। [अपवाद हो सकते हैं!]
आशा है कि मैं आपके सवाल का संतोषप्रद उत्तर दे सका हूँ। रचना पर समय देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद।
Comment by maharshi tripathi on June 7, 2016 at 12:34pm
आ. सर,मुझे कुछ समझ नही आया,आपके अनुसार हम बिना पढ़े भी निपुणता हासिल कर सकते हैं,मुझे तो ऐस नही लगता हाँ देखकर ज़रूर हम सीख सकते हैं,लेकिन ये कहे की पढ़ लिख कर अनिपुण हैं
सर मेरा भ्रम दूर करे

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