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बचपन में
हजार बुरी बलाओं पर 
पर भारी था
मेरी माँ का टोटका
माँ के हाथों से
माथे पर छोटा सा
काला टीका लगते ही
भयमुक्त हो जाता था 
एक असीम ताकत 
दे जाता था मन को
वो ममता में लिपटा 
माँ का टोटका
अब तो मैंने कैसे कैसे 
कृत्यों से कर लिया है
पूरा मुँह काला
मगर फिर भी 
भय से व्याप्त मन 
हमेशा व्याकुल रहता है

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा



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Comment

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Comment by umesh katara on May 1, 2015 at 9:56pm

आदरणीय Samar kabeer जी आपको रचना पसन्द आयी इसके लिये तहेदिल से आभारी हूँ

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 1, 2015 at 11:46am

वाह कटारा जी

अति सुन्दर .

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 1, 2015 at 11:10am

बहुत सुंदर. बहुत खूब आदरणीय उमेश जी. हार्दिक बधाई

Comment by Samar kabeer on May 1, 2015 at 11:04am
जनाब अमेश कटारा जी,आदाब,आप के लेखन में जो गहराई होती है वो सीधे दिल में उतरती है,इस शानदार रचना के लिये दिल से दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by umesh katara on April 30, 2015 at 9:34pm

आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी आपको रचना पसन्द आयी इसके लिये तहेदिल से आभारी हूँ

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 30, 2015 at 9:01pm
अब तो मैंने कैसे कैसे
कृत्यों से कर लिया है
पूरा मुँह काला
मगर फिर भी
भय से व्याप्त मन
हमेशा व्याकुल रहता है
काली करतूतें सबको नहीं सहतीं , कुछ महान लोगों को ही सहती - सुहाती हैं , वे जितना मुंह काला करते जाते हैं उतने ही अमर होते जाते हैं.
बहुत सही व्यंग है आदरणीय उमेश कटारा जी , बधाई , सादर।

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