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ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

 

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर

जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

 

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

 

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब

इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

 

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी

जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Hari Prakash Dubey on April 5, 2015 at 9:45pm

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है.....आदरणीय  धर्मेन्द्र जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल है , बधाई सादर !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2015 at 9:01pm

आ० धर्मेन्द्र जी

बढ़िया गजल्हुयी है  i सादर .

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 5, 2015 at 6:31pm
सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है
बहुत खूब, बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 5:57pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. इस शेर के हवाले से इस भरपूर ग़ज़ल ढेरों दाद हाज़िर है-

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर

जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

Comment by Nazeel on April 5, 2015 at 4:50pm

आदरणीय  भाई जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक  बधाई सवीकार करे । 

Comment by दिनेश कुमार on April 5, 2015 at 4:22pm
बेहतरीन ग़ज़ल। हर अशआर बहुत दमदार। बहुत खूब भाई धर्मेंद्र जी। ढेरों दाद व मुबारकबाद।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 5, 2015 at 1:32pm
बहुत खूब कहा आदरणीय लाजबाब ।

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