आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ
मैं नहीं दिखता बजट में
हर गज़ट पलटा रहा हूँ
फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ
गुठलियाँ किसने गिनी हैं
रस मधुर बरसा रहा हूँ
होम में जल कर, सभी की
कामना पहुँचा रहा हूँ
द्वार पर तोरण बना मैं
घर में खुशियाँ ला रहा हूँ
कौन पानी सींचता है
जी रहा खुद गा रहा हूँ
मीत उनको “कल” मुबारक
“आज” मैं जीता रहा हूँ
“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
छोटी बहर में बहुत ,बेहतरीन गजल कही है आदरणीय अरुण जी. आपके अंदाज ने आम को आम न रहने दिया, ख़ास बना दिया. तहे दिल से बधाई लीजियेगा
आदरणीय अरुण निगम जी बहुत सुन्दर गजल है ,हार्दिक बधाई आपको !सादर
आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ
मैं नहीं दिखता बजट में
हर गज़ट पलटा रहा हूँ
फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ.......शानदार
आदरणीय अरुण भाई , छोटी बहर मे बहुत बढिया गज़ल हुई है । दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥
फल रसीले बाँट कर बस
चोट को सहला रहा हूँ
गुठलियाँ किसने गिनी हैं
रस मधुर बरसा रहा हूँ
“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ
आदरणीय अरुण निगम सर ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,,बज़ट पर त्वरित प्रतिक्रिया |आम के आम गुठलियों के दाम ....ग़ज़ल भी और समीक्षा भी ....मज़ा आ गया |सादर अभिनन्दन |
लाजव़ाब क्या कहने!! आदरणीय अरुण निगम जी इस गजल के माध्यम से आपका प्रथम परिचय पा रहा हूँ!
गजब की गजल है...इतनी ताजगी लिए गजल बहुत दिनों बात सुनी!! सुने सुनाए शब्दों से हटकर!!
क्या कहने आदरणीय अरुण निगम जी, एक एक शेर उम्दा ख्याल से लबरेज है, छोटी बहर में ऐसी खुबसूरत ग़ज़ल पढ़ मन आनंदित है. कुछ डाउट वज्न को लेकर है ...
गज़ट, हवन को 21 और जिजिविषा को 212 में बांधना मुझे समझ नहीं आया. बहरहाल इस ग़ज़ल हेतु ढेरों दाद कुबूल करें.
वाह ,वास्तविकता से लबरेज़ तंज़ |खुद को आम-आम कहकर मलाई खाने वालों पर और बिना शिकायत आम बने रहकर दुनिया को बढ़ाने वालों की हकीकत कहने के लिए |दिली दाद |
आम हूँ बौरा रहा हूँ
पीर में मुस्का रहा हूँ - - वाह ! जब ख़ास को मतले में चुन लिया में आम से ख़ास हो गए | क्या तरकीब लगाईं है
“खास” का अस्तित्व रखने
“आम” मैं कहला रहा हूँ | - वाह ! बेहतरीन गजल रचना के लिए बधाई श्री अरुण निगम भाई
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