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ग़ज़ल : कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

बह्र : २१२ २१२ २१२२

 

दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं

कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

 

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं

पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं

 

हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं

घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं

 

वोदका पीजिए आप, हम तो

दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं

 

वो तो शैतान है जिसके बंदे

क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं

आज भी हम समय की नदी में

बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं

----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:40pm

बहुत बहुत शुक्रिया मिथिलेश वामनकर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 6:39pm

शुक्रिया  maharshi tripathi जी

Comment by ajay sharma on February 16, 2015 at 10:59pm

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं

पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं............kya kahne .....bahut hi achha likha hai .....

Comment by Hari Prakash Dubey on February 16, 2015 at 7:14pm

आदरणीय धर्मेन्द्र जी , बहुत खूब

//वोदका पीजिए आप, हम तो

दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं// .....क्या बात है 

//आज भी हम समय की नदी में

बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं//....शानदार , हार्दिक बधाई !

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 16, 2015 at 6:34pm
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं
वाह, आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी, बधाई, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 16, 2015 at 6:07pm
वाह वाह वाह आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी बहुत बहुत बधाई । क्या खूब ग़ज़ल कही है। आनंद आ गया। एक एक अशआर कमाल का। बिलकुल नए तेवर की ग़ज़ल। क्या खूब प्रयोग किया है गुदगुदी जानकी वोदका वाले अशआर कमाल है। दिल से दाद कुबूल फरमाए।
Comment by maharshi tripathi on February 16, 2015 at 4:55pm

इस सुन्दर प्रयास पर आपको बधाई आ.धर्मेन्द्र कुमार जी |

Comment by maharshi tripathi on February 16, 2015 at 4:54pm

इस सुन्दर प्रयास पर आपको बधाई आ.धर्मेन्द्र कुमार जी |

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