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दीप आंधी में जलाना इतना आसाँ है नहीं

२१२२      २१२२     २१२२     २१२  

राह पर्वत पर बनाना इतना आसाँ है नहीं 

दीप आंधी में जलाना  इतना आसाँ है नहीं 

सरहदों पे जान देते आज माँ के लाडले 

गीत आजादी के गाना इतना आसाँ है नहीं 

दोस्ती का हाथ लेकर फिर खड़े अहबाब हैं 

जो दफ़न उसको जगाना इतना आसाँ है नहीं 

बस्तियां चाहें जला लें आप कितनी भी यहाँ 

है हकीकत घर बनाना इतना आसाँ है नहीं 

हाथ हाथों से मिलाये हर किसी ने बज्म में 

दिल से दिल को पर मिलाना इतना आसाँ है नहीं 

सरहदों पे दाग खूनी अब तलक सूखे नहीं 

प्रीत दुश्मन से जताना इतना आसाँ है नहीं 

गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर 

छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं 

.

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on August 25, 2014 at 4:43pm

सरहदों पे दाग खूनी अब तलक सूखे नहीं 

प्रीत दुश्मन से जताना इतना आसाँ है नहीं ..हर शेअर का भाव गहरा और उम्दा है बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 25, 2014 at 3:31pm

बढिया है..

किन्तु, अब ग़ज़ल को ग़ज़लियत देने के प्रयास करें. आपके पिछले किसी ग़ज़ल पोस्ट पर वीनस भाई ने भी इशारा किया था.

और मुझे याद है उन्होंने बहुत कुछ कहा था. बह्र पर सम्यक अभ्यास हो जाने के बाद आपका अगला प्रयास अपनी ग़ज़लों में ग़ज़लियत को साधने की होनी चाहिये.

सादर

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 24, 2014 at 8:36pm

बस्तियां चाहें जला लें आप कितनी भी यहाँ 

है हकीकत घर बनाना इतना आसाँ है नहीं 

सच्ची बात!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2014 at 8:18pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल हर शेर एक सार्थक बात कहता अपनी छाप छोड़ता ,बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by Ajay Agyat on August 24, 2014 at 9:29am

घर हक़ीक़त में बनाना .... 

हाथ हाथों से मिलाते हैं मिलाने को मगर ... दिल से दिल का भी मिलाना इतना आसाँ है नहीं 

कुछ सूझाव ... यदि  पसंद आयें 

Comment by ram shiromani pathak on August 24, 2014 at 12:40am

 बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल  आदरणीय   हार्दिक बधाई आपको .....  सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2014 at 11:08am

आदरणीय भाई आशुतोष जी इस बेहतरीन और यथार्थपरक गजल के लिए कोटि कोटि बधाई ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 23, 2014 at 12:19am

गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर 

छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं............बेहद सुंदर. दिली बधाई आपको आदरणीय डा.आशुतोष जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2014 at 10:05pm
गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर
छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं
बहुत सुन्दर , यही नहीं , सात के सातो बहुत सुन्दर एवं आकर्षक .
बहुत बहुत बधाई डॉo आशुतोष मिश्रा जी ,
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2014 at 9:38pm

आदरणीय आशुतोष  जी

बेहतरीन

गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर 

छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं 

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