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मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है

२२     १२२२      २१२    २१२   २२

कोशिस मसीहा बनने की जब  कर रहा है तू

तो  सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ  डर रहा है तू ?

 

मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है

क्यूँ फिर तिजोरी सोने से ही भर रहा है तू ?

 

सबको दिखाया करता है तू मुक्ति के पथ ही

खुद सोच क्यूँ घुट घुट के ही यूं मर रहा है तू ?

 

तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है

सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है तू

 

ले नाम क्यूँ मजहब का लड़ाता सभी को है 

क्या भारती की पीड़ा ऐसे हर रहा है तू

 

जिस देश में मुफलिस को नहीं खाने को रोटी

काजू चबेने जैसे वहाँ चर रहा है तू

 

 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 22, 2014 at 8:17am

आदरणीय सौरभ सर ,आदरणीय गिरिराज भाई साब ..राचन पर आपकी मार्गदर्शक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद ..इस ग़ज़ल के लिए मैंने जो बह् इस ग़ज़ल के टाइप की थी वो २२     १२२२      २१२    २१२   २२ की जगह २२१२/२२२१/२२१२/२२ थी पता नहीं पर पेस्ट करते  वक़्त ऐसा कैसे हो गया ..कृपया अब बताने का कष्ट करें कि ये बह् सही है या नहीं ...सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 11:46pm

ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए बधाई.  बह्र के वज़न पर एक बार और नज़र डालें, आदरणीय

Comment by वेदिका on July 20, 2014 at 4:50pm
कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहा है तू
तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ डर रहा है तू ? .. तंज करता हुआ प्रश्न बहुत बढ़िया!

मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है
क्यूँ फिर तिजोरी सोने से ही भर रहा है तू ? बेहतरीन कटाक्ष!

बधाई!
Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 8:37am

आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,

बहुत ख़ूब ! उम्दा ग़ज़ल,  हर्सिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --

"कोशिस मसीहा बनने की जब  कर रहा है तू

तो  सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ  डर रहा है तू ?"


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 17, 2014 at 9:48pm

आदरनीय आशुतोष भाई , ग़ज़ल बहुत बढ़िया कही है , आपने , मतला और भी  खूब सूरत है  , आपको दिली बधाइयाँ ॥

 बह्र शायद सही नही लिखे हैं आप , ऐसा मेरा अंदाज़ा है , सही बात जानने के लिये गुणी जनो का इंतिजार किया जाना चाहिये ।

Comment by mrs manjari pandey on July 17, 2014 at 7:44pm
आदरणीय डॉक्टर आशुतोष जी सामयिक कटाक्ष की बेहतरीन प्रस्तुति।
Comment by Zaif on July 17, 2014 at 6:14pm
मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है
क्यूँ फिर तिजोरी सोने से ही भर रहा है तू ?

लाजवाब !!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2014 at 3:34pm

तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है

सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है 

 

आशुतोष जी i बहुत सुन्दर i  मर्मस्पर्शी i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 16, 2014 at 9:28pm

बेहतरीन अश:आर कहें है आपने आदरणीय डा. आशुतोष जी, आपको बहुत बहुत बधाई

Comment by Sushil Sarna on July 16, 2014 at 7:24pm

कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहा है तू
तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ डर रहा है तू ?

बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष जी .... बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल … ये शे'र तो गज़ब का है .... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई

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