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अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से

१२१२ ११२२ १२१२ २२/११२

अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से

जहर उगलने लगे हैं बशर तो बातों से

जो घूमते थे सदा तान सीना  जंगल में

वो शेर टूटे हैं जंगल में अपनी मातों से

हयात रो के गुजारी तमाम जनता नें

कहाँ ये लात के हैं भूत मनते बातों से ?

सुना है आज वो  संसद है इक मंदिर सी

 सुना था पहले जो चलती थी घूंसे लातों से

गले न मिलते हैं अब लोग इस सियासत में

कहीं न छीन ले कुर्सी ही कोई घातों से

है जात पांत से उनका गुरेज दिखलावा

चली है जिनकी सियासत ही जात पांतो से

 सियाह रातें ये देकर हमें विरासत में

कहें दिवाली मना के दिखा बताशों से

पिए हैं घूँट जो कडवे अभी तलक यारों

उन्हें नसीब समझ मत तू इन कयासों से

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 9, 2014 at 5:14pm

आदरनीय जीतेन्द्र जी .,आदरणीय गोपाल सर , अरुण जी, आदरणीय केवल जी , एवं आदरणीय शिज्जू जी ..किसी कारन वश दो तीन दिनों से दूर था ..आप सभी का स्नेह मुझे और मेरी रचना को मिला इसके लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर नमन के साथ 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 8, 2014 at 10:47pm

बहुत बढ़िया आदरणीय डॉ आशुतोष सर सादर बधाई स्वीकार करें

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 7, 2014 at 6:53pm

आ0 आशुतोष भाईजी,   बेहतरीन गजल हुई है।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 7, 2014 at 5:02pm

आदरणीय आशुतोष जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2014 at 12:07pm

मित्र आशुतोष जी

बेहतरीन गजल उतरी है

अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से

जहर उगलने लगे हैं बशर तो बातों से

जो घूमते थे सदा तान सीना  जंगल में

वो शेर टूटे हैं जंगल में अपनी मातों से

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 7, 2014 at 9:09am

वाह! बहुत खूब, आपकी गजल का हर शेर सामयिक हुआ है आदरणीय डा.आशुतोष जी

पिए हैं घूँट जो कडवे अभी तलक यारों

उन्हें नसीब समझ मत तू इन कयासों से...........बहुत खूब, कमाल. दिली बधाई आपको

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 7, 2014 at 9:05am

आदरणीया कल्पना जी ..मेरी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से हार्दिक धन्यवाद सादर 

Comment by कल्पना रामानी on July 6, 2014 at 10:26pm

हयात रो के गुजारी तमाम जनता नें

कहाँ ये लात के हैं भूत मनते बातों से ?....बिलकुल सही कहा

शानदार गजल हुई है  आदरणीय आशतोष मिश्रा जी, दिली बधाई स्वीकार कीजिये  

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