२२१२ १२१ १२२१ २२२१
पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग
महफ़िल को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग
दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग
जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग
आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम
अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग
कश्ती बचा ली, खुद को डुबो कहते थे मल्हार
खुद को बचा के नाव डुबोने लगे हैं लोग
रखनी जो बात याद किसी को नहीं थी याद
जो भूलना नहीं था भुलाने लगे हैं लोग
कुछ हो, मगर वो प्यार कभी हो नहीं सकता है
करके जिसे निगाह चुराने लगे हैं लोग
तस्वीर अब जमाने की बदली है देखो आशु
अपनी खुशी में सब को रुलाने लगे हैं लोग
डॉ आशुतोष मिश्र
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय वीनस जी ..आपके मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद ..आपके बताये अनुरूप मैं कुछ बाते तो समझ गया लेकिन क्रमांक ४ और ५ पे दिए गए सुझाव को और हिंट दे तो शायद बात मुझे समझ आ पाए .... भैबिस्य में भी मुझे ऐसा ही मार्गदर्शन आपसे मिलता रहे ताकी तमाम तकनीकी पक्षों की जानकारी मुझे हो सके ..पुनः हार्दिक धन्यवाद के साथ
बहुत शानादार ग़ज़ल हुई है
एक एक शेर में की गई मेहनत नफासत और नजाकत नुमायाँ है ...
ढेरों दाद क़ुबूल करें ...
कुछ बातें कहने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ
१- आपने जो अरकान बताया है उसे गलत तरीके से तोड़ दिया है सही अरकान इस प्रकार टूटता है -
२२१ / २१२१ / १२२१ / २१२
२ - अंत में लिया गया लघु अतिरिक्त होता है जिसे अरकान लिखना जरूरी नहीं है
३ - आपने अंत के २१२ को २२२ लिख दिया है जबकि ग़ज़ल में इसे आपने २१२ की तर्ज पर ही निभाया है (एक जगह शेर बेबहर है)
४- अतिरिक्त लघु के लिए स्वतंत्र शब्द लेना मिसरे को बेबहर कर देता है
५-अतिरिक्त लघु के लिए दीर्घ शब्द ले कर उसे गिरा कर अतिरिक्त लघु बनाना मिसरे को बेबहर कर देता है (इसके कुछ अपवाद मौजूद हैं)
६ - डुबोने काफ़िया नहीं चल पायेगा .,,, इसे डुबाने होना चाहिए
आदरणीय अखिलेश जी ..हौसला अफजाई के लिए तहे दिल शुक्रीया
तथा कथित अंग्रेजी परस्त / अभिजात्य वर्ग पर अग्नि बाण छोड़ने के लिए बधाई और हिंदी दिवस की शुभकामना आशुतोषजी !
और अंग्रेजी परस्त अभिजात्य वर्ग के लिए--- घर को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग ।
नहीं थी याद // नहीं है याद ।
हो नहीं सकता है // हो नहीं सकता ।
आदरनीय जितेंद्रजी , आदरनीय गिरिराज जी , आदरणीया परवीन जी ..हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद ..अपना स्नेह यूं ही बनाए रखें ...सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय आशुतोष जी , बढ़िया गज़ल हुई है , बधाई
आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम
अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग ----------------- लाजवाब बात कही !!
एक जगह टंकण त्रुटि से क़ाफिया डुबोने लिख गया है , डुबाने की जगह !!
दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग
जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग........वाह! यह शेर बहुत पसंद आया
बहुत बढ़िया गजल , तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय डा. आशुतोष जी
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