1212-- 1122-- 1212-- 22
अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा
परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा
ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है
उभर के आया है आदम में जानवर कैसा
अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की
हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा
सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल
ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा
वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है
जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब समर कैसा
दिनेश कुमार
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय समर साहब। ठीक करता हूं।
देर से रिप्लाई के लिए माफ़ कीजिएगा।
आ. भाई दिनेश जी, अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा'
इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें :-
'परिंदे सहमे हुए हैं है उनको डर कैसा'
'ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है'
इस मिसरे में 'ज़ात' शब्द उचित नहीं लगता. इसकी जगह "बेटी" शब्द ठीक रहेगा ग़ौर करें I
कुछ टंकण त्रुटियाँ देखें :-
अँधेरा
दम-ए-
ज़ह्न
शर्म-ओ-
आँचल
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , आदरणीय दिनेश कुमार जी , बधाई। सादर।
सुनन्दरम।
वाह दिनेश जी वाह बहुत ही सुन्दर रचना
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