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पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये
निर्धन के पाँव से कभी छाले नहीं गये।१।
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दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर
होगी गरीबी दूर के वादे नहीं गये।२।
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जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो
मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये।३।
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कहते हैं इसको आपदा चाहे जरूर वो
शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।
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किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके फूल के डाले नहीं गये।५।
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फिरते हैं श्वेत वस्त्र में बेदाग होके नित
जिनके भी काम दोस्तो काले नहीं गये।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी। बेहतरीन गज़ल।
किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके फूल के डाले नहीं गये।५।
आप ठीक फरमा रहे हैं इन दिनों मैं फेस बुक पर था। लेकिन इस साइट पर मैं यदा-कदा आता था। इस साइट पर बेबाकी से ग़ज़लों पर टीका टिप्पणी की जाती है जिसके कारण कमियां मालूम होती हैं। मुझे ए साइट बहुत प्रिय है
आ. भाई राम अवध जी, सादर अभिवादन । लम्बे समय बाद आपकी उपस्थित से हर्ष हुआ । गजल को मान देने के लिए मन से आभार ।
दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर
होगी गरीबी दूर के वादे नहीं गये
वाह वाह हर सरकार यही वादा करके सत्ता में आती है और फिर पांच साल तक भूल जाती है
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