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फूलों की क्या जरूरत उपवन में आदमी को
भाने लगे हैं काँटे जीवन में आदमी को।१।
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क्या क्या मिला हो चाहे मन्थन में आदमी को
विष की तलब रही पर जीवन में आदमी को।२।
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आजाद जब है रहता उत्पात करता बेढब
लगता है खूब अच्छा बन्धन में आदमी को।३।
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आता बुढ़ापा जब है रूहों की करता चिन्ता
तन की ही भूख केवल यौवन में आदमी को।४।
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कितना हरेगा विष ये चाहे पता नहीं पर
रक्खो भुजंग जैसा चन्दन में आदमी को।५।
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रखता तभी है लेकिन सबसे अधिक समझ वो
नादान सब हैं कहते बचपन में आदमी को।६।
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अहसान लाख तुम पर बेशक हों उसके लेकिन
समझो खुदा कभी मत जीवन में आदमी को।७।
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(४फरवरी२०)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
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