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२१२२/११२२/22 (११२)
.
यूँ वफ़ाओं का सिला मिलता रहा,
ज़ख्म हर बार नया मिलता रहा.
.

एक छोटी सी मुहब्बत का गुनाह,
और इल्ज़ाम बड़ा मिलता रहा.
.

मै तुझे दोस्त मेरा कैसे कहूँ,
तू भी तो बन के ख़ुदा मिलता रहा..
.

कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ मंज़िल का पता मिलता रहा.
.

एक दिन मैंने मनाया जो उसे,
फिर वो बेबात ख़फ़ा मिलता रहा.
.

मेरी तहज़ीब, मिलूँ मै झुककर,
शख्स हर एक बड़ा मिलता रहा.   
.
निलेश "नूर" 
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2014 at 10:49am

आदरणीय नीलेश भाई , तरमीम के बाद सच में और भी अच्छी हो गयी है ग़ज़ल , बहोत खूब , आदरणीय बधाइयाँ स्वीकार करें |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 5, 2014 at 9:31am

नूर तू  है तो गजल बानूर है

तु नही तो तो जहाँ  बेनूर है

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 4, 2014 at 11:23pm
" यूँ वफ़ाओं का सिला मिलता रहा,
ज़ख्म हर बार नया मिलता रहा ॥ "
बहुत खूब , यही नहीं , सभी छे बहुत अच्छे हैं।
आदरणीय नीलेश शेवगांवकर नूर जी , बधाई
Comment by भुवन निस्तेज on September 4, 2014 at 10:58pm

वाह नूर साहब क्यानूर पाया है आपने, तहे दिल से दाद कबूल करें....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 4, 2014 at 5:41pm

एक और बदलाव 
.

मेरी तहज़ीब, मिला मै झुककर,
हर कोई मुझसे बड़ा मिलता रहा.     ..यूँ पढ़िए और बताइये कि कौनसा बेहतर है :)

 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 4, 2014 at 5:21pm

शुक्रिया आ. डॉ साहब ..एक छोटी से तरमीम के साथ पढ़िए 
.
एक दिन मैंने मनाया था उसे, को 
एक दिन मैंने मनाया जो  उसे .... कर दिया है 
सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 4, 2014 at 5:18pm

एक छोटी सी मुहब्बत का गुनाह,
और इल्ज़ाम बड़ा मिलता रहा.,,,,,lलाजबाब 

कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ़ मंज़िल का पता मिलता रहा...अनंत की यात्रा पर पथिक 

एक दिन मैंने मनाया था उसे,
फिर वो बेबात ख़फ़ा मिलता रहा....ऐसा कई बार मैंने महसूस किया था 

आदरणीय नूर जी इस शानदार ग़ज़ल पहर हार्दिक बधाई 

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