For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

    अकस्मात मीनू के जीवन में कैसी दुविधा आन पड़ी????जिन्दगी में अजीब सा सन्नाटा छा गया.मीनू ने जेठ-जिठानी के कहने पर ही उनकी झोली में खुशियाँ डालने के लिए यह कदम उठाया था लेकिन...पहले से इस तरह का अंदेशा भी होता तो शायद....चंद दिनों पूर्व जिन ख्यावों में डूबी हुई थी,वो आज दिवास्वप्न सा लग रहा था....

      तेरे पर्दापर्ण की खबर सुन किलकारी सुनने को व्याकुल थे.....तब तेरे अस्तित्व से वो अपरिचित थे तो जिठानी जी की दुःख वेदना आनन्द में अवतरित हो गई थी लेकिन लिंग परीक्षण दौरान तेरी पहचान सामने आते ही दोनों के चेहरे मुरझा गये.जिठानी जी की ममता तो जाग उठती....लेकिन जेठ जी अपनी बात पर अडिग रहे.उनके फैसले ने मीनू को मंझधार में छोड़ दिया....

    हताश हो...मीनू भाव शून्य चेहरे से अपने भीतर पनपती जिन्दगी की सांसों को शांत करने का निर्णय ले,अस्पताल के अंदर दाखिल हुई.भीतर ही भीतर हिचकियाँ समेटती लेकिन आँखों में नदियाँ उमड़ने लगती.उसके अस्तित्व मिटने के भान से असीम वेदना से कराह उठी....अनसूखे अंतर्मन की बैचेनी समन्दर के ज्वार-भाटे की तरह उफनती-डूबती...दर्द को अंदर समेटते हुए निढाल सी ओपरेशन टेबिल पर पसर गई.....

     तभी जडवत.हुए शरीर में फड़फड़ाहट हुई ,मेरे अंश को मुझसे अलग करने का उपक्रम....मैं कैसी माँ हू....अपने ही अंश को अपने हाथों में लेना तो दूर..उसे देख भी नही पाऊँगी....इसी अनुभव में मीनू का दिल दहल उठा..दिलोदिमाग के झंझावत..से अपने को मजबूत करती हुई,संकल्प लेती हुई एक पल को सोचने लगती...अगर तू आ भी गई..तो वो सारी सुख-सुबिधायें ना दे पाऊँगी..जिनकी तू हकदार हैं.मन ममत्व से भर गया....जैसे दो पल रहे हैं वैसे तीसरा..भी सही...

       लेकिन घर कीं स्थिति का भान होते ही क्षणिक भर में ही किया संकल्प सूखे पत्ते की तरह त्रण- त्रण होकर छितर-बितर गया....सपनों की, विचारों की लड़ियाँ टूटकर बिखर गई....क्या करती????तेरी हत्या सिर मत्थे मढ़ रही थी...या मढी जा रही थी....एक बेटी  कितने नाजों से पल रही और दूसरी इस तरह......

हाथ फेरते हुए जैसे आखिरी बार सहलाते......हुए....मीनू अंदर से तडप उठी....मेरी बच्ची मुझे माफ़......कर देना.लाख मिन्नते करने पर भी तुझे अपनाने वाले चिकने घड़े से बन गये....की गई खुशामदे....पानी की बूंदों की तरह...बह गई..अंतर्विद्रोह आंसू के रूप में फूट पड़ा.इसी अन्तर्द्वन्द में कब अचेत हो गई ,पता ही नही चला...

       होश आया तो जेठानी जी हाथ थामे हुए.....सांत्वना देते...शायद कुछ कहने को खुला मुंह अधखुला... रह जाता..मन ही मन बुदबुदाकर रह जाती...कही ना कही मीनू की इस हालत का कसूरवार खुद को ठहरा रही थी.शायद....अपने फैसले पर पश्चाताप...भी हो रहा हो..कि अपने आंगन में बच्चे की किलकारियां सुनना थी,फिर वो बेटा होता या बेटी....माँ शब्द की गूँज से कानो में मिठास घुलती....पर अब....

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 640

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Mahendra Kumar on June 26, 2018 at 10:42am

अच्छी लघुकथा है आदरणीया बबिता जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए “,,,,,” इन चिह्नों का लघुकथा में अनावश्यक एवं अतिशय प्रयोग है। देखिएगा। सादर। 

Comment by Samar kabeer on June 25, 2018 at 10:34pm

मुहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,लघुकथा का प्रयास अच्छा है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

जनाब तेजवीर सिंह जी की बातों का संज्ञान लें ।

एक निवेदन ये था कि रचना के टाइटिल के साथ रचना की विधा भी लिख दिया करें ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 25, 2018 at 5:47pm

आदरणीया बबीता जी बहुत संवेदनशील विषय को उभारा है अपने लघु कथा के माध्यम से...हार्दिक बधाई

Comment by Sushil Sarna on June 25, 2018 at 2:32pm

आदरणीया जी सृजन भाव पूर्ण है लेकिन शाब्दिक त्रुटियों के कारण भाव अपने पूर्ण प्रवाह से पाठक को प्रभावित नहीं कर पाते। वैसे इस प्रयास हेतु हार्दिक बधाई।

Comment by babitagupta on June 25, 2018 at 1:35pm

आदरणीय तेजवीर सर जी,नमस्कार,धन्यवाद गलतियों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए,जल्दी पोस्ट करने के चक्कर में चेक नही किया,अभी सुधर करके पोस्ट करती हूँ.

Comment by TEJ VEER SINGH on June 25, 2018 at 12:50pm

आदरणीय बबिता जी,आपकी लघुकथा के भाव बेहतरीन हैं लेकिन टंकण और वर्तनी की अशुद्धियों ने लघुकथा का मजा ही बिगाड़ दिया। कृपया इनको शुद्ध कीजिये। सादर ।

Comment by babitagupta on June 25, 2018 at 5:49am

आदरणीया नीलम दी, नमस्कार! हार्दिक आभार. 

Comment by Neelam Upadhyaya on June 24, 2018 at 4:28pm

आदरणीया बबिता गुप्ता जी, नमस्कार। समाज की कैसी विडम्बना है कि जो कन्या भ्रूण बड़ा होकर पुरुष को संसार में लाता है, उसी कन्या भ्रूण को पुरुष संसार में आने नहीं देना चाहता। धिक्कार है ऐसे समाज को। अच्छी लघुकथा हुई है। बधाई।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेंद्र जी, ग़ज़ल की बधाई स्वीकार कीजिए"
42 minutes ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"खुशबू सी उसकी लाई हवा याद आ गया, बन के वो शख़्स बाद-ए-सबा याद आ गया। वो शोख़ सी निगाहें औ'…"
46 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
2 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
2 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
9 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
9 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
20 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
Thursday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service