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नाराज़गी है कैसी भला ज़िन्दगी के  साथ - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212
-
नाराज़गी है कैसी भला ज़िन्दगी के  साथ.
रहते हैं ग़म हमेशा ही यारों खुशी के साथ
-

नाज़-ओ-अदा के साथ कभी बे-रुख़ी के साथ.
दिल में उतर  गया वो बड़ी सादगी के साथ

-
माना कि लोग जीते हैं हर पल खुशी के साथ.
शामिल है जिंदगी में मगर ग़म सभी के साथ

-
आएगा मुश्किलों में भी जीने का फ़न तुझे.
कूछ दिन गुज़ार ले तू मेरी जिंदगी के साथ
-
ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में.
यूँ ही नहीं है  प्यार हमें   शायरी के साथ 
-
अच्छी तरह से आपने जाना नहीं जिसे.
यारी कभी न कीजिये उस अजनबी के साथ
-
मुश्किल में कैसे जीते हैं यह उनसे पूछिये.
गुज़रा है जिनका वक़्त सदा मुफलिसी के साथ
-
उसपे  ना  एतबार   कभी  कीजिए  " रज़ा .
धोका किया है जिसने हर एक आदमी के साथ
....
मौलिक एवं अप्रकाशित

 

 

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Comment by SALIM RAZA REWA on November 12, 2017 at 10:55am
डॉ. आशुतोष जी, आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया शुक्रिया,
Comment by SALIM RAZA REWA on November 12, 2017 at 10:55am
बृजेश जी, आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया, महब्बत सलामत रहे
Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 11, 2017 at 2:37pm

मशविरा देती हुयी सार्थक सन्देश और अनुभवों की दास्ताँ समेटे इस बेहतरीन रचना पर ढेर सारी बधाई प्रेषित है आदरणीय सादर
ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में.
यूँ ही नहीं है प्यार मुझे शायरी के साथ ...यह शेर बिशेष रूप से पसंद आया

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 10, 2017 at 11:59am
क्या ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
Comment by SALIM RAZA REWA on November 9, 2017 at 7:37pm
आली जनाब समर कबीर साहब,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफज़ाई के लिए दिली शुक्रिया, आपके मशविरे के मुताबिक़ तब्दीली कर दी जाएगी महब्बत सलामत रहे.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 9, 2017 at 7:37pm
आली जनाब तसदीक़ साहब,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफज़ाई के लिए दिली शुक्रिया, आपके मशविरे के मुताबिक़ तब्दीली कर दी जाएगी महब्बत सलामत रहे.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 9, 2017 at 7:34pm
आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब,
ग़ज़ल पर आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
Comment by Samar kabeer on November 9, 2017 at 5:34pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
5वें शैर में शुतरगुर्बा है, सानी मिसरे में 'मुझे' को "हमें" कर लें,ऐब निकल जाएगा ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on November 9, 2017 at 12:50pm
जनाब सलीम साहिब ,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ।शेर 3 उला मिसरे में "माना की" की जगह "माना कि "
कर लीजियेगा
Comment by TEJ VEER SINGH on November 9, 2017 at 11:16am

हार्दिक आभार आदरणीय सलीम राज़ा रेवा जी।बेहतरीन गज़ल।

उसपे  ना  एतबार   कभी  कीजिए  " रज़ा .
धोका किया है जिसने हर एक आदमी के साथ

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