“यार बड़ी दिक्कत है आजकल.”
“क्यों क्या हुआ.”
“रोज़ धर्म और देश भक्ति को लेकर बवाल हुआ करता है.”
“जब कुछ करने को न हो तब ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें टाइम पास का अच्छा साधन होती हैं.”
“तुम्हारे कहने का मतलब जो कुछ भी आजकल हो रहा, सब टाइम पास है?”
“बिलकुल.”
“परसों जो लड़कों में मारपीट हुई, पुलिस ने लाठीचार्ज किया, मीडिया में बवाल मचा हुआ है, सब टाइम पास है?”
“बिलकुल है भाई. इसके अलावा इस बवाल का मतलब क्या है? तुम्हें कुछ सार्थकता दिखती है? नारे क्या देश…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 9, 2019 at 11:25pm — 8 Comments
धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज
चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज
मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल
नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय का नाद
अधरों पर अंकित हुआ, अधरों का अनुनाद
तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 17, 2014 at 9:45pm — 26 Comments
मैंने हिटलर को नहीं देखा
तुम्हें देखा है
तुम भी विस्तारवादी हो
अपनी सत्ता बचाए रखना चाहते हो
किसी भी कीमत पर
तुम बहुत अच्छे आदमी हो
नहीं, शायद थे
यह ‘है’ और ‘थे’ बहुत कष्ट देता है मुझे
अक्सर समझ नहीं पाता
कब ‘है’, ‘थे’ में बदल दिया जाना चाहिए
तुम अच्छे से कब कमतर हो गए
पता नहीं चला
एक दिन सुबह
पेड़ से आम टूटकर नीचे गिरे थे
तुम्हें अच्छा नहीं लगा
पतझड़ में…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 6, 2014 at 1:30pm — 46 Comments
कविता -
शरीर में चुभे हुए काँटे
जो शरीर को छलनी करते हैं;
वह टीस
जो दिल की धड़कन
साँसों को निस्तेज करती है
यह तुम्हें आनंद नहीं देगी
प्रेम का कोरा आलाप नहीं यह
वासना में लिपटे शब्दों का राग नहीं
छद्म चिंताओं का दस्तावेज़ नहीं
इसे सुनकर झूमोगे नहीं
यह तुम्हें गुदगुदाएगी नहीं
सीधे चोट करेगी दिमाग पर
तड़प उठोगे
यही उद्देश्य है कविता का
रात के स्याह-ताल…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on April 16, 2014 at 10:09pm — 45 Comments
निःश्वसन
उच्छ्वसन
सब देह-कर्म, यह अवगुंठन
मोह-पाश के बंधन तुम
बस तुम! तुम ही तुम
व्यक्त हाव
अव्यक्त भाव
नेह-क्लेश, अभाव-विभाव
रूप-गंध के कारण तुम
बस तुम! तुम ही तुम
सम्मुख हो जब
विमुख हुए, तब
मनस-पटल की चेतनता सब
अनुभूति-रेख में केवल तुम
बस तुम! तुम ही तुम
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on March 23, 2014 at 11:30am — 30 Comments
2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)
वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी
सोच सारी लिजलिजी होने लगी
भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे
भावनाओं में कमी होने लगी
चाहना में बजबजाती देह भर
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी
धर्म के जब मायने बदले गए
नीति सारी आसुरी होने लगी
सूखती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 28, 2014 at 10:31pm — 54 Comments
सामने से गुज़र रही है
भीड़
हाथों में हैं झंडे
केसरिया
हरे
शोर बढ़ता जा रहा है
झंडे
हथियार बन गए हैं
जमीन लाल हो रही है
यह अजीब बात है
झंडे चाहे जिस रंग के हों
जमीन लाल ही होती है
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on February 21, 2014 at 8:00pm — 12 Comments
पत्नी जिस बस से आ रही थीं, उसे घर के पास से ही होकर गुजरना था. रात का समय था. हल्की ठण्ड थी. मैंने हाफ़ स्वेटर पहना और टहलता हुआ उस मोड़ तक पहुँच गया, जहाँ पत्नी को उतरना था. बस के वहाँ पहुँचने में अभी कुछ समय शेष था. ठंडी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी इसलिए उससे बचने की खातिर मैं फुटपाथ के किनारे बनी दुकान के चबूतरे पर जा बैठा.
कुछ लोग वहीँ जमीन पर सो रहे थे. पास का व्यक्ति चादर ओढे, अभी जग रहा था.
मैंने उत्सुकता वश पूछा 'भैया, यहीं रोज सोते हो?’
'हाँ', वह…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 18, 2014 at 12:00am — 14 Comments
खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:55pm — 25 Comments
दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 7:28am — 24 Comments
क्षितिज
दूर छोर पर
एकाकार होते
सिन्दूरी आसमान
और हरी धरती
उस रेखा का कोई रंग नहीं
एक स्थिति
खाली बाल्टी
और उसमें
नल से
बूँद-बूँद टपकता पानी
मैं देख रहा हूँ
किंकर्तव्यविमूढ़
संघर्ष
तपते दिनों के बाद
सर्द हवाओं का मौसम
कब से बारिश नहीं हुई
बहुत से सपने सूख…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on January 17, 2014 at 7:29am — 22 Comments
सुन्दर दृश्य उत्पन्न करती हैं
एक साथ जलती ढेरों मोमबत्तियाँ
भीड़ से घिरी उनकी रोशनी
कसमसाकर दम तोड़ देती है
वातावरण में घुले नारे
खंडहर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह
कम्पन पैदा करते हैं
सर्द हवाएँ
काँटों की तरह चुभती हैं
अँधेरा गहराता जा रहा है
___
बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 1:00pm — 34 Comments
इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी
ओस की बुँदकी चमकी
नए साल की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी
रही ठिठुरती
सांकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में
छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी
दर-दर भटक रही
पगडंडी
रेत-कणों में
राह ढूँढती
बरगद की
हर झुकी डाल भी
जाने किसकी
बाँट…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on December 27, 2013 at 9:30am — 24 Comments
चोटिल अनुभूतियाँ
कुंठित संवेदनाएँ
अवगुंठित भाव
बिन्दु-बिन्दु विलयित
संलीन
अवचेतन की रहस्यमयी पर्तों में
पर
इस सांद्रता प्रजनित गहनतम तिमिर में भी
है प्रकाश बिंदु-
अंतस के दूरस्थ छोर पर
शून्य से पूर्व
प्रज्ज्वलित है अग्नि
संतप्त स्थानक
चैतन्यता प्रयासरत कि
अद्रवित रहें अभिव्यक्तियाँ
फिर भी
अक्षरियों की हलचल से प्रस्फुटित
क्लिष्ट, जटिल शब्दाकृतियों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on December 2, 2013 at 9:00am — 37 Comments
गाँव-नगर में हुई मुनादी
हाकिम आज निवाले देंगे
सूख गयी आशा की खेती
घर-आँगन अँधियारा बोती
छप्पर से भी फूस झर रहा
द्वार खड़ी कुतिया है रोती
जिन आँखों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on November 30, 2013 at 8:40am — 43 Comments
पुस्तक रूप में छपना किसी भी रचनाकार का स्वप्न होता है. आज के युग में जब योग्यता पर पैसे को तरजीह दी जाती हो, एक सामान्य व्यक्ति के लिए अपनी रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाना अत्यंत दुष्कर कार्य है, वह भी तब विशेष रूप से, जबकि आपका नाम साहित्य के क्षेत्र में नया हो. ओबीओ से जुड़े हम १५ रचनाकारों के लिए इस स्वप्न के सच होने का अवसर आया जब अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबद ने साझा संकलन की एक श्रंखला प्रारम्भ की. ‘परों को खोलते हुए-१’ के रूप में हम १५ रचनाकारों की अतुकांत…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on November 25, 2013 at 11:23pm — 34 Comments
ढूँढती है एक चिड़िया
इस शहर में नीड़ अपना
आज उजड़ा वह बसेरा
जिसमें बुनती रोज सपना
छाँव बरगद सी नहीं है
थम गया है पात पीपल
ताल, पोखर, कूप सूना
अब नहीं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on November 23, 2013 at 6:28am — 35 Comments
इस नदिया की धारा में
कितने टापू हैं उभरे
कहीं हुई उथली-छिछली
तो कहीं भँवर हैं गहरे
पंख नदारद मोरों के
तितली का है रंग उड़ा
भौंरा भी अब ये सोचे…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on November 5, 2013 at 11:30pm — 20 Comments
दीप हमने सजाये घर-द्वार हैं
फिर भी संचित अँधेरा होता रहा
मन अयोध्या बना व्याकुल सा सदा
तन ये लंका हुआ बस छलता रहा
राम को तो सदा ही वनवास है
मंथरा की कुटिलता जीती जहाँ
भाव दशरथ दिखे बस लाचार से
खेल आसक्ति ऐसी खेले यहाँ
लोभ धर रूप कितने सम्मुख खड़ा
दंभ रावण के जैसा बढ़ता रहा
धुंध यूँ वासना की छाने लगी
मन में भ्रम इक पला, सीता को ठगा
नेह के बंध बिखरे, कमजोर हैं
सब्र शबरी का…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 28, 2013 at 9:30pm — 26 Comments
मैं लेटा हूँ घास पर / सूखी भूरी घास
जिसके होने का एहसास भर है
जमीन गरम है
लेकिन लेटा हूँ
धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी
तपन की अनुभूति
उड़े जा रहे हैं
पंछी एक ओर
शरीर के नीचे
रेंगती चींटियाँ
पास ही खेलते कुछ बच्चे
कुछ लोग भी
इधर-उधर छितरे, घूमते-बैठे
मैं निरपेक्ष
लेटा तकता आसमान
कि कभी टूटकर गिरेगा
और धरती का
रंग बदल जाएगा
…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 24, 2013 at 8:00pm — 29 Comments
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