बुआ का रिबन
बुआ बांधे रिबन गुलाबी
लगता वही अकल की चाबी
रिबन बुआ ने बांधी काली
करती बालों की रखवाली
रिबन बुआ की जब नारंगी
हाथ में रहती मोटी कंघी
रिबन बुआ जब बांधे नीली
आसमान सी हो चमकीली
हरी लाल हो रिबन बुआ की
ट्रैफिक सिग्नल जैसी झांकी
बुआ रिबन जो बांधे पीली
याद आती है दाल पतीली
रिबन सफेद बुआ ने डाले
उड़े कबूतर दो…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on June 24, 2024 at 10:43pm — 2 Comments
कहूं तो केवल कहूं मैं इतना कि कुछ तो परदा नशीन रखना।
कदम अना के हजार कुचले,
न आस रखते हैं आसमां की,
ज़मीन पे हैं कदम हमारे,
मगर खिसकने का डर सताए, पगों तले भी ज़मीन रखना।
उदास पल को उदास रखना,
छिपी तहों में खुशी दबी है,
न झूठी कोई तसल्ली लाना,
हो लाख कड़वी हकीकतें पर, न ख़्वाब कोई हसीन रखना।
दसों दिशाएं विलाप में हैं,
बिसात बातों की बिछ गई है,
बुनाई लफ्जों की हो रही है,
हमारे आधे में तय तुम्हारा रखा है आधा यकीन…
Added by मिथिलेश वामनकर on May 29, 2024 at 11:52pm — 8 Comments
याद कर इतना न दिल कमजोर करना
आऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।
मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरी
कह दूं मैं, बस रोक दे वो शोर करना।
पंक्तियों के बीच पढ़ना आ गया है
भूल बैठा हूं मैं अब इग्नोर करना।
ये नजर अब आपसे हटती नहीं है
बंद करिए तो नयन चितचोर करना।
याद बचपन की न जाती है जेहन से
अब अखरता खुद को ही मेच्योर करना।
आज को जैसे वो जीना भूल बैठे
बस उन्हें धुन अपना कल सेक्योर…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on April 13, 2024 at 10:33pm — 7 Comments
2122 - 2122 - 2122 - 212
ये उड़ानों का भला फिर हौसला कैसा हुआ।
आपने जो भी दिया हर पंख था कतरा हुआ।
देखिए विज्ञापनों का दौर ऐसा आ गया
काम होने से जरूरी है दिखे होता हुआ।
जब रपट आई तो सारे एक स्वर में कह गए
कुछ हुआ हो ना हुआ हो आंकड़ा अच्छा हुआ।
चूर कर दी शख्सियत यूं जख्म भी दिखता नहीं
ये तरीका चोट करने का बहुत संभला हुआ।
दे रहें हैं आप लेकिन मिल न पाया आज तक
आपका सम्मान भी लगता है बस मिलता…
Added by मिथिलेश वामनकर on March 30, 2022 at 6:11pm — 11 Comments
न गुनगुनाना न बोल पड़ना,
अभी अधर पर सघन हैं पहरे।
अगर तिमिर को सुबह कहोगे
तभी सुरक्षित सदा रहोगे
अभी व्यथा को व्यथा न कहना
कथा कहो या कि मौन रहना
न बात कहना निशब्द रहना
सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।
न तार छेड़ो सितार के तुम
बनो न भागी विचार के तुम
हवा बहे जिस दिशा बहो तुम
स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।
यही समय की पुकार सुन लो
सवाल सारे दबा दो गहरे।
मशाल रखना गुनाह घोषित
वहाँ करें कौन दीप पोषित।
प्रकाश की हर…
Added by मिथिलेश वामनकर on March 4, 2019 at 3:50am — 13 Comments
221—2121—1221—212
कविता में सम्प्रदाय लिखा-सा मिला जहाँ
शब्दों के साथ जल गई सम्पूर्ण बस्तियाँ
धीरे से छंट रहा था कुहासा अनिष्ट का
कुछ शिष्टजन ही लेके चले आये बदलियाँ
शासक, प्रशासकों से ये संचार-तंत्र तक
घूमे असत्य भी अ-पराजित कहाँ कहाँ
ये फलविहीन वृक्ष लगाने से क्या मिला ?
दशकों से गिड़गिड़ाती, ये कहती हैं नीतियाँ
अँकुए में सिर उठाने का दृढ़ प्रण है बीज का
आती हैं तीव्र वेग से, तो…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2017 at 6:30pm — 9 Comments
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
एक कृषक कल तक थे लेकिन अब शहरी मजदूर बने।
सृजक जगत के कहलाते थे, वो कैसे मजबूर बने?
वे बतलाते जीवन गाथा, पीड़ा से घिर जाता हूँ।
कितने दुख संत्रास सहे हैं, ये लिख दूँ, फिर आता हूँ।
कर्तव्यों के नव बंधन को तोड़ तुम्हारे पास प्रिये,
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
कौन दिशा में कितने पग अब कैसे-कैसे है चलना?
अर्थजगत के नए मंच पर, कैसे या कितना…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2017 at 2:00pm — 23 Comments
गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments
उफ़! करो कोई न हलचल,
शांत सोया है यहाँ जल ।
नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।
लुप्त सी है चेतना, दोनों दृगों पर है पलस्तर।
वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?
क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।
कौन, क्या, कैसे करे? जब,
हो स्वयं निरुपाय-कौशल।
पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।
विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।
सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2017 at 3:00pm — 27 Comments
भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।
सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।
व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।
भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।
सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?
मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।
प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।
शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।
भेदभाव का तम चीरे जो, दीप जलाओ अंतस में…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2017 at 10:30pm — 25 Comments
पिया खड़े है सामने,
घूंघट के पट खोल।
चुप रहने से हो सका, आखिर किसका लाभ,
आज समय की मांग है, नैनो में रक्ताभ।
आधी ताकत लोक की,
अपनी पीड़ा बोल।
पौरुषता का वो करें, अहम् हजारों बार,
लेकिन तेरे बिन सखी, बिलकुल है लाचार।
वो आयेंगे लौटकर,
सारी धरती गोल।
जननी से बढ़कर भला, ताकत किसके पास,
आज संजोना है तुम्हें, बस अपना विश्वास।
हिम्मत से मिटना सहज,
जीवन का ये झोल।
अपने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 10:00am — 31 Comments
नई नई कुछ परिभाषाएँ, राष्ट्र-प्रेम की आओ गढ़ लें।
लेकिन आगे कैसे बढ़ लें?
मातृभूमि के प्रति श्रद्धा हो, यह परिभाषा है अतीत की।
महिमामंडन, मौन समर्थन परिभाषा है नई रीत की।
अनुचित, दूषित जैसे भी हों निर्णय, बस सम्मान करें सब।
हम भारत के धीर-पुरुष हैं, कष्ट सहें, यशगान करें सब।
चित्र वीभत्स मिले जो कोई,
स्वर्ण फ्रेम उस पर भी मढ़ लें।
मर्यादा के पृष्ट खोलकर, अंकित करते भ्रम का लेखा।
राष्ट्रवाद का कोरा डंका, निज…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2016 at 11:30pm — 23 Comments
वेदना अभिशप्त होकर,
जल रहें हैं गीत देखो।
विश्व का परिदृश्य बदला और मानवता पराजित,
इस धरा पर खींच रेखा, मनु स्वयं होता विभाजित ।
इस विषय पर मौन रहना, क्या न अनुचित आचरण यह ?
छोड़ना होगा समय से अब सुरक्षित आवरण यह।
कुछ कहो, कुछ तो कहो,
मत चुप रहो यूँ मीत देखो।
वेदना अभिशप्त होकर,
जल रहें हैं गीत देखो।
मन अगर पाषाण है, सम्वेदना के स्वर जगा दो।
उठ रही मष्तिष्क में दुर्भावनायें, सब भगा…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2016 at 11:00am — 18 Comments
2122 – 1122 – 1122 - 22
केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है
या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है
इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में
जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है
ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम
जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है
मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे
तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है
पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा
तब कहीं जाके हृदय में भी…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 26, 2016 at 8:30pm — 40 Comments
बदले-बदले लोग
============
बहुत दिन हो गए,
हमने नहीं की फिल्म की बातें।
न गपशप की मसालेदार,
कुछ हीरो-हिरोइन की।
न चर्चा,
किस सिनेमा में लगी है कौन सी पिक्चर?
पड़ोसी ने नया क्या-क्या खरीदा?
ये खबर भी चुप।
सुनाई अब न देती साड़ियों के शेड की चर्चा।
कहाँ है सेल, कितनी छूट?
ये बातें नहीं होती।
क्रिकेटी भूत वाले यार ना स्कोर पूछे हैं।
न कोई जश्न जीते का,
न कोई…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2016 at 3:00pm — 18 Comments
क्या है जीवन, आज समझने मैं आया हूँ
कठिन समय का दर्द सदा ही पाया मैंने
बस आशा का गीत हमेशा गाया मैंने
जब तुम बनते धूप, बना तब मैं साया हूँ
जन्म काल से सत्य एक जो जुड़ा हुआ है
मानव की उफ़ जात बनी ये आदत कैसी
सदा ज्ञात यह बात मगर क्यों भूले जैसी
वहीँ शून्य आकाश एक पथ मुड़ा हुआ है
आया है जो आज उसे निश्चित है जाना
इस माटी का मोह, रहे क्यों साँझ सकारे?
इस माटी का रूप बदल जायेगा प्यारे
फिर भी रे इंसान…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on March 22, 2016 at 10:44pm — 31 Comments
2122—1122—1122—22 |
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दिल तो है पास, तेरा सिर्फ़ है आना बाक़ी |
और ये बात जमाने से छुपाना बाक़ी |
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ज़िंदगी इतनी-सी मुहलत की गुज़ारिश सुन लो… |
Added by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2016 at 8:41pm — 30 Comments
2122—1122—1122—22
मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की
रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की
सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की
एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने
बात करता है जमाने से वही नेचर की
अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से
बात होंठों पे मगर सिर्फ़ वही बाबर की
आसमां का भी कहीं अंत भला होता है
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की
ये सहर क्या है, सबा क्या है,…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2015 at 1:30am — 30 Comments
22---22---22---22---22---2 |
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दुख देने को आये जो हालात, सुनो |
अपना दिल भी पहले से तैनात सुनो |
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दे देना फिर तुम भी उत्तर, सुन लूँगा… |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 24, 2015 at 11:25am — 22 Comments
221-2121-1221-212 |
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चैनो-सुकून, दिल का मज़ा कौन ले गया |
दामन की वो तमाम दुआ, कौन ले गया? |
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ताउम्र समंदर से मेरी दुश्मनी… |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 18, 2015 at 10:12pm — 10 Comments
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