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ग़ज़ल :: इक परिन्दा पागल-सा (मिथिलेश वामनकर)

212 / 1222 / 212 / 1222

 

वाकिया हुआ  कैसे   बाद   ये  जमानों  के

मस्ज़िदी भजन  गाये  मंदिरी अजानों के

 

हौसला  चराग़ों  का  यूं चला  तबीयत  से

ढंग ही बदल देगा  रात  की   दुकानों   के

 

यूं   बुलंदियों  में  है   तीरगी   बराबर   से

बू-ए-खूं  है आँगन में  संदली  मकानों   के

 

इक परिन्दा पागल-सा, बैठ  के  मुंडेरों  पे

मायने   बताता   है,   बारहा   उड़ानों   के

 

यूं तसल्लियाँ मेरी आज भी  मुनासिब  है

इम्तहाँ वो क्या लेंगे  मेरे  इत्मिनानों   के

 

क्यूं  कहूं  कसीदा मैं,  शान में  समंदर की 

गीत  गुनगुनाता  हूँ   बूँद  की  उठानों  के

 

दोसती  दिखाते  है    दुश्मनी   निभाते  है

हम  हुनर  बताते  है  आज  के सयानों  के

 

क़र्ज़ की तिजारत में  आसरा बचा लो तुम 

यार  खूब  देखे   है     हस्र  आशियानों  के

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अशतर:

अर्कान –   फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन / फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन

वज़्न –    212 / 1222 / 212 / 1222

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 18, 2015 at 4:59am

आदरणीया दीदी प्रतिक्रिया में विलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूँ.

आपकी स्नेह पूर्ण सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया से सदैव मनोबल बढ़ता है. आपका हार्दिक आभार ... नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 24, 2015 at 7:26pm

हौसला  चराग़ों  का  यूं चला  तबीयत  से

ढंग ही बदल देगा  रात  की   दुकानों   के-----बहुत सुन्दर शेर 

इक परिन्दा पागल-सा, बैठ  के  मुंडेरों  पे

मायने   बताता   है,   बारहा   उड़ानों   के------क्या बात 

दोसती  दिखाते  है    दुश्मनी   निभाते  है

हम  हुनर  बताते  है  आज  के सयानों  के-----सच्चाई बयां करता हुआ शेर 

ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी पढने में लेट हो गई किसी कारण वश कई दिन से नेट पर नहीं आई थी ,बहुत बहुत बधाई आपको मिथिलेश जी 

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 1:40am

आपका सुझाव जस का तस स्वीकार कर रहा हूँ। सही कहूँ तो पूरा शेर उड़ा रहा हूँ खुर्शीद सर।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 1:17am
ये तो कमाल का शेर कह दिया गुरुदेव। नमन।
Comment by khursheed khairadi on February 24, 2015 at 1:01am

आदरणीय मिथिलेश जी आलोच्य शेर में इस्लाह की कोशिश की है--हालाँकि इस योग्य नहीं हूं 

क्यों बनूं क़सीदागो शान में समुंदर की 

गीत गुनगुनाता हूं बूँद के उठानों के 

शायद कुछ कुछ आपके भावों तक पहुँच पाया हूं |सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 12:24am

आदरणीय सौरभ सर,हार्दिक आभार (भाई संबोधन कॉपी पेस्ट की चूक है सर)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 24, 2015 at 12:11am

हार्दिक धन्यवाद आ. मिथिलेशभाई..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 12:07am

आदरणीय दिनेश भाई  भाई जी ग़ज़ल पर आपकी प्रशंसा पाकर दिल झूम जाता है. हार्दिक आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 12:05am

आदरणीया परी जी रचना पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 12:04am

आदरणीय खुर्शीद सर, ग़ज़ल पर आपकी दाद पाकर धन्य हुआ, हार्दिक आभार 

हम ग़ज़ल सुनाते हैं बूँद की उठानों की ---- मिसरे पर आपने ध्यान आकर्षित किया है, इस मिसरे का वही अर्थ है जो आप समझ रहे है, इसमें सुधार की गुंजाईश तो है, कुछ बेहतर हो सके तो आपके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा है. सादर 

कृपया ध्यान दे...

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