तुम मुझे मिल जाओगे ...
ये सृष्टि
इतनी बड़ी भी नहीं
कि तुम मेरी दृष्टि की
दृश्यता से
ओझल हो जाओ
असंख्य मकरंदों की महक भी
तुम्हारी महक को
नहीं मिटा सकती
तुम मेरी स्मृति की
गहन कंदरा में
किसी कस्तूरी गन्ध से समाये हो
सच कहती हूँ
तुम मेरे रूहानी अहसासों की
हदों को तोड़ न पाओगे
क्यूँ असंभव को
संभव बनाने का
प्रयास करते हो
अपने अस्तित्व का
मेरे अस्तित्व से
इंकार…
Added by Sushil Sarna on September 12, 2016 at 4:58pm — 4 Comments
रिश्तों को समझ जाएगी ...
न आवाज़ हुई
न किसी ने कुछ महसूस किया
इक जलजला आया
इक सूखा पत्ता
दरख़्त से गिरा
और बेनूर हुआ
इक आदि का
अंत हुआ
सीने में ही घुट गया
किसी अपने के खोने का दर्द
हरी कोपल हँसी
जीवन के इस खेल का
ए दरख़्त
अफ़सोस कैसा ?
नमनाक नज़रों से
दरख़्त
आरम्भ को देखता रहा
गिरते हुए पत्तों में
रिश्तों का अंत
देखता रहा
वो अंश था मेरा
जो इस तन से
टूट…
Added by Sushil Sarna on September 4, 2016 at 1:30pm — 8 Comments
मृत्यु फिर जीत गयी .......
लम्हे यादों के
बढ़ती शब् के साथ
पिघलते रहे
मेरे अहसास
लफ़्ज़ों के पैरहन में
गूंगे बन
सिरहाने रखीं किताब में
पिघलते रहे
दीवारों पर
छाई शून्यता की काई में
ये नज़रें
किसी के बहते लावे के साथ
पिघलती रही
मैं और तुम
का अस्तित्व
पिघलकर
एक हुआ
ज़िस्म केज़िंदाँ में
अनबोले लम्स
पिघलते रहे
ज़िस्म मिटे
साये…
Added by Sushil Sarna on September 3, 2016 at 4:00pm — 12 Comments
तन्हा रह जाता है ....
कल की तरह
ये आज भी गुजर जाएगा
स्मृतियों की कोठरी में
फिर कुछ और पल समेट जाएगा
हर कल के साथ
अपने अस्तित्व की शिला से
अपने अमिट होने का
दम्भ को पुष्ट करता रहेगा
हर कल का सूरज
अस्त्तित्वहीन होकर
किसी कल के गर्भ में
लुप्त हो जाएगा
क्या है जीवन
वो
जो गुजर गया
या वो
जो आज है
या फिर वो
जो आने वाले
काल के गर्भ में
सांसें ले रहा है
हर रोज़
इक मैं जन्म लेता…
Added by Sushil Sarna on September 2, 2016 at 9:05pm — 6 Comments
रिश्तों के सीनों में ......
कितनी सीलन है
रिश्तों की इन क़बाओं में
सिसकियाँ
अपने दर्द के साथ
बेनूर बियाबाँ में
कहकहों के लिबासों में
रक़्स करती हैं
न जाने
कितने समझौतों के पैबंदों से
सांसें अपने तन को सजाये
जीने की
नाकाम कोशिश करती हैं
ये कैसी लहद है
जहां रिश्ते
ज़िस्म के साथ
ज़मीदोज़ होकर भी
धुंआ धुंआ होती ज़िन्दगी के साथ
अपने ज़िन्दा होने का
अहसास…
Added by Sushil Sarna on September 1, 2016 at 9:30pm — 10 Comments
ये तो ख़्वाब हैं ...
शब् के हों
या सहर के हों
सुकूं के हों
या कह्र के हों
ये तो ख़्वाब हैं
ये कभी मरते नहीं
ज़ज़्बातों के दिल हैं ये
ये किसी कफ़स में
कैद नहीं होते
ये नवा हैं (नवा=स्वर)
ये हवा हैं
ये ज़ुल्मों की आतिश से
तबाह नहीं होते
ये हर्फ़ हैं
ये नूर हैं
किसी सनाँ के वार से (सनाँ=भाला)
इन्हें अज़ल नहीं आती
पलकों की ज़िंदाँ में (ज़िंदाँ =कारागार)
ये सांस लेते हैं
ज़िस्म फ़ना होते हैं मगर…
Added by Sushil Sarna on August 20, 2016 at 9:02pm — 8 Comments
इन्सां के लिए ... (क्षणिकाएं)
1 .
एक पत्थर उठा
शैतां के लिए
एक पत्थर उठा
जहां के लिए
एक पत्थर उठा
मकां के लिए
देवता बन
जी उठा
एक पत्थर
इन्सां के लिए
...... ..... ..... .....
२.
मैं आज तक
वो रिक्तता
नहीं नाप सका
जिसमें
कोई माँ
अपने जन्मे को
तन्हा छोड़
ब्रह्मलीन हो जाती है
मन को शून्यता की
क़बा दे जाती है
..... ..... ..... ..... .....
३.
हमने
प्रवाहित कर दी थी…
Added by Sushil Sarna on August 16, 2016 at 2:19pm — 10 Comments
Added by Sushil Sarna on August 15, 2016 at 11:31am — 8 Comments
भ्रम ....
कितनी देर तक
तुम अपने जाने से पहले
मुझे ढाढस बंधाते रहे
मेरी अनुनय विनय को
अपनी मजबूरियों के बोझ से
बार बार दबाते रहे
तुम्हारे दो टूक शब्दों का
मुझपर क्या असर होगा
तुमने एक बार भी न सोचा
बस कह दिया
मुझे जाना होगा
कब आना हो
कह नहीं सकता
मैं अबोध अंजान
क्या करती
सिर हिला दिया
नज़रें झुका ली
अपनी व्यथा
पलकों में छुपा ली
तुम्हारे कठोर शब्दों का…
Added by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 4:30pm — 2 Comments
बहुत डरता है ......
बहुत डरता है
मनुष्य अपने जीवन के
क्षितिज को देखकर
अपनी आकांक्षाओं के
असीमित आकाश में
जीवन के
सूक्ष्म रूप को देख कर
कल्प को अल्प
बनता देखकर
सच ! बहुत डरता है
मुखौटों को जीने से
थक जाता है
संवदनाओं के
आडंबर के बोझ ढोने से
हार जाता है
दुनिया के साथ जीते जीते
डर जाता है
हृदय की गहन कंदराओं में
अपने ही अस्तित्व की
मौन उपस्थिति…
Added by Sushil Sarna on August 9, 2016 at 5:00pm — 8 Comments
ग़ुल अहसासों के ......
क्यों
कोई
अपना
बेवज़ह
दर्द देता है
ख़्वाबों की क़बा से
सांसें चुरा लेता है
ज़िस्म
अजनबी हो जाता है
रूह बेबस हो जाती है
इक तड़प साथ होती है
इक आवाज़
साथ सोती है
कुछ लम्स
रक्स करते हैं
कुछ अक्स
बनते बिगड़ते हैं
शीशे के गुलदानों में
कागज़ी फूलों से रिश्ते
बिना किसी
अहसास की महक के
सालों साल चलते हैं
फिर क्यों
इंसानी अहसासों के रिश्ते
ज़िंदा होते हुए…
Added by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 4:19pm — 6 Comments
कितना अच्छा होता .....
कितना अच्छा लगता है
फर्श पर
चाबी के चलते खिलौने देखकर
एक ही गति
एक ही भाव
न किसी से कोई गिला
न शिकवा
ऐ ख़ुदा
कितना अच्छा होता
ग़र तूने मुझे भी
शून्य अहसासों का
खिलौना बनाया होता
अपना ही ग़म होता
अपनी ही ख़ुशी होती
न लबों से मुस्कराहट जाती
न आँखों में नमी होती
सब अपने होते
हकीकत की ज़मीं न होती
ख़्वाबों का जहां न होता
बस ऐ ख़ुदा
तूने हमें भी वो चाबी अता की होती…
Added by Sushil Sarna on August 2, 2016 at 7:30pm — 24 Comments
इक माँ होती है ....
कितना ऊंचा
घोंसला बनाती है
नयी ज़िन्दगी का
ज़मीं से दूर
घर बनाती है
अपने पंखों से
अपने बच्चों को
हर मौसम के
कहर से बचाती है
न जाने कहाँ कहाँ से लाकर
अपने बच्चों को
दाना खिलाती है
पंख आते हैं
तो उड़ना सिखाती है
नए पंखों को
आसमां अच्छा लगता है
ज़मी से रिश्ता बस
सोने का लगता है
देर होते ही मां
घोंसले पे आती है
नहीं दिखते बच्चे
तो बैचैन हो जाती है
सांझ होते…
Added by Sushil Sarna on August 1, 2016 at 2:27pm — 14 Comments
1.
मैं
मेरा
हमारा
बीत गया
जीवन सारा
साँझ ने पुकारा
लपटों ने संवारा
2.
मैं
तुम
अधूरे
हैं अगर
देह देह की
प्रीत भाल पर
स्नेह चंदन नहीं
3.
हे
राम
तुम्हारा
करवद्ध
अभिनन्दन
प्रभु कृपा करो
हरो हर क्रन्दन
4.
क्या
जीता
क्या हारा
मैं निर्बल
मैं बेसहारा
प्रभु शरण लो
मैं अंश…
Added by Sushil Sarna on July 30, 2016 at 9:00pm — 5 Comments
यादें....
यादें भी
कितनी बेदर्द
हुआ करती हैं
दर्द देने वाले से ही
मिलने की दुआ करती हैं
अश्कों की झड़ी में
हिज्र की वजह
धुंधली हो जाती है
चाहतों के फर्श पर
आडंबर की काई
बिछ जाती है
दर्दीले सावन बरसते रहते हैं
फिसलन भरी काई पर
अश्क भी फिसल जाते हैं
अब सहर भी कुछ नहीं कहती
अब दामन में नमी नहीं रहती
ज़माने के साथ
प्यार के मायने भी
बदल गए हैं
अब प्यार के मायने
नाईट क्लब के अंधेरों में…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2016 at 2:53pm — 4 Comments
दिल के निहाँ ख़ाने में ....
लगता है शायद
उसके घर की कोई खिड़की
खुली रह गयी
आज बादे सबा अपने साथ
एक नमी का अहसास लेकर आयी है
इसमें शब् का मिलन और
सहर की जुदाई है
इक तड़प है, इक तन्हाई है
ऐ खुदा
तूने मुहब्बत भी क्या शै बनाई है
मिलते हैं तो
जहां की खबर नहीं रहती
और होते हैं ज़ुदा
तो खुद की खबर नहीं रहती
छुपाते हैं सबसे
पर कुछ छुप नहीं पाता
लाख कोशिशों के बावज़ूद
आँख में एक कतरा रुक…
Added by Sushil Sarna on July 28, 2016 at 2:00pm — 15 Comments
अधूरे सपने धोती रहीं .....
मैं तो जागी सारी रात
तूने मानी न मेरी बात
कैसी दी है ये सौगात
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं
झूमा सावन में ये मन
हिया में प्यासी रही अग्न
जलता विरह में मधुवन
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं.....
नैना कर बैठे इकरार
कैसे अधर करें इंकार
बैरी कर बैठा तकरार
कि अखियाँ रुक रुक रोती रहीं
अधूरे सपने धोती रहीं
मन के उड़ते रहे विहग…
Added by Sushil Sarna on July 26, 2016 at 9:30pm — 5 Comments
उनकी शाम दे दो ....
आज
सहर में अजीब उजास है
हर शजर पर
समर के मेले हैं
सबा में अजीब सी
मदहोशी है
साँझ के कानों में
तारीक की सरगोशी है
शायद किसी को
मेरी तन्हाई पे
तरस आया है
किसके हैं लम्स
कौन मेरे करीब आया है
मुद्दतों की नमी ने
आज सब्र पाया है
लम्हे रुके से लगते हैं
अब्र झुके झुके लगते हैं
देखो ! तरीक के कन्धों पे
शाम झुकी है
सहर भी कुछ रुकी रुकी है
पसरती सम्तों में
पसरती…
Added by Sushil Sarna on July 25, 2016 at 4:10pm — 4 Comments
नशीली आग़ोश ....
अरसा हुआ तुमसे बिछुड़े हुए
ख़बर ही नहीं
हम किस अंधी डगर पर
चल पड़े
हमारी गुमराही पर तो
कायनात भी खफ़ा लगती है
बाद बिछुड़ने के
मुददतों हम
आईने से नहीं मिले
ख़ुद अपनी शक्ल से भी हम
नाराज़ लगते हैं
तुम्हें क्या खोया
कि अँधेरे हम पर
महरबान हो गए
यादों के अब्र
चश्मे-साहिल के
कद्रदान गए
दरमानदा रहरो की मानिंद
हमारी हस्ती हो गयी
इश्क-ए-जस्त की फ़रियाद
करें…
Added by Sushil Sarna on July 19, 2016 at 3:44pm — 14 Comments
नारी मन .....
एक लंबे
अंतराल के पश्चात
तुम्हारा इस घर मेंं
पदार्पण हुअा है
जरा ठहरो !
मुझे नयन भर के तुम्हें
देख लेने दो
देखूं ! क्या अाज भी
तुम्हारे भुजबंध
मेरी कमी महसूस करते हैं ?
क्या अाज भी
तुम्हारी तृषा
मे्रे सानिध्य के लिए
अातुर है ?
जरा रुको
मुझे शयन कक्ष की दीवारों से
उन एकांत पलों के
जाले उतार लेने दो
जहां अपनी नींदों को
दूर सुलाकर …
Added by Sushil Sarna on July 12, 2016 at 4:30pm — 6 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |