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Sheikh Shahzad Usmani's Blog – February 2016 Archive (8)

डॉक्टर सड्डन (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मुश्किल से माँ-बाप सालों बाद अपने बेटों से मिलने मुंबई पहुंचे थे। एक के बाद एक पांचों मुंबई में बस गए थे और उनमें से एक खो दिया था। डर लग रहा था कि कहीं ग़लत धंधों में तो नहीं पड़ गये फ़िल्मी दुनिया में दाख़िला पाने के मोह में। दो दिन ही हुये थे माहिम में बड़े बेटे के घर में रुके हुए । बेटे की वास्तविक माली हालत उसकी सेहत और घर देख कर कुछ समझ में नहीं आ रही थी। एक दिन चावल न खाने की बात पर बेटा बाप पर बरस पड़ा।

 "अबे, बुढ़ऊ जो मिल रहा है चुपचाप खा ले, मेरी बीवी के पास इत्ता टाइम नहीं है…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 28, 2016 at 12:00pm — 6 Comments

सूरज के तेवर (लघुकथा) [छंदोत्सव-58 चित्र से प्रेरित] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अपने दोस्त पेन्टर हबीब की नई पेन्टिंग को अरशद भाई बड़े ग़ौर से देख रहे थे। लाल, धूसर और काले रंगों से बनी पेन्टिंग में नदी के तट पर चिता तैयार करते युवक को और लकड़ियों से सजायी जा रही चिता को स्याह काले रंग से चित्रित किया गया था। लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि सुरमई से दिख रहे आसमान में लालिमा सी फैलाता सूरज भोर के समय का है या सूर्यास्त के वक़्त का !



"कहाँ उलझ गए अरशद भाई, पेन्टिंग नहीं आयी समझ में?"



"समझ तो गया हूँ, बस यह बता दो हबीब भाई कि यह सूर्योदय का चित्रण है या… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2016 at 12:02pm — 4 Comments

उतार-चढ़ाव (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

घोर निराशा से घिरे पुत्र को जीवन की सच्चाई बताते हुए पिताजी सीख देने की कोशिश कर रहे थे।

"बेटा, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव से व्यथित मत हो, हर इन्सान के हमसफ़र होते हैं ये सब!"

" लेकिन पिताजी, हमसफ़र के तेवर सबके साथ एक से नहीं होते! स्वाभाविक उतार-चढ़ाव और बनाये गये या थोपे गये उतार-चढ़ाव में ज़मीन आसमान का फर्क है इस स्वार्थी युग में!"- पुत्र ने अपने शैक्षणिक दस्तावेजों की फाइल बंद करते हुए कहा।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 15, 2016 at 9:29am — 8 Comments

लघुकथा (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"लघुकथा" साहित्यिक पत्रिका की वर्षगाँठ समारोह में नये व पुराने लेखकगण, एक दूसरे से रूबरू हुए। इस अवसर पर विशेष रूप से लगायी गई पेंटिंग को सभी ग़ौर से देख रहे थे।



"यह जो लकड़ी की रचना देख रहे हो न, यह दरवाज़ा रूपी एक उत्कृष्ट लघुकथा है, लघुकथा के फ्रेम में विधिवत संयोजित!"- पुराने ने एक नये लेखक को बताते हुए कहा।



"और ये खड़ी पट्टियां और पैबंद से...?"



"ये तीनों खड़ी पट्टियां क्रमशः लघुकथा का आरंभ, मध्य भाग और अंतिम भाग हैं... और वे आड़े से तीनों पैबंद नहीं हैं, वे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 11:05pm — 3 Comments

कोहरा (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खुला दरवाज़ा देख कर वह सीधे अन्दर की ओर जाने लगी।



"शुभ प्रभात! आइये, अब कैसे आना हुआ?"



"भरी दोपहरी में अक्सर ख़ूब सताया है, सोचा ऐसे में इन्हें कुछ राहत दे दूँ! बच्चे तो होंगे न अंदर ?"- धूप ने अभिवादन स्वीकार कर झोपड़ी के दरवाज़े से कहा।



"नहीं, उन्हें भी सबके साथ काम पर जाना होता है भोर होते ही !" - दरवाज़े ने उत्तर दिया।



"इतने घने कोहरे में भी!"



"हाँ, अपने अपने पेट के लिए अपने हिस्से की कमाई के लिये..."



"ओह, यह कोहरा कैसे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 8:28am — 10 Comments

लेन-देन की परम्परा [ अतुकांत कविता] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

लेन-देन की परम्परा

नीचे से ऊपर तक

छोटों से बड़ों तक



ऊपरवाला भी अब करता

व्यवसाय सी प्रक्रिया

कभी देता, कभी लेता

हिसाब बराबर सब करता

संकेतों को कौन समझता?



इन्सान ही तो कर्ता-धर्ता

दूर-तंत्र से नचता

विकास संग विनाश का मेला

रंगीन, संगीन, ग़मगीन

कोई बदनाम, कोई नामचीन



गति, प्रगति, मति या अति में

यति करती स्वत: प्रकृति

सृष्टि की अजब नियति

अवसरवादिता की प्रखर

मानव जैसी चतुर

लेन-देन की… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2016 at 9:18am — 8 Comments

वेदना और तृप्ति (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सही कहा जाता है कि दिन सभी के बदलते हैं।"

"कहाँ से कहाँ-कहाँ पहुँच गए थे! क्या से क्या हो गए थे हम!"

"आख़िर अब साथ साथ यहाँ पहुँच ही गए!"

"कितना सुकून मिलता है यहाँ आकर, सारी हसरतें पूरी हो जाती हैं, है न! "

'रिसेप्शन (प्रीति-भोज)' के शानदार काउन्टरों के चमकते डिशों से वेस्टबिन तक पहुँची जूठनें अब भूखे भिखारियों और बाल-मज़दूरों की क्षुधा शांत कर रहीं थीं।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 8:17pm — 4 Comments

कायम जड़ें (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सर, आज इसको भी आतंकवादियों ने निपटा दिया!"

"देखो, शायद जान बाक़ी है इसमें!"

"सर, इसका तो पूरा धड़ उड़ा दिया हत्यारों ने!"

"लेकिन पैर हैं, जड़ें कायम हैं, आहार मिलेगा तो शायद जी उठे!"

बच्चे पुलिस-पुलिस और सी.आइ.डी. का खेल खेलते हुए पेड़ के बचे ठूंठ पर ऐसा बोल गये जैसे कि किसी धर्म और संस्कृति पर बात हुई हो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 9:25am — 7 Comments

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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179
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