खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए
अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया
बोध-मर्म रहा अछूता
द्वार-बंद ज्ञान-गेह का
ओस चाटती भावदशा
छूछा है कलश नेह का
मन में पतझड़ आन बसा
अब बसंत का दौर गया
विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं
संवेदन के निर्जन में
नहीं दिखे अब बौर नया
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:55pm — 25 Comments
दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 7:28am — 24 Comments
क्षितिज
दूर छोर पर
एकाकार होते
सिन्दूरी आसमान
और हरी धरती
उस रेखा का कोई रंग नहीं
एक स्थिति
खाली बाल्टी
और उसमें
नल से
बूँद-बूँद टपकता पानी
मैं देख रहा हूँ
किंकर्तव्यविमूढ़
संघर्ष
तपते दिनों के बाद
सर्द हवाओं का मौसम
कब से बारिश नहीं हुई
बहुत से सपने सूख…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on January 17, 2014 at 7:29am — 22 Comments
सुन्दर दृश्य उत्पन्न करती हैं
एक साथ जलती ढेरों मोमबत्तियाँ
भीड़ से घिरी उनकी रोशनी
कसमसाकर दम तोड़ देती है
वातावरण में घुले नारे
खंडहर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह
कम्पन पैदा करते हैं
सर्द हवाएँ
काँटों की तरह चुभती हैं
अँधेरा गहराता जा रहा है
___
बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 1:00pm — 34 Comments
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