आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया सीमा सिंह जी, प्रदत्त विषय पर बढ़िया प्रस्तुति । हर इंसान चाहता है कि उसकी आस्था के प्रति सभी सम्मान व्यक्त करें। बधाई ।
साधारण पानी का भगवान का भोग लगते ही प्रसाद बन जाता एक बूँद भी नीचे टपकने पर हम विचलित हो जाते हैं,वैसे तो नालियों में बहता हैरचना में सबसे बड़ी बात दूसरे धर्म का सम्मान।बेहतरीन रचना कीजियेगा आदरणीया सीमा दी.
बहुत ही बेहतरीन लघुकथा हुई है सीमा सिंह जी। प्रदत्त विषय को एकदम नए तरीके से परिभाषित किया है। यह बात बिलकुल सत्य है कि हम लोग अक्सर चाहे-अनचाहे कुछेक अवैज्ञानिक मान्यताओं के चक्रव्यूह में उलझ ही जाते हैं। इस इस रचना का शीर्षक बेहद पसंद आया।मेरी तरफ से बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें।
विषयांतर्गत बेहतरीन उम्दा सृजन और बेहतरीन प्रतिक्रियायें। हार्दिक बधाई आदरणीया सीमा सिंह साहिबा। सभी टिपप्णियों को दोहराते हुए कहना चाहता हूं कि मुझे ऐसा भी लगा कि उक्त रचना में दो या तीश लघुकथायें भी समाहित हैं! बतौर उदाहरण पहली लघुकथा इस संवाद/पंचपंक्ति पर समाप्त की जा सकती है : //"खाने का कोई मजहब नही होता है। खाने का एक ही मजहब है वो है भूख और जुबान की तसल्ली।"// इसके बाद तनिक फेरबदल कर दूसरी लघुकथा शुरू की जा सकती है! एक विचार मात्र । मार्गदर्शन निवेदित।
वाह! इस आयोजन की बेहतरीन रचनाओं में से एक। प्रदत्त विषय को विसंगति के माध्यम से बहुत ही ख़ूबसूरती से उभारा है आपने आदरणीया सीमा जी। लघुकथा में प्रवाह है, साथ ही शीर्षक भी उत्तम है। इस कामयाब रचना के लिए दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीया सीमा जी। सादर।
दोराहे के मोड़ पर
"यही होता है जिहाद?
"हुँह जिहाद! धंधा है धंधा!"
"नमाज़ के वक़्त सफ़ एक और खाने के वक़्त अलग-अलग?"
"पता है क्या बोल रहा था वो सूडानी ख़बीस? कह रहा था की सब-कॉन्टिनेंट के मुसलमान तो दोयम दर्जे के हैं।"
"तभी तो जानबूझकर हमारी ड्यूटी लगा दी पखाने साफ करने की।"
"ऐसे भी गलीज़ काम करने पड़ेंगे, तौबा तौबा! कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था।"
"पढाई लिखाई छुड़वाकर हमे ऐसे घिनौने काम में लगा दिया।"
"और आप ये ख़ुद? बड़े कमांडर के बच्चे कनाडा में पढ़ रहे हैं और छोटे वाले के इंग्लैंड में।"
"हम लोगों को मुदद्तें हो गईं अपनों से बिछड़े हुए, पर ये लोग अपने परिवार वालों से जब चाहें सैटेलाइट फोन पर बातें करते हैं।"
"इइनके परिवार तो ऐश कर रहे हैं, और हमारे घरवाले ग़ुरबत और दहशत में जीने के लिए मजबूर हैं। बहुत मन खराब होता है, मैं तो किसी दिन ख़ुदकुशी कर लूँगा"
"मेरे भी दिल में कई बार ख़ुदकुशी करने का ख्याल आता है। लेकिन मैं इतना बुज़दिल नहीं हूँ।"
"मगर ये ज़ालिम न तो जीने देंगे और न ही आसानी से मरने ही देंगे! तो ऐसे में क्या करोगे?"
"मैं तो सोच रहा हूँ कि यहाँ से वापिस घर भाग जाऊँ।"
"पागल हो गए हो क्या? इसका अंजाम जानते हो? उधर पहुँचते ही मिलिट्री वाले धर दबोचेंगे तुम्हें। पता है न वो क्या हश्र करते हैं?"
"मगर ये भी सच है कि वो लोग हमारे कमांडरों की तरह क़साई नहीं हैं। सुना है लौट के जाने वालों को मुआफी भी मिल रही है आजकल। इसलिए मैं तो कहता हूँ कि तुम भी चलो।"
"अगर सरहद पार करते ही उन्होंने गोली मार दी तो?"
"तो कम-से-कम इतनी तसल्ली तो रहेगी कि अपने वतन में जाकर मरे हैं।"
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(मौलिक और अप्रकाशित)
उफ़्फ़फ़, कथित जेहाद। उससे उपजी समस्याएं। वैमनस्यता।
धार्मिक आस्था से बढ़कर पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ और सर्वोपरि राष्ट्र के प्रति आस्था।
एक लघुकथा में इतनी परतें इतनी खूबसूरती से। बहुत सीखने को मिला योगराज जी। शुक्रिया तथा बधाई दोनों।
बहुत बहुत शुक्रिया भाई अजय कुमार जी.
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी। आपकी लघुकथा पढ़ने को तरस जाते हैं।गज़ब का कथ्य।आस्था का एक नया रंग देखने को मिला।अपने वतन में मरने की आस्था।वाह, लाज़वाब।
यह अपका स्नेह है आ० तेजवीर सिंह जी. रचना पसंदीदगी हेतु दिल से आपका शुक्रिया.
बेहतरीन लघुकथा योगराज सर ।
कथ्य प्रस्तुति सब लाजबाब।
हार्दिक आभार आ० कनक हरलालका जी
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