(1). श्री समर कबीर जी
"जुलूस"
अफ़वाह ने ज़ोर पकड़ा । एक पक्ष ज़ोर ज़ोर से नारे लगाता हुवा बाज़ार से गुज़रा । जम कर लूट पाट मचाई ।दुकानों के शटर धड़ा धड़ गिरने लगे।जिसको जो दिशा सूझी उस और भागा ।बद हवासी पूरे बाज़ार में फैल गई ।दूसरा पक्ष भी हाथों में पत्थर ,लाठियाँ,तलवारें लेकर निकला ।इस पक्ष ने भी जम कर लूट पाट की । घरों और दुकानों को निशाना बनाया । देखते ही देखते पूरा अँचल संगीनों के साये में हो गया । ये सब हुवा इलाक़े के ग़ुंडे की गिरफ़्तारी और फिर उसके सार्वजनिक जुलूस के कारण । ग़ुंडे की गिरफ़्तारी और उस के जुलूस को दोनों पक्षों ने साम्प्रदायिक आक्रोश का रंग दे दिया था । राजनीति गर्माती रही ,दोनों पक्षों ने अपनी हसरत पूरी की । नुक़सान हुवा भोली भाली जनता का । मगर चाँदी रही लूट पाट करने वालों की ।वे जीत में थे । उनका आक्रोश फलीभूत हुया ।
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(2). श्री सुनील वर्मा जी
मैली शबरी
"मालकिन..कल की छुट्टी चाहिए।" अपनी मालकिन का मिजाज अच्छा देखकर रसोई में सब्जी बना रही विमला ने बाहर आकर पूछा।
"और घर का काम..वो कौन करेगा ? तुम्हें पता है न कि अभी कितना काम है। छुट्टी नही मिल सकती।" मालकिन का रटा रटाया जवाब आया।
हर बार कि तरह इस बार भी मना कर देने पर विमला मन मार कर रसोई में आ गयी। मालकिन को प्रत्युत्तर तो न दे सकी, पर अपना गुस्सा शांत करने के लिए उसने बन सब्जी में थूका और उसे चम्मच से मिला दिया। मालकिन के पुकारने की आवाज सुनकर वह वापस बाहर आयी।
"विमला, अभी साहब का फोन आया था। आज रात का खाना हम बाहर ही खायेंगे। तुम खाना मत बनाना।" मालकिन ने कहा।
"पर मालकिन, सब्जी तो तैयार हो चुकी।" विमला बोली।
कुछ सोचते हुए मालकिन ने कहा "अच्छा तो तुम ऐसा करो। यह सब्जी तुम्हारे घर ले जाओ। तुम्हारे बच्चे खा लेंगे।"
काम निपटाकर, हाथ में टिफिन थामे अपने घर के लिए निकली विमला पूरे रास्ते इसी उधेड़बुन में रही। बहुत दिनों से लज़ीज खाने की जिद़ कर रहे बच्चों के लिए थाली लगाते हुए उसका ध्यान फिर भटका। दिल और दिमाग में अंतर्द्वंद चल रहा था। परोसूँ या रहने दूँ। दिमाग ने कहा 'तेरा ही तो जूठा है और बच्चे भी तेरे ही हैं..क्या फर्क पड़ता है।' तो दिल ने कहा 'सिर्फ जूठा होता तो अलग बात थी, पर इसमें तो दुर्भावनाएँ भी मिली हैं।'
मन न माना तो वह उठी। सब्ज़ी ली, और बाहर नाली में बहा दी।
कुछ देर बाद रसोई से नयी सब्जी के छौंकने की आवाज आ रही थी।
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(3). सुश्री नयना (आरती) कानिटकर
"राजनीति की रोटी"
सूखे खेत सांय-सांय करने लगे थे। अकाल की विभीषिका से बचने अधिकांश खेतीहर मज़दूर गाँव छोड़कर जा चुके थे । बस गाँव के चौराहे पर लाउड स्पीकर की आवाज़े गूँजती रहती थी।
"अरे हरियो! चल जल्दी आज सभा मे जो जाएगा उसे रुपिया मिलने वाला हैं। हाथउ मे कौना रुपल्ली ना है तो, क्या फरक पडता है नेता कौन है,हमारी शाम की रोटी का जुगाड हो जावेगा बस." झितू ने कहा
नेता के आगमन होते ही लाउडिस्पीकरों से उनके आगमन की खबर फैलाने का काम शुरु हो गया। आवाज उन तक पहुंची।
बार बार चुनाव का भार जनता पर पडता है बडे दुख की बात है। देश में विदेशी शक्तियाँ काबिज होती जा रही हैं। देश की सीमा पर हमारे जवान जान की बाजी लगा देते हैं। हमारे पड़ोस के गाँव का छोरा भी शहीद हो गया। हमे भी अपने गाँव से चार-छह जवानों को प्रेरित करना चाहिए सेना मे भर्ती के लिए, ये हमारी धरती माँ के लिए बडे गर्व की बात होगी। अगर हमारी सरकार होती तो यह दिन ना देखना पडता। नेताजी का भाषण चल रहा था।
"तो क्या हम अन्न उत्पन्न कर सेवा नही करते देश की । उसके तन-बदन मे मानो आग लग गई। चेहरा क्रोध से फ़नफ़ना उठा। जैसे मानो उसके कानो मे कोई सीसा उड़ेल रहा था।
"अरे! तु तो बस कर, हमारी जनता का खाता हैं हराम...। यहाँ पेट मे बल पड रहे है।" हरिया गुस्से से बेकाबू हो चुका था..
तेजी से पटाव के नीचे से लाठी उठाई और चल पडा।
"अरे! कहाँ चल पडा।" उसकी माँ चिल्लाई
राजनीति से रोटी सेंकने वाले अब लाठी का कमाल देखेंगे।
पूरे वातावरण में सायरन की आवाज भाय-भाय कर गूँज उठी।
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(4).सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी
‘ठंडा तूफ़ान’
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दुकान में घुसते ही बाऊजी का स्वागत एक भीनी खुशबू ने किया I गणपति के आगे अगरबत्ती जल रही थी और माला भी चढ़ी थी I सलिल अपनी कंप्यूटर की टेबल की झाड़ पोंछ में लगा था I
“आज जल्दी आ गया तो सोचा आपके गणपति को अगरबत्ती लगा दूँ “I बाऊजी को मुस्कुराता देख सलिल झेंपते हुए बोला I
“मतलब हमारे सलिल चतुर्वेदी जी की भगवान से कुट्टी ख़त्म ,क्यों “? सलिल के तनाव रहित चेहरे को देख उन्हें अच्छा लग रहा था I
“ आपको अच्छा लगे इस लिए किया है बाऊजी “I सलिल ने धीरे से कहा I
इस बड़े जनरल स्टोर के मालिक गुप्ता जी को सभी आदर से बाऊजी बुलाते थे I सलिल एक महीने पहले कंप्यूटर में हिसाब किताब देखने के लिए इनकी दुकान में लगा था I
बीस इक्कीस साल का सलिल सबसे नाराज़ था, भगवान से भी I पर सबसे ज्यादा नाराज़ वो अपने सरनेम से थाI दो बार इन्जीनीयरिंग की सीट आते आते छूट गई थी उसके हाथों से I पिता ने साफ़ कह दिया था कि अब अपनी कमाई से कोचिंग की फीस भरो I
“कल कोचिंग के टेस्ट में मुझे सबसे ज्यादा नंबर मिले बाऊजी i “ सलिल का ये खिला चेहरा बाऊजी के लिए आज से पहले अनजान था I
“अंकल जी i पच्चीस तीस ठंडे की बोतलें चाहियें ,मिलेंगी ?” टोपी पहने एक युवक अन्दर आया I
“जरूर i कोई पार्टी है क्या ?”
“ना जी अंकल जी , धरने पर बैठने जा रहे हैं चौक पर I बस दोस्त पहुँचते होंगे “I
“पेट्रोल के दामों के लिए ?”
“अपने पेट में क्यों दर्द हो पेट्रोल की कीमत से ? डैडी कुआँ खरीद देंगे पेट्रोल का ..हो..हो .जस्ट जोकिंग अंकल जी”I काउंटर पर कुहनियों का भार डाले वो युवक सलिल को घूर रहा था जो उसे तवज्जो दिए बिना अपने काम में लगा था I
“ तो किस बात के लिए पकने जा रहे हो इस गर्मी में ?”
“हम क्यों पकेंगे ?,पकेंगे वो जो वादे से मुकरते हैं I हमारे लोगों की कोटे की सीटें बढ़ाने का वादा किया था कॉलेज और नौकरियों में सरकार ने I अब तो दंडवत करेगी ही करेगी हमारी मांगों के आगे सरकार देख लेना I और अंकल जी ..”
वो बोले जा रहा था और बाऊजी कनखियों से सलिल के चेहरे को देख रहे थे जहां पर अब फिर तनाव लौट रहा था I
“अभी तरीके से खुली कहाँ है दुकान I काम वाले लड़के आयेंगे तब ठंडे के क्रेट जमवाऊंगा बाहर I सामने वाली खुल गई होगी ,वहां देख लो I” वो पूरी कोशिश में थे कि ‘टोपी’ यहाँ से टल जाए I
“ये मुन्ना बैठा तो है कंप्यूटर के पीछे I चल मुन्ना शाबाश, बहुत हो गई पढाई I जा एक ठंडा निकाल कर ला मेरे लिए”I
“इसे पता नहीं है ,नया है, मै लाता हूँ “I सलिल के चेहरे को देखने की बाऊजी की हिम्मत नहीं थी I
“ठहरिये i मै लाता हूँ , कौनसा लेंगे ?” होंठ भींचे जैसे ही सलिल खड़ा हुआ ,कुर्सी आवाज़ करते हुए पीछे गिरी I बाऊजी को पता था कि कुर्सी हड़बड़ी में नहीं गिरी है I
“ठंडा ..तूफानी ठंडा ..और कौनसा i और मुन्ना तू भी गटक एक I ज्यादा पढाई से गर्मी चढ़ गई लगती है दिमाग़ में “I हथेलियों का पूरा भार काउंटर पर डाले टोपी आगे झुक गया I
बाऊजी असहाय से गणपति को देख रहे थे जहाँ थोड़ी देर पहले सलिल ने अगरबत्ती लगाई थी I
सलिल ठंडा लेकर काउंटर पर आ गया I बोतल को उसने हाथों में लगभग भींच रखा था I
“ओपनर नहीं लाया हीरो i तोड़ कर पिलाएगा क्या “?
बाऊजी ने देखा, सलिल का बोतल वाला हाथ झटके से ऊपर गया और फिर आई बोतल और काउंटर के ज़ोरदार मिलन से पैदा हुई आवाज I अब काउंटर पर धीरे धीरे काला, ठंडा, चिप चिपा, कांच के टुकड़ों और किरचनों से भरा तूफ़ान फैलने लगा था I
बाऊजी ने वो भी सुन लिया था जो सलिल के भिंचे होंठ धीरे से बुदबुदाये थे ‘’ ले पी ले “ I
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(5). श्री मनन कुमार सिंह जी
आक्रोश
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रश्मि नयी-नयी टीचर बहाल हुई थी।पढी-लिखी ठीक थी।उम्र का तकाजा था।हौसले आसमान छू रहे थे,महत्वाकांक्षा पर्वतों से प्रतिस्पर्धा कर रही थी।बगल में ही शिक्षा पदाधिकारी का ऑफिस था।कुछ जरूरी कार्यवश उसे सप्ताह भर के लिए वहाँ रखा गया था।पर वह तो उसी आफिस में नौकरी करने की फिराक में लग गयी।अवकाश ग्रहण के कगार पर आये एक अधिकारी उसकी पैरवी भी करने लगे।दो-एक लोग साथ हो लिये।रश्मि का नियंत्रण शर्मा जी के जिम्मे था।वे एक कर्तव्यनिष्ठ और संवेदनशील इंसान थे।हालाँकि शर्माजी भी रश्मि को कुछ काम दिया करते थे,पर वह तो अभी हवा में उड़ रही थी।कोई कुछ कह देता,कोई कुछ।वह चार दिन में ही सारी चाँदनी बटोर लेना चाह रही थी।शर्माजी लिहाज भी करते थे कि औरत जात कहीं कुछ इधर-उधर कह दे तो बुरे फँसेंगे।हवा देनेवालों को तो कुछ कहेगी नहीं। शिक्षा पदाधिकारी हफ्ता भर माहौल भाँपते रहे।अवकाशोन्मुख जीने ज्योंही रश्मि को उसी ऑफिस में रखने की बात की ,वे छूटते बोले कि स्कूल में टीचर की जरूरत है,ऑफिस में किरानी की नहीं।और रश्मि का कमान कट गया। पर किसी न किसी काम के बहाने वह नियंत्रण कार्यालय का चक्कर लगाती।अवकाशोन्मुख जी ने अपने तो कभी ढंग से नौकरी की नहीं,पर रश्मि को नौकरी करने का गुड़ सिखाते।होनी-अनहोनी का पाठ पढाते।एक दिन शर्माजी ने रश्मिके हेडमास्टर साहब से फोन पर पूछा कि उन्होंने रश्मि को एस.डी.ओ ऑफिस किसलिये भेजा है ,तो पता चला कि वह शर्माजी के यहाँ आने को कहकर आयी है।
बात एस.डी.ओ साहब के यहाँ पहुँची। रश्मि के साथ अवकाशोन्मुख जी की खूब खिंचाई हुई।वे कहते सुने गये कि उन्होंने तो उसे कभी बुलाया ही नहीं।उधर रश्मि कह र ही थी कि उसके घर भाड़ा के मामले में वे उसे बुलाते थे।उसका गुस्सा फूट चुका था।शर्माजी के पास आकर कहने लगी कि उन्होंने तब सही ही कहा था कि उसे बहुत कुछ बताया गया होगा जो उसे नहीं जानना है और बहुत कुछ जानना है जो बाद में पता चलेगा।तब उसे यह भी पता नहीं था कि उसे किसको रिपोर्ट करना है।
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(6). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
असली दोषी कौन?
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तथाकथित समाजसेवियों, धर्म गुरुओं, नेताओं और संस्कृति प्रेमियों के तानों, फ़तवों व विरोध-रैैलियों से त्रस्त होकर वे चारों एक विचार गोष्ठी करने के लिए विवश हो गए। सवाल था कि बढ़ते यौन- अपराधों के लिए आख़िर ज़िम्मेदार कौन है?
आरोपों, प्रत्यारोपों से त्रस्त 'अश्लीलता' स्वयं को स्वतंत्र, शील व शालीन बता रही थी। 'फ़ैशन' स्वयं को सामाजिक आवश्यकता और विश्व-बंधुत्व की कड़ी, कलात्मक, प्रगतिशील और संस्कृति की बहती गंगा-धारा सिद्ध कर रहा था। 'मीडिया' हमेशा की तरह स्वयं को 'समाज का ही दर्पण' कहकर किनारा कर रहा था। 'फ़िल्म-जगत' इन तीनों के विचारों और सिद्धांतों का समर्थन करते हुए स्वयं को 'समाज सुधारक' और 'जन-जागरण का सशक्त माध्यम' घोषित करने पर तुला हुआ था। तो फिर प्रश्न यही उठा कि भारतीय समाज के नैतिक पतन के लिए आख़िर दोषी कौन है?
"आप लोगों ने सुना नहीं! बड़े-बड़े विद्वान और चलचित्र निर्माता-निर्देशक तक कहते हैं कि शील और अश्लील तो देखने वाले की नज़र पर निर्भर होता है!"- 'अश्लीलता' ने 'फ़ैशन' की ओर देखते हुए कहा। 'मीडिया' मुस्कराने लगा। 'फ़िल्म-जगत' ने तालियाँ बजाते हुए कहा- "बिलकुल सही बात! हम कथा, पटकथा और पात्र समाज से ही लेते हैं, जो देखते हैं वही तो दिखाते हैं!"
अब बारी मज़बूत स्तंभ 'मीडिया' की थी। अपना मत व्यक्त करते हुए उसने कहा- "लोग मुझ पर ही आरोप लगाते रहते हैं। अरे, जो हो रहा है, वही तो खुलकर दिखायेंगे, वही लिखेंगे! वैसे भी हम सदैव समाज की माँग के अनुसार ही परोसते हैं! हम पीछे नहीं, दुनिया के साथ-साथ आगे जाएंगे!"
फिर सभी ने एक सुर में कहा- "आख़िर हम सभी व्यवसायी हैं, व्यवसाय के सिद्धांत पर चलना ही होता है, वैश्वीकरण के दौर में उपभोक्ता की पसंद का उत्पादन करना क्यों बुरा है?"
गोष्ठी में अपनी बारी पुनः आने पर 'अश्लीलता' ने कुछ उग्र होते हुए कहा- "बढ़ते यौन अपराधों के लिए मैं कतई ज़िम्मेदार नहीं, पूरा दोष शिक्षा जगत और शिक्षण पद्धति का है! लोगों की कुंठायें दूर करिये, यौन-शिक्षा और यौन-स्वतंत्रता दीजिए!"
"इस काम को तो हम ही बख़ूबी अंजाम देते हैं!" बीच में ही बोलते हुए 'फ़िल्म-जगत' ने कहा- "आप स्वयं देखिए, हमारी बदौलत ही भारतीय समाज में खुलापन आया है, देर है अंधेर नहीं! जैसे-जैसे स्वतंत्रता, आत्म-निर्भरता बढ़ेगी, अपराध कम होते जाएंगे, ये बढ़ता क्रम शीघ्र ही घटता क्रम हो जायेगा!"
"यही तो हमारी सोच है!"- 'फ़ैशन' और 'मीडिया' ने एक स्वर में कहा।
फिर 'मीडिया' बोला- "हर कोई धनोपार्जन करना चाहता है। इसके लिए हम तीनों भी सदैव कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं !"
"हाँ बिलकुल, जब तक जनता हमारे साथ है, तब तक ही न!" - व्यग्रता के साथ 'फ़ैशन' ने कहा।
"अच्छा, चर्चा समाप्त करते हुए अब यह बताइये कि असली दोषी कौन कहलाया!" -'अश्लीलता' ने गोष्ठी का मुख्य प्रश्न पुनः पूछा!"
"यौन अपराधों और नैतिक पतन के लिए स्वयं भारतीय नागरिक ही ज़िम्मेदार हैं, हम में से कोई नहीं!"- 'फैशन','मीडिया' और 'फ़िल्म-जगत' ने बहुत उग्र स्वर में कहा- "हम जनता से हैं, जनता हमसे नहीं!
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(7). सुश्री राहिला जी
दिनदहाड़े
बीच बाज़ार में दिनदहाड़े अचानक शोर उठता है।लोग क्या देखते हैं कि एक लड़की मदद के लिये चिल्ला रही है।जिसका हाथ एक लड़के ने बड़ी बेरहमी से पकड़ा हुआ है।मामला छेड़छाड़ का पता लगते ही ,पूरी की पूरी भीड़ उस लड़के पर पिल पड़ती है।तभी कोई जागरूक नागरिक पुलिस को इत्तला कर देता है। सतर्क पुलिस अपनी पुरानी छवि को तोड़ते हुये कुछ मिनटों में घटना स्थल पर पहुँच जाती है।और उस लहूलुहान लड़के को आक्रोशित भीड़ से मुक्त कराती है।
"क्यों बे!लड़की को छेड़ रहा था "पुलिस वाला उसका गिरेबान पकड़ ,गुर्रा के बोला ।
"नहीं साहब! मैं किसी लड़की को नहीं छेड़ रहा था।"
" झूठ बोलता है...मारो साले को !, साहब! हमने अपनी आँखों से देखा ,ये एक अबला लड़की को छेड़ रहा था।"
भीड़ में से एक बोला ।
"यकीन ना हो तो खुद उसी से पूछ लीजिए।"
"हाँ ...हाँ.., कहाँ है वो लड़की?"भीड़ के साथ उस पुलिस वाले ने भी इधर, उधर नज़र दौड़ाई ।लेकिन लड़की नदारद!
"साहब!यहाँ,वहाँ क्या देख रहे हो ?वो अबला होगी तो मिलेगी ना।"लड़का मुँह से खून पोछते हुये बोला।
"मतलब"
"मतलब ये साहब! कि वो कोई अबला लड़की नहीं थी,जेबकतरी थी जेबकतरी ।"लड़का कटी जेब दिखता हुआ, बगलें झांकती भीड़ पर जलती हुई नजर डालता हुआ बोला ।
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(8). डॉ विजय शंकर जी
आक्रोश विलोपण
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जनता का आक्रोश अपने चरम पर था। राजा की हुकूमत और प्रजा के बीच एक जबरदस्त संघर्ष की स्थिति बनी हुयी थी। राजा का प्रशासन पस्त हो कर हथियार डाल चुका था। आज राजा के आदेश पर भीड़ का नेता दरबार में लाया गया , चारों ओर से सैनिकों से घिरा हुआ। बाहर सड़कों पर अनियंत्रित जनसमूह ऊपर से शांत परन्तु अंदर ही अंदर उद्वेलित अपने नेता की प्रतीक्षा कर रहा था। नेता भी कुछ अचंभित सैनिकों के बीच कुछ डरा हुआ , कभी नज़र उठाता , कभी गिराता।
राजा ने उसे पूर्ण दृष्टि से देखा और अपने पास बुलाया।सारा दरबार कुछ अप्रत्याशित होने की स्थिति में सहमा हुआ था। राजा ने बहुत गम्भीर मुद्रा में कहा , " जनता इतने कष्ट में हैं , मुझे किसी ने बताया ही नहीं है " कुछ रुक कर फिर बोला ," तुम्हें इनकीं परेशानियां मालूम हैं ? "
" जी राजन ,मुझे सब मालूम हैं। मैं आपको बताऊँ ......... " वह सहमते हुए बोला।
" नहीं , मुझे मत बताओ ," राजा ने बड़ी निश्चिंतता से कहा , कुछ रुक कर फिर एक आशान्वित स्वर में कहा , " मैं तुम्हें जनता का कल्याण-मंत्री बना देता हूँ , तुम उनकीं सारी परेशानियों का समाधान हमें बता देना।"
नेता के लिए यह पूर्णतया अप्रत्याशित था , वह कुछ कह पाता कि उसे राजा का स्वर फिर सुनाई दिया , " मैं तुम्हें इस काम के लिये दस वर्ष का समय देता हूँ "
आक्रोश से उबलता हुआ नेता एक असीम प्रशांत सुख सागर में पहुँच चुका था। उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी कि राजा ने फिर पूछा , " कम है तो मैं तुम्हें और समय दे सकता हूँ , तुम समय की चिंता मत करना , बस जनता के दुःख-दर्द देख लेना।"
वह अभी भी कुछ बोल पाने में असमर्थ था कि राजा ने कहा ," तुम अभी से अपना काम शुरू कर सकते हो। "
नेता उसी तरह सैनिकों के बीच महल के बाहर आया पर इस बार गर्व के साथ और आक्रोशित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए उसने घोषित किया कि दयालु राजा ने जनता की सभी मांगे मान ली हैं और उन पर शीघ्र ही काम शुरू हो जाएगा। जनता उल्लास से भर गयी , जय जयकार हुआ और लोग धीरे धीरे अपने अपने घरों को लौट गए।
नेता जब वापिस दरबार में पंहुचा तो उसने देखा वहां एक जश्न का माहौल था।
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(9). श्री तस्दीक अहमद खान की
गुस्सा ( आक्रोश )
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आज फिर अखबार में पंद्रह दिन पहले वाली खबर ----मेन पाइप लाइन टूटी ,दो दिन बाद पानी आएगा ----इतनी भीषड़ गर्मी में कूलर और नहाने के लिए कहाँ जब पीने के लिए ही पानी नहीं है । मोहल्ले वालों ने नगर विधायक की अगुआई में वाटर वर्क्स ऑफिस का घेराव कर दिया , महिलायें खाली मटके लेकर फोड़ने पहुँच गयीं । अचानक भीड़ ऑफिस की तरफ आती देख ऑफीसर जैन साहिब बाहर आगये ।
भीड़ से एक आवाज़ आई -'' ऐसी गर्मी में बिना पानी के दो दिन कैसे काटेंगे ? ''
फिर एक और आवाज़ आई -'' रोज़ रोज़ पाइप लाइन क्यों टूटती है आप लोग पुख्ता इंतज़ाम क्यों नहीं करते ?''
पीछे से आवाज़ आई -'' जो लोग पाइप लाइन तोड़ कर पानी चोरी करते हैं उन्हें पकड़ा क्यों नहीं जाता ? ''
आक्रोश से भरी भीड़ और मौके की नज़ाक़त को देख कर जैन साहिब बोल पड़े -'' पानी की चोरी में सियासी लोग शामिल हैं , इनके आदमी चोरी का पानी इनके खेतों में ले जाते हैं , हम इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ?
इतना सुनते ही आक्रोशित भीड़ से एक ही आवाज़ आई ---'', आप उन लोगों के नाम बताइए , जनता तो ज़रूर कुछ कर सकती है ''
हालात बेकाबू देख विधायक ने ऑफीसर की तरफ देखा और चुप चाप वहां से खिसक गए --------------
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(10). डॉ टी आर सुकुल जी
लंघन
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ढाबे के पास एक खंडहर की दीवार के सहारे बैठे आठ दस भिखारियों को ढावे वाले का नौकर बचे हुए जूंठन को बांटते हुए कहता है-
‘‘ हाॅं! बता कितने हैं?‘‘
‘‘ चार‘‘
‘‘ अच्छा, ले कटोरे में दाल, चावल‘‘
‘‘ तू बता रे! आज क्या फिर खाली है?‘‘
‘‘ नहीं मालिक ! दो ही मिले हैं‘‘
‘‘ देख बहुत उधारी अच्छी नहीं, समझा?‘‘
‘‘ सब चुका दूंगा साब! आज तो रोटी दे दो‘‘
‘‘ ले तू रोटी, पर कल से नहीं मिलेगी, उधारी चुकाना होगी पहले ‘‘
‘‘ अबे! तू उधर क्या देख रहा है, मिला कुछ कि नहीं?‘‘
‘‘ एक रुपया ही है साब !‘‘
‘‘ साले ! दिनरात दो कट्टा बीड़ी पीने को दस रुपये खर्च करता है पर खाने के लिये एक रुपया दिखाता है, आज तो ले ले पर कल से नहीं आना‘‘
- किनारे पर कथरी ओढे लेटे हुए व्यक्ति की ओर देखकर बोला , " तुम्हें चाहिये कुछ ?‘‘
‘‘ नहीं ‘‘ वह धीमें से बोला।
‘‘अरे! क्या मर गया? जोर से नहीं बोल सकता?‘‘
‘‘ कह दिया न!!! कोई जरूरत नहीं !!!‘‘ कथरी समेटते हुए, अपना रहा सहा सामर्थ्य जुटा कर जोर से बोला।
‘‘अबे ! बिगड़ता क्यों है?‘‘
"जाने दो साब , बेचारा दो दिन से बीमार है, लंघन कर रहा है ,कह रहा था कि इससे ज्वर के कष्टों से ही नहीं, कष्टदायी इस जीवन से भी छुटकारा मिल जाता है।‘‘
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(11). सुश्री राजेश कुमारी जी
किंकर्तव्यविमूढ़
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पीं..पींपीं,,पीं ..”अबे उड़ कर जाएगा क्या अँधा हो गया आगे पूरा जाम है कैसे बढाऊँ गाड़ी” अगली गाड़ी के ड्राईवर ने खिड़की से मुंडी निकाल कर उसे डाँटते हुए कहा|
पीं ..पीं.. पीं करते हुए उसने आखिरकार अपना टेम्पो भिड़ा ही दिया |
अगली गाड़ी से दनदनाता हुआ साहब निकल कर उसके पास आया और बोला “पागल है क्या तू समझ नहीं आ रहा पांच किलोमीटर लम्बा जाम बता रहे हैं एक इंच भी कहीं जगह नहीं है गाड़ी निकालने को उस पर तेरी ये हिम्मत की टक्कर मार दी मेरी गाड़ी को” कहते हुए जैसे ही साहब उसकी ओर आगे बढ़ा वो गुस्से में आग बबूला होकर बोला-
“हाथ मत लगा देना साहब फोड़ के रख दूँगा अभी मेरा भेजा सटक रहा है जी करता है एक चिंगारी लगा दूँ एक मिनट में सब स्वाह | आज अगर किसी नेता की वजह से ये जाम लगा है तो उस नेता को भी गोली मार दूँगा” कहते हुए आगे जाकर हर किसी गाड़ी को पीटता हुआ जोर-जोर से पूछने लगा
“अरे कोई डॉक्टर है क्या?? मेरी माँ मर रही है कोई तो आओ वो मर जायेगी कैसे ले जाऊँ अस्पताल हे भगवान कोई तो रहम करो” कहता हुआ कभी अपने बाल नोचने लगता कभी गुस्से में गाड़ियों को ठोकर मारने लगता इस तरह थोड़ी दूर निकल गया फिर अचानक दौड़ कर अपने टेम्पो के पास आकर देखा तो वहाँ माँ को गायब देख विक्षिप्त सा होकर आगे भागने ही वाला था कि अचानक अगली गाड़ी के खुले दरवाजे पर निगाह गई वही साहब उसकी माँ की छाती को हाथ से पम्प कर रहा था उसके कुछ बोलने से पहले ही ड्राइवर ने कहा-
“साहब हिमालयन हॉस्पिटल के कार्डियो लोजिस्ट हैं घबरा मत सब ठीक हो जाएगा”|
सुनते ही उसके आक्रोश के ज्वाला मुखी का लावा आँखों से आँसू बनकर बहने लगा |
कुछ प्राथमिक उपचार के बाद डॉक्टर ने कहा-
“माँ को मेरे हॉस्पिटल ले चलो”
“पर साहब मैं तो सरकारी अस्पताल में ले जा रहा था मेरे पास इतने पैसे ...”
“उसकी चिंता मत कर लड़के की बात बीच में ही काटकर डॉक्टर ने कहा |
“साहब मैं अपने व्यवहार अपने गुस्से पर शर्मिंदा हूँ मुझे माफ़ कर दो” कह कर लड़का पैरों में गिर पड़ा|
“ तुम्हारा आक्रोश अपनी जगह सही था...मैं समझ सकता हूँ मेरी भी माँ है”
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(12). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
आक्रोश
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गणितविज्ञान के साथ संस्कृत की स्थिति देख कर निरीक्षक महोदय बिफर पड़े, “ बच्चों का स्तर देखा. इन्हें हिंदीसंस्कृत भी पढ़ना नहीं आती है.”
“ जी सर ! इन्हें देखिए.” शिक्षक ने निरीक्षक को कहा,” ये तो अच्छे है. इन्हें किस ने पढ़ाया है?”
“ सर ! यह हम ने 15 दिन मेहनत कर के इन्हें पढ़ना सिखाया है. वरना प्राथमिक विद्यालय वाले पढ़ाते ही नही हैं. वे 5-5 शिक्षक है. दिनभर बैठे रहते है. बच्चे आपस में धमाल करते है और वे गप्पे मारते रहते हैं. वो देखिए. अभी भी बैठे हुए हैं.”
माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक ने बोलना जरी रखा, “ सर , वे होमवर्क नहीं देते हैं. बारीबारी से गेप मरते है. बालसभा नहीं कराते है. क्यों बच्चों मैं सही कह रहा हूँ ना ?”
“ जी सर .”
“ उन के यहाँ दोपहर का भोजन भी गुणवत्ता युक्त नही मिलता है.” यह सुन कर निरीक्षक महोदय आगबबूला हो गए, “ चलो ! पहले उधर देखते हैं.”
“ कहाँ है दोपहर का भोजन. माध्यमिक और प्राथमिक विद्यालय में अलगअलग गुणवत्ता का भोजन ? बच्चों का भोजन भी शिक्षक खाने लगे. शर्म नहीं आती है ?” साहब गुस्से में बोले जा रहे थे.
इस पर प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक ने निवेदन किया , “ सर ! यह संभव नहीं है. दोनों विद्यालय में एक जैसा भोजन बनता है. चाहे तो आप देख ले ?”
“ क्यों भाई ! अलगअलग भोजन क्यों नहीं बन सकता हैं ? “
“ साहब जी, दोनों स्कूल का भोजन एक ही जगह और एक ही समूह बनाता है.”
“ अच्छा ! मगर वह तो कहा रहा था कि ....” निरीक्षक महोदय कक्षा का निरिक्षण करते हुए अपनी बात अधूरी छोड़ कर कहने लगे, “ बच्चे ठीक है. मगर वह आप के विरुद्ध आग क्यों उगल रहा था ? “ आखिर निरीक्षक ने पूछ ही लिया.
“ सर ! मैं ने और जिला शिक्षा अधिकारी महोदय ने उस की बात नहीं मानी थी, इसलिए वह हम दोनों से नाराज है ?”
“ क्यों भाई ? ऐसी क्या बात थी ?”
“ साहब ! वह मुझ से आपसी स्थानान्तर करवाना चाहता था.”
“ क्यों भाई ! उसे वहां क्या दिक्कत है ?”
“ उस का कहना है कि योग्य व्यक्ति अपनी जगह होना चाहिए.”
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(13). सुश्री सीमा सिंह जी
समझदार
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“मंजरी बहुत समझदार है, वो इस बार भी इनकार ना करेगीI”
सासू माँ ने उसकी तरफ देखकर मुस्कुराते हुए कहाI लेकिन आज यह समझदार शब्द हथौड़े की तरह उसके मन मस्तिष्क पर चोट कर गया और उसकी ऊँगली पकड़कर अतीत की गलियों में ले गयाI बचपन से लेकर जवानी तक कि न जाने कितनी ही घटनाएं मुँह बाये सामने खड़ी मिलींI
“अरे दूध कम है, आज लड़कों को ही दे दोI मंजरी तो समझदार है समझ जाएगीI” माँ ने दोनों भाइयों के गिलास भर दिए थेI
“तुझे पढ़ लिख कर क्या करना है? तू तो समझदार है घर के काम काज पर ध्यान देI” उसकी दादी ने उस पर तुषारापात किया थाI
“तू तो समझदार है बेटी तेरे भाई तो कॉलेज में पढ़ते हैं, उनके लिए नए कपड़े लेना ज़रूरी है, I” बापू ने उसको समझाते हुए कहा थाI
“देख बेटी वर की उम्र ज्यादा है तो क्या हुआ? लेकिन बिना दहेज़ के शादी कर रहा हैI तू तो समझदार है, हमारी हालत तुमसे छुपी है क्या?” माँ की कड़वी लेकिन सच्ची बात ने उसकी भावनाओं को कुचल दिया थाI
“बहू, तुम्हारी जेठानी के भी दो लडकियाँ ही हैंI तुम तो समझदार हो, सोचो अगर तुझे भी बेटी हुई तो वंश आगे कैसे चलेगा?” पेट में बेटी होने का पता चलते ही सासू ने कहा थाI
“तो क्या सोचा मंजरी?” पति के शब्दों से उसकी तन्द्रा टूटीI
“एक बार फिर से लिंग परीक्षण?”
“तो इसमें हर्ज़ ही क्या है? तुम तो खुद समझदार हो......”
पति की बात को बीच में ही काटते हुए अपने पेट पर हाथ रख वह बिफर पड़ी:
“नहीं चाहिए मुझे ये समझदारी का तमगा जो मुझे अजन्मे की हत्या में भागीदार बनाता होI”
पति और सास की आँखों में आश्चर्य और क्रोध के मिश्रित भाव थे, लेकिन मंजरी स्वयं को फूल सा हल्का महसूस कर रही थीI
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(14). श्री मधुसूदन दीक्षित जी
हेल्पलाइन
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किसानों में बढ रही आत्मघाती प्रवृत्ति को रोकने के लिए सरकार ने किसान हेल्पलाइन की घोषणा की।समाचार पत्र में इसका नम्बर देख गोपाल को आशा की किरण नजर आई।उसने कई बार नम्बर मिलाया तब जाकर बात हुई।उसने राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत गन्ना बीज की नर्सरी पर मिलने वाला अनुदान न मिलने की बात बताई।इसपर उन्होंने गन्ना दफ्तर जाकर मिलने को कहा।कई बार वहाँ जाकर इस सीट से उस सीट के चक्कर लगा थका हारा गोपाल झुझलाकर बोला,आपको यही रटारटाया जबाब देने को बैठाया गया है।वहाँ सेटिंग वाले अनुदान प्राप्त कर रहे हैं,हमारी वहाँ कोई सुनवाई होती तो आपके पास क्यों आता।कहकर फोन काट दिया।
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(15). श्री सुधीर द्विवेदी जी
जिम्मेदारी
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घर का चूल्हा उसी की दिहाड़ी का मोहताज़ था और ठेकेदार था कि रामलीला के आयोजन में स्वयं को व्यस्त बता कर उसे कई दिन से टरकाये था।
आज उसनें ठान लिया था कि किसी भी हालत में खाली हाथ घर नही लौटेगा। ठेकेदार उसे पंडाल के बाहर ही खड़ा मिल गया। वह लपक कर ठेकेदार के सामनें जा खड़ा हुआ।
उसे देखते ही ठेकेदार नें पहले तो उसे टालनें का प्रयत्न किया पर जब वह टस से मस न हुआ तो उसे दुत्कारते हुए पंडाल में चला गया।
निराश होकर वह वापस चल दिया । तभी ठेकेदार नें उसे आवाज़ लगाई । पलट कर वह फ़िर आ खड़ा हुआ ।
"आज एक आदमीं नही आया है। अगर चाहो तो उसका पात्र तुम कर सकते हो। पैसा.. तुरन्त मिलेगा।" ठेकेदार नें चारा फेंका। मरता क्या न करता ..वह सहमत हो गया।
अपनी हड्डियों के ढाँचे पर उसनें बन्दर की कॉस्ट्यूम चढ़ाई और दुबक कर मंच पर जा खड़ा हुआ। मंचन शुरू हो गया।
कुछेक प्रकरण के बाद सागर पर सेतु बाँधने वाला प्रकरण आरम्भ हुआ। "प्रभु ! आपकी सेना में ये दो वानर ऐसे है जिनके स्पर्श मात्र से पत्थर पानी में तैरने लगेंगे।" समुद्र का पात्र निभा रहे अभिनेता ने उसके साथी नत्थू के साथ उसकी ओर भी संकेत किया। पर्दे के पीछे खड़े ठेकेदार के घुड़कने से दोनों मंच पर आगे आ गए।
"आगे बढ़ो प्रिय वानरों ! सेतु निर्माण अब तुम्हारा दायित्व है।" राम बनें अभिनेता ने दोनों में जोश फूंका।
मौक़ा पाते ही उसने झटके से माइक झपटा और भभक उठा।
"घर का चूल्हा भी हमाई जिम्मेदारी है। अब तो जे पत्थर तभी उतरायेगे जब ये हरामी ठेकेदार हमाई दिहाड़ी देगा। "आक्रोश से दहाड़ते हुए उसनें वानर बनें नत्थू को कोहनी मारी तो लपुझैय्याँ सा नत्थू भी उसके बगल में तन कर खड़ा हो गया।
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(16). श्री तेजवीर सिंह जी
वैलेंटाइन डे
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रवि पेशे से इंजीनियर था! एक महीने की छुट्टी आया था! बीस फरवरी को उसका विवाह था! उसकी मंगेतर रेखा पढ़ रही थी! आज वैलेंटाइन डे था! दोनों परिवारों की रज़ामंदी से वे दोनों एक साथ कुछ समय बिताने के लिये घर से बाहर निकले थे! अतः वे शहर के मध्य स्थिति बड़े से पार्क में चले गये! पार्क के कोने में एक छोटा सा मंदिर भी था! दोनों मंदिर में हाथ जोड़ कर मंदिर के बाहर वाली दीवार के सहारे बैठ गये! दोनों बेहद खुश थे! अपने अपने अतीत के किस्से सुना रहे थे! भविष्य की योजनायें बना रहे थे! कभी हँस रहे थे, कभी गुनगुना रहे थे! दोनों के चेहरों से नूर टपक रहा था! सारे ज़हाँ से बेखबर अपनी ही दुनियां में खोये हुए थे!
अचानक कुछ उन्मादी युवकों का झुंड हाथों में डंडे और सरिये लिये आया और उन दोनों पर टूट पड़ा! वे लोग वैलेंटाइन डे के विरोधी थे! उन्होंने रवि और रेखा को कुछ कहने सुनने का अवसर ही नहीं दिया! पल भर में मुस्कुराते हुए चेहरे लहू लुहान जमीन पर पड़े थे! मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा एक पागल जैसा दिखने वाला भिखारी , यह सब नज़ारा देख रहा था! वह तमतमा कर आवेश में उठा और उन दोनों के बहते लहू से मंदिर की दीवार पर, यह लिख कर चला गया!
“यहाँ परिंदों के चहकने पर पाबंदी है”!
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(17). श्री हरिकृष्ण ओझा जी.
नेताजी के आने का ऐलान हुआ, सभी झोपड़पट्टी वाले काम धंधा छोड़कर पण्डाल में 45'तापमान में अपने अंगोछे की छतरी बनाकर अपनी अपनी जगह बैठ गए, लाल बत्ती की पांच सात गाड़ियां चूं-चूं करती पण्डाल के पास आकर रुकी और शुरू हुआ भाषण, "हम आप के लिए यहाँ नए घर बनवाएँगे" "हम 24 घंटा पानी बिजली देंगे" यही भाषण पिछले 20 सालों से सुनते आ रहे थेI घर तो छोड़ो पानी तक नहीं आता हैI एक वृद्ध को उसका भाषण ऐसा लग रहा थाI जैसे मानो कानो में कोई गर्म तेल उड़ेल रहा हो, रहा नहीं गया, अपना लठ उठाया और खड़ा हो गया, जोर जोर से बड़बड़ाने लगा, चारों और नजर घुमाई एक अकेला डर गया, और वापस बैठने के लिए निचे झुका, अचानक पीछे से आवाज आई "ऐ बोत देखे है तेरे जैसे नेता, तू कोण होता हैI घर बनाने वाला, सुनकर ऊपर उठा देखा सैकड़ो लोग खड़े हो गए, कुनबा बनता देख, नेता जी जनता का आक्रोश भांप गए, और जिस गति से आये थे, उसी गति से चूं-चूं करते लाल बत्ती में वापस चले गएI
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(18).श्री मोहन बेगोवाल जी
आक्रोश
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ऋचा माँ के साथ १८ नं कोठी में दाखिल हुई तो दंग रह गई । बड़ी सुनसान कोठी और हर कमरे में ए. सी. और टी. वी । एक कमरे में ए सी टी.वी दोनों ही चल रहे थे । आज पहली बार माँ के साथ ऋचा यहाँ आई थी, इतनी बड़ी कोठी में ।
“माँ,क्या ये आदमी अकेला ही रहता है,क्या कोई काम नहीं करता” ऋचा ने कहा ।
“चुप” माँ ने ये कह ऋचा को चुप करा दिया ।
मगर फिर खुद ही कहने लगी “क्या जरूरत है, इनको काम करने की” ।
“हाँ, बड़े लोग काम थोड़ी करते है, मजे करते हैं” ऋचा ने माँ के साथ ही कहा ।
“नहीं नही काम तो करता है, मगर आज कल छुट्टियाँ चल रही हैं ”माँ ने कहा ।
“मगर छुट्टियाँ तो हमें भी होती है, मगर हम तो फिर भी काम करते हैं” ऋचा ने फिर कहा ।
“माँ तुझे तो छुट्टियाँ भी नहीं होती” ।
“हाँ, काम करते हैं, तभी तो गुजारा चलता”माँ ने फिर कहा । “मगर इतने सवाल नहीं करते” माँ ने ऋचा को चुप रहने की हिदायत दी ।
जैसे जैसे माँ कमरे में पोछा लगा रही थी,उसके मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे साथ ही वह ऋचा के चेहरे पर हो रही तब्दीली को पढ़ कर हैरान भी हो रही थी ।
मगर पता नहीं क्यों वह जल्दी से काम खत्म कर ऋचा को बाहर ले जाना चाह रही थी, मगर फिर अचानक ही खुद को कहने लगी ये शहर तो कल फिर लाएगी, मगर काम के लिए नहीं ।
अगर ये देखे, सुनेगी तो पता चलेगा दुनिया कैसी है।
उस दिन उसका पति भी तो कह रहा था, शहर जाएगी तो इसे पता चलेगा, तो ऋचा को आज लगा कि इन में और हम में अंतर क्यों?
उसके मन में आक्रोश पैदा हो रहा था ....... ।
“तभी तो ये खुद या समाज में सकारात्मक तब्दीली के लिए गुस्सा या आक्रोश तो अति जरूरी है ", पति के कहे शब्दों को वह फिर दोहराने लगी ।
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(19). श्री सुलभ अग्निहोत्री जी
मुआवजा
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शहर में दंगा हो गया था। दोनों पक्ष जगह-जगह आमने-सामने थे। अफवाहें कच्चे कानों के पंखों पर सवार बेलगाम उड़ रही थीं। तभी खबर उड़ी कि चैक पर एक मारा गया। दोनों पक्षों को यही समझ आया कि उनका आदमी मारा गया। बहुतों ने चैक के आसपास रहने वाले अपने परिचितों को मोबाइल लगाया पर किसी को किसी से कोई सही जानकारी नहीं मिल पाई। पता नहीं खबर सच थी या झूठ किंतु उसने दंगा और भड़का दिया था।
ऐसे में वही हुआ जो होना था। शहर के कई क्षेत्रों में कफ्र्यू घोषित हो गया। पुलिस ने खदेड़-खदेड़ कर लोगों को अंदर कर दिया। दो दिनों में ही सबकी बिल्ली बोल गयी। दो दिन बाद मृतक के पक्ष के लोग एस.पी. के कार्यालय में अपना विरोध दर्ज करवाने के लिये जमा थे। उनके राजनैतिक आका भी साथ में थे। सभी बेहद आक्रोश में थे, नेता लोग एस.पी. महोदय के तबादले से लेकर सस्पेंशन तक की धमकियों से नवाज रहे थे। इस बीच आॅफिर में मौजूद क्लर्क ने कम्प्यूटर आॅन कर दिया था। एस.पी. महोदय ने सबका ध्यान उस ओर आकर्षित किया। दंगे की सीसी टीवी फुटेज चल रही थी। दोनों ओर से पत्थर चल रहे थे। मृतक सबसे अधिक उन्माद से पत्थर चला रहा था। तभी मृतक के थोड़ा पीछे एक घर के दरवाजे में खड़े एक युवक के हाथ में कट्टा चमका। उसने धीरे से सामने की भीड़ का निशाना लिया। ओह शिट ! उसके पीछे से तेजाब की बोतलें लिये दौड़ते आ रहे एक अन्य युवक का कंधा उससे टकराया और निशाना चूक गया। गोली उनके अपने पक्ष के ही सबसे उन्मादी व्यक्ति के लग गयी थी।
नेताओं के चेहरे फक थे, बोलती बंद थी। एस.पी. महोदय अजीब से भाव से उन्हें घूर रहे थे। ये लोग सत्ता पक्ष के समर्थक थे।?
दूसरे दिन लोगों को अखबार में पढ़ने को मिला कि नगर के फैले साम्प्रदायिक दंगे में मारे गये व्यक्ति के परिजनों को सरकार ने 5 लाख के मुआवजे का ऐलान कर दिया है।
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(20). सुश्री नीता कसार जी
डॉक्टर का आक्रोश
"ईलाज मे अच्छे होने की सौ प्रतिशत गारंटी नही। भगवान पर विश्वास करो अगले चौराहे के मंदिर में ईलाज करवाओ"
ये क्या लिखा है डाक्टर साहब दीवार पर?
"दुर्गाप्रसाद तुम्हें पता होगा, पिछले महिने पार्षद का बेटा दुर्घटना के बाद आते ही मर गया था , कितनी तोड़ फोड़ की थी।
उसके परिजनों ने, मारपीट की डाक्टरों के साथ। हम यहाँ लोगों की जान बचाने के लिये है, और हमे जान बचाने के लाले पड़ जाते है , हम सेवाभाव से कार्य करते है।
पल में हमें भगवान बना देते है, पल में खुद हैवान बन जाते है, एक हम है हड़ताल पर जायें तब भी आकस्मिक चिकित्सा सेवायें देते है ।"
कहते हुये डां०महेश ने हाथ जोड़ लिये ।
हमें भगवान नही, इंसान ही समझ लें लोग बडी मेहरबानी होगी भाई ।
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(21). श्री गोविन्द पंडित स्वप्नदर्शी जी
नफरत का ज़हर
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रकीब और मनोहर के घर के बीच बमुश्किल सौ मीटर का फासला था। दोनों परिवारों के बीच भाईचारे का सिलसिला पुरखों से ही चला आ रहा था। किन्तु, रकीब और मनोहर ने मिलकर इस भाईचारे को अटूट दोस्तना का जामा पहना दिया था। इलाके भर में उनकी दोस्ती की दाद दी जाती थी। उनलोगों ने दोस्ती का एक मिशाल कायम कर दिया था, जिससे कई सांप्रदायिक रंग उनके सामने आते ही बेरंग हो गए थे। इसी वजह से अपने-अपने कोमों में वे लोगों की ईर्ष्या के शिकार होते रहे थे।
आज उसी मुहल्ले के एक व्यक्ति ने सुबह ही शहर जाने वाली बस के पास रकीब की अठारह वर्षीय बेटी रबीना और मनोहर के बाईस वर्षीय बेटे सजल को एक साथ देख लिया था। इसकी खबर उसने अपनी विरादरी वालों को दी। सभी लोग रकीब के घर के पास आकर मोजमा बनाने लगे। रकीब तक जब यह बात पहुंची तो पहली दफ़ा उसे विश्वास नहीं हुआ किन्तु, सुबह से ही बिन बताए रबीना और सजल को घर से गायब पाकर वह भी विरादरी वालों के मजहबी रंग में रंग गया। धीरे-धीरे वहाँ आक्रोश की दहकती हुई भट्ठी तैयार हो गई।
कुछ ही देर में उन लोगों की हुजूम ने मनोहर के घर पर हल्ला बोल दिया। घरवाले तो भागकर बच गए किन्तु, उसका घर आग के हवाले हो गया। चारों ओर भगदड़ मच गई। दूसरे पक्ष के लोगों ने भी मोजमा बनाकर रकीब का घर जला दिया।
दोनों के घर धू-धू कर जल रहे थे, उसी समय रबीना अपने हाथों में कैक का एक डब्बा थामे वहाँ पहुंची। सजल भी उसके पीछे मूर्तिवत खड़ा था। घर को जलते देखकर रबीना वहीं घुटने के बल गिर पड़ी, सजल को घरवालों ने पकड़कर एक ओर ले गया।
आज रकीब की शादी की चालीसवाँ सालगिरह थी। उसकी बेटी ने घर में एक सरप्राईज़ पार्टी रखी थी। उसी के इंतजाम के लिए वह बाजार गई थी और कैक लाने के लिए सजल को शहर भेज दिया था। किन्तु, एक मजहबीपरस्त के बदमिजाजी शक ने भाईचारे की उस हवा में नफरत का जहर घोल दिया, जहां पलभर में ही सबकुछ तबाह हो गया, शेष रह गई थी घर से कुछ दूरी पर छिटकी हुई वह तस्वीर जिसमें रबीना सजल के हाथों में राखी बांध रही थी।
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(22). सुश्री कांता रॉय जी
सुरंग
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" माँ , आप तो चित्रा के बारे में जानती है सब कुछ , तो अब किस बात का संशय है? "
अभि के कहते ही उसने चित्रा की ओर देखा।
" हाँ , बहुत खूबसूरत है। इसमें मुझे मेरी खोई बेटी नजर आती है। "और भावातिरेक में बह गई।
" आँटी , मै चाय बना लाऊँ "
" नहीं , रहने दो ,मै बना लाती हूँ "
" आप तो रोज बनाती है।आज मै बना लाती हूँ ?"
मन भँवर में फँसा हुआ था । क्या करें ,होने दे जो होने वाला है। दायित्व-विहीन हो जाये । बेटे के व्याह का सपना ,बहू की पीली हथेली , वर्षों से आँखों के सामने नाचती थी। स्वप्न पूरा होने के लिए आज सामने हैै। इजाज़त उसे देनी होगी।
" अभि ,तू ऐसा कर ,बाज़ार से कुछ मीठा ले आ।" अचानक जैसे कुछ सूझ गया।
" आँटी , रहने दीजिये ना ! "
उसके हाथों को धीरे से दबा दिया। " जाने दे उसे , पढ़-लिख कर इतना बड़ा बन गया लेकिन अक्ल नाम का नहीं ! जा , मीठा लेकर आ ! "
वह झुँझलाकर सीढ़ियों की तरफ निकल गया।
" मै जानती हूँ कि तुम दोनों स्कूल के दिनों से दोस्त हो "
" जी , आँटी "
" कितना जान पाई हो अभि को अब तक ? "
" अभि ? वे एक बहुत अच्छे इंसान है। "
" सही कह रही हो। आजकल के लड़को के मुकाबले वह बहुत अच्छा है । शराब- सिगरेट कुछ नहीं पीता, आज तक कभी किसी लड़की को भी नहीं छेड़ा है। "
" जी , आँटी , मै उनसे बहुत प्यार करती हूँ "
" हाँ , तुम दोनों की नौकरी भी अच्छी है "
" जी, इसलिए तो हमारे विचार भी मिलते है "
" हाँ ,तुम दोनों के विचार मिलते तो है लेकिन एक बात है उसकी ..."
" क्या आँटी ,कौन सी बात ?"
" तुम उसके साथ विधिवत विवाह करो ,यह मेरा सपना था लेकिन मै नहीं चाहती हूँ कि तुम उससे बँध कर रहो । क्या तुम लिव - इन में नहीं रह सकती उसके साथ ? "
" क्याs ! आपने यह क्यों कहा , ऐसा तो आज तक किसी माँ ने नहीं कहा होगा " वह भयभीत- सी हो उठी। मानो सांप सूंघ गया था !
" सुनो , उसकी हाथ उठाने की आदत है । वह बात - बात पर , मुझ पर अक्सर हाथ उठा लेता है । माँ हूँ , सहना मेरी क़िस्मत है लेकिन तुम् ...."
" क्या कह रही है आप ? लेकिन वे तो आपसे बहुत प्यार करते है "
" हाँ , वो प्यार भी बहुत करता है मुझे ! इसलिए तो तुमसे कहती हूँ .. " कहते ही अचानक से पसली की हड्डियों में फिर से दर्द जाग उठा ।
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(23). श्री राजेंद्र गौड़ जी
मैच
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देख लियो आज तो अफरीदी ने गजब ढाना हैं; इस इंडिया का बाजा बजा देंगा ।" हफीज सलीम से बोला
"मैच कहाँ देखेगा ? तेरे घर में कौन सा टेलीविजन हैं।" सलीम उसे सवालिया नजरो से देखते हुए बोला
"मैने इस बार अडवांस ले कर टेलीविजन खरीद लिया हैं, ख़ास आज के लिये ।" हफीज ने सलीम को शौकी दिखाते हुए कहा
"वैसे एक बात ध्यान रख, ये खेल हैं; ज्यादा दिल मत लगा ।" सलीम ने हफीज को समझाते हुए कहा
"तु क्या समझेगा साले हर बार वर्ल्डकप में हार का बदला लेंगे इस बार, अफरीदी ही नही बॉलर भी रंग में हैं । मैं तो एक बार बैठ कर मैच पूरा होने के बाद ही खाने पर बैठूंगा ।" अति उत्साह और आशा से भरे हफीज ने कहा
"इंशा अल्लाह तेरी मुराद पुरी हो; हम भी तो यही चाहते पूरा पाकिस्तान यही चाहता हैं पर भाई खेल हैं इसको जरूर ध्यान रख ।" कह कर सलीम अपने काम में लग गया
मैच शुरू हुआ और हफीज और उसका परिवार तीसरी मंजिल के एक कमरे के मकान में खेल देखने लगा । खेल अपने उतार चढ़ाव से लबरेज था आशा और निराशा अपने रंग दिखा रही थी कि अंत में बौखलाया हफीज टेलीविजन की ओर बढ़ा तो हफीज की पत्नी बस यह ही कह पायी; अरे पागल हो गये क्या इतने में तो टेलीविजन नीचे गली में भीषण आवाज़ के साथ छितरा हुआ पड़ा था ।
"साले फ़िर पैसा खाँ गये ।" कह कर हफीज मुँह ढक कर पड़ा रहा
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(24). सुश्री आशा जुगरान जी
नगर वधू
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एक ओर खरीददारों की जमात तो दूसरी ओर तलवार के दम पर लूटने वालों की धाक.वृद्ध अशक्त पिता की निगाह में लाचारी देख वह सिसक उठी.
"बाबा, दैहिक सौन्दर्य की यह जान लेवा स्थिति,न सौन्दर्य की रक्षा. न सुंदरी का सम्मान."आक्रोशित हो कांपते हुए बोली,
"मैं नगर की अपूर्व सुंदरी हूँ इसलिए न ? मैं नगर वधू बनना स्वीकार करती हूँ." पिता आश्वस्त हुए कि बेटी के निर्णय ने रक्तपात होने से बचा लिया.
विधि-विधान के अनुसार नगर वधू को शिविका में बैठा कहारों ने निर्धारित महल में पहुँचाया.सामंत-सरदार,राजकुमारों के प्रति छिपा आक्रोश उसके अंतर में उफान ले रहा था.तबले की थाप और वीणा की झंकार के साथ उठती क्रोधाग्नि, सुगन्धित द्रव्यों का संयोग पा और भी भड़क रही थी.अपनी भाव-भंगिमाओं से अब वह सामंतों की झोली को मन चाहा लूट रही थी .एक ओर मोती-माणिक्यों की बरसात थी तो दूसरी ओर सत्तानशीं मदहोश हो उसके चरणों पर लुढ़के चले जा रहे थे. राज व्यवस्था और नियमों में बेटी को सुरक्षित पा पिता ने राहत की सांस ली.
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(25). श्री जवाहरलाल सिंह जी
‘वेतन में कटौती’
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वह’ अनुबंध में काम करता है, समय से आता है पर अक्सर काम के दबाव में विलम्ब हो ही जाती है. बड़ी ईमानदारी से काम करता है, कभी भी ‘न’ नहीं करता है. विभाग की हर सामग्री को सम्हाल कर रखता है, कभी किसी भी चीज का दुरूपयोग नहीं करता. दोपहर में खाना खाकर भी आराम नहीं करता, बल्कि कुछ तकनीकी चीजों का अध्ययन करता रहता है. साहब लोगों का व्यक्तिगत काम भी हंसते-हंसते कर देता है. वैसे वह कभी अनुपस्थित नहीं होता. एक बार उसे आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ा और तीन दिन की हाजिरी नियमानुसार कट गयी. उसे तीस दिन के बजाय २७ दिन के वेतन मिलने चाहिए. नीचे वाले साहब ने अप्रूव भी कर दिया. पर ऊपर वाले साहब (जिसकी गाड़ी वह अक्सर धो दिया करता था) ने कहा – “तुम तो २६ दिन ही ड्यूटी करते हो. इसलिए तुम्हे सिर्फ २३ दिन का ही वेतन मिलेगा.” उसे लगभग १२० रुपये का नुक्सान हुआ. वह मन ही मन बहुत दुखी हुआ. दूसरे साहब उसके प्रति सांत्वना व्यक्त कर रहे थे और बड़े साहब को कोस रहे थे.
“कितना मन लगाकर काम करता है यह लड़का, अक्सर देर तक रुक जाता है. क्या मिला उनको एक गरीब आदमी के सौ रुपये काटने से? कोई अपना पॉकेट से तो दे नहीं रहे थे. चाहे जितना भी पूजा पाठ कर लें, पर एक गरीब आदमी का हक़ मारने से उनका कभी भला नहीं होगा.”
आज फिर वह ‘बड़े साहब’ की गाड़ी धो रहा था. आज उसने काफी देर लगाई गाड़ी धोने में. फिर चाभी देकर घर जाने ही वाला था कि साहब को भी घर से जल्दी आने का बुलावा आ गया. गाड़ी स्टार्ट न हुई तो उन्होंने ‘उसको’ आवाज लगाई. ‘वह’ फ़ौरन आ पहुंचा और गाड़ी में धक्के लगाकर गाड़ी स्टार्ट करवा दिया. दोनों ने एक दूसरे को देखा. आज उसका ‘आक्रोश’ शांत हो चुका था.
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(26). श्री ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी
नानू के मन में आक्रोश:
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सात वर्षीय नानू के मन में आक्रोश भरा था। वह अपनी माँ से शिकायत किए बिना नहीं रह सका, "माँ, मैंने चाचा को गौशाले में दूध दुहने के बाद पूरी गिलाश भरी दूध अपने बेटे मानू को पिलाते हुए देखा।"
चाची के अचानक देहांत के बाद चाचा काफी दुखी रहते थे। उनके दोनों बच्चों के भरण - पोषण की जिम्मेवारी भी, बड़ी होने के कारण नानू की माँ और पिताजी पर ही आ पडी थी। चाचा पर गायों को खिलाने और दूध निकालने की ज़िम्मेवारी थी।
पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधे रखकर आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी नानू की माँ ने बखूबी अपने ऊपर ले ली थी। नानू ने तो सच्चाई जान ही ली थी। अपने बेटे के मन में संदेह के अंकुर को पनपने से पहले ही उखाड़ने की कोशिश करते हुए नानू की माँ ने कहा, "नानू, मानू की माँ नहीं है न, इसलिए गाय की दूध पहले उसे ही देना जरूरी है, समझ गए न।"
छोटा नानू इस उत्तर से निरुत्तर - सा हो गया। पर नानू की माँ ने बच्चे के मन से विभेद के भाव को मिटाकर पारिवारिक सम्बन्धों में संदेह के तंतुओं को बढ़ने से रोक दिया था। छोटी - छोटी बातों का ख़याल रखकर ही रिश्तों की डोर को मजबूत बनाते हुए संयुक्त परिवार के ढाँचे को कायम रख जा सकता है।
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(27). श्री सतविंद्र कुमार जी
ताज़ा ख़बर
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प्राइम टाइम में टीवी का रिमोट हाथ में झूम रहा था।अंगुलियाँ अलग-अलग बटन पर दबाव डाल रही थी।टीवी पर अचानक एक ताजा खबर फ्लेश हुई -अस्पताल में प्रसूता की बच्चे सहित मृत्यु से परिजनों में आक्रोश है। खबर में रूचि बढ़ गई। रिमोर्ट को अँगुलियों की कैद से मुक्ति मिली।
खबर में-डॉ और स्टाफ की लापरवाही से हुए इस हादसे से सकते में आए परिजन एवं सम्बन्धी मुख्य मार्ग पर आ गये हैं।उस पर जाम लगाकर प्रशासन से अस्पताल के खिलाफ़ सख्त कार्यवाही की मांग करने लगे।आवेशवश एक-दो वाहनों में तोड़-फोड़ कर मार्ग के बीचों-बीच खड़े कर दिए हैं.अस्पताल की ओर का रास्ता बिल्कुल बंद हो चुका है।जिस तरह से लोगों की भीड़ और आक्रोश बढ़ता जा रहा है आगजनी जैसे हालत भी पैदा हो सकते हैं।
-ये क्या? इस समय ये खबर देखने लगे हो।यही रोज के किस्से.रिमोट दो उस वाले सीरियल पर लगाना है।
पत्नी ने तीखे स्वर में कहा।
पर खबर का मोह रिमोट को उठाकर देने के पक्ष में नहीं था।उधर भी आक्रोश बढ़ रहा था जिसका शिकार शायद रिमोट को ही होना था।पति व पत्नी दोनों की क्रोधी नज़रें टकराई।खबर में इंसानी आक्रोश की शिकार गाड़ियों का ध्यान कर रिमोट सकते में आ गया।
तभी टीवी पर प्रस्तोता की आवाज गूंजी-देखिये प्रसूति के लिए अस्पताल ले जाई जा रही एक अन्य महिला जाम के कारण समय पर अस्पताल नहीं पहुंचाई जा सकी।बीच सड़क पर गाड़ी में ही दिया बच्चे को जन्म।
अब दोनों आवाक् से खबर देखने लगे.
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(28). सुश्री जानकी वाही जी
अपने बारे में (आक्रोश )
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"लो आ गई ठीक समय पर। घड़ी मिला लो इनसे।" गिलास ने थाली को कोंचा। उनकी बात से बेख़बर गोपुल दी आकर चौखट पर बैठ गईं।
" हाँ ! इन्हें तो सदियों की बेड़ियों से भी कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है।पर मैं तो शर्म से ज़मीन में गढ़ जाती हूँ जब ठकुराइन दूर से रोटी और सब्ज़ी मेरे ऊपर फेंकती हैं।" थाली ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
" मुझे भी अच्छा नहीं लगता ये सब।आखिर हमारे साथ इतना भेदभाव क्यों करते हैं? हम दूसरे बर्तनों से भला किस मामले में कम हैं?" गिलास ने नाराज़गी ज़ाहिर की।
"यही तो , मैं तो घर से बाहर ताक पर अलग-थलग बहुत बेगाना महसूस करती हूँ अपने को।" थाली की उदासी उसकी बातों से टपक रही थी।
" अच्छा ! पर गोपुल दी तो खुश होती हैं कि ठकुराइन और वे साथ साथ चाय पीती हैं। खाना खाती हैं।बतियाती हैं।सुख दुःख बाँटती हैं।पर मैं, अब इस चापलूसी से उकता गया हूँ।" गिलास की आवाज़ में बग़ावत की बू महसूस हो रही थी।
" वो तो भोली है गिलास भाई ! पर मैं महसूस कर रही हूँ, तुम्हारे अंदर की आग को ... देखना वह एक दिन इस दकियानूसी परम्परा को जला डालेगी।" चौखट बोली ।
" वो कैसे ?"थाली अपनी उत्सुकता छुपा न पाई।
" क्योंकि अब तुम लोगों ने अपने बारे में सोचना जो शुरू कर दिया है।"ये कह चौखट कुछ सोचकर मुस्कुरा दी।
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(29) श्री सौरभ पाण्डेय जी
गेम (आक्रोश)
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शाम के आठ बजे थे । कस्बे में उत्पात का आज तीसरा दिन था । हर तरफ मारकाट मची थी । बात ही ऐसी थी । पीर बाबा की मज़ार पर परसों सुबह-सुबह किसी ने माँस का एक बड़ा-सा टुकड़ा फिंकवा दिया था । एकदम से बलवा हो गया । दूसरे दिन दोपहर होते न होते मनसादेवी मन्दिर से भी ऐसी ही घटना की ख़बर फैल गयी । फिर तो बस, कौन किसी की सुनता, कौन किसीको समझाता ! कस्बे की हालत अँगीठी पर रखे पतीले के दूध की हो गयी थी ।
तभी पूर्व विधायक का स्मार्टफोन शिव-ताण्डवस्तोत्र के रिंग-टोन से घनघना उठा । स्क्रीन पर उभरे नाम को देखते ही उनके भरे-भरे होंठ तोषकारी कुटिल मुस्कान से फैल गये ।
’हाँ हारुन भाई, राम-राम !.. वत्स, तुमने तो संतुष्ट कर दिया ! और.. कैसे हो ?.. ’
’वालेक्कुमस्सलाम साहब !..’ - फिर स्पीकर की आवाज़ पूरे इत्मिनान में आ गयी - ’.. नेताजी, अपना तो येइच फण्डा है.. हाथ में जो काम लिया, फिर नहीं झाम लिया ! काम में कोई लोचा नईं मांगता अपुन को !’
’तभी तो हारुन भाई.. तुम्हारे आगे मैं किसी के प्रति आश्वस्त ही नहीं होता । कल पूर्वाह्न तक शेष राशि भी तुम्हें प्राप्त हो जायेगी । अपना वचन, समझो शिला पर खिंची रेख !.. अमिट !..’
’सो तो ठीक है साहेब.. मगर वो डेढ़ पेटी बेसी कर के मांगता है..’
नेताजी एकदम से चौंक उठे - ’ हैं, ऐसा क्यों भाई ? बात तो अपनी सात की ही हुई थी न ? ..’
’हाँ, हुई तो सात की ही थी साहेब.. मगर आपको भी मालूम है मनसा मन्दिर वाला एपिसोड.. ये तो ऐड हुआ ना..?.. सो, पचास नहीं, पूरे सत्तर बच्चे लगे अपन के..’
’तो मैं क्या करूँ ? इसके लिए मैंने कहा था क्या ? .. ’ - नेता जी एकदम से जैसे चीख पड़े ।
’अह्हाह.. ऐसे नहीं साहेब, ठंड रखने का.. !..’ - उधर की आवाज़ पूरी संयत थी - ’आपकेइच उधर अख़्तर ग़ाज़ी भी कोई चीज़ है न ? उसने ई बोला अइसा करने कू । बोला, बैलेन्स मांगता है..’
’बैलेन्स गया तेल लेने !.. उसने बोला है तो उसीसे लो ये डेढ़ लाख.. और मन्दिर में नौटंकी ? आऽऽयँ ? ..’ - नेताजी का चेहरा मारे आक्रोश के लाल हो गया था । उनकी संस्कृतनिष्ठ पद्यात्मक भाषा अचानक भदेस हो गयी ।
’देख लेना साहेब.. अपुन का गेम आज तक का ही था । इसके आगे खुद ही समझ लेना.. अपन को नईं बोलने का.. शब्बाख़ैर..’
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(30). श्री महेंद्र कुमार जी
प्रेसिडेण्ट एक्स और उनका पास्ता
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आज के सभी अख़बारों की प्रमुख न्यूज़... 'प्रेसिडेण्ट एक्स द्वारा घटना की कड़ी निन्दा। दोषियों को बख़्शा नहीं जायेगा।'
आज से आठ महीने पहले।
"सरहद से आये दिन घुसपैठ होती है, क्यों? हमारे तीन जवानों के सर काट लिए गए और हम देखते रहे, क्यों? क्यों नहीं उनकी सीमा के अन्दर घुस कर हमने जवाबी कार्यवाही की? मेरे साथियों, मैं आपको यकीन दिलाना चाहता हूँ कि यदि हमारी सरकार बनी तो पड़ोसी मुल्क़ की हर गोली का जवाब सौ-सौ गोलियों से दिया जायेगा। हमारे एक जवान के सर की कीमत उन्हें कम से कम उनके दस जवानों के सर से चुकानी पड़ेगी। पड़ोसी मुल्क़ में हमारे भाई-बहनों की जानमाल ख़तरे में है और हमारी डरपोक व नाकारा सरकार मौन है! हमारे बगल में ही हमारे अपनों को ख़ून हो रहा है, बहु-बेटियों की अस्मत लूटी जा रही है और हम शांति से बैठे हैं। खा रहे हैं, पी रहे हैं, मस्त हैं... कितने शर्म की बात है! क्या आपका ख़ून नहीं खौलता?" राष्ट्रपति पद के प्रमुख उम्मीदवार मिस्टर एक्स ने एक चुनावी जनसभा के दौरान अपनी बाहें चढ़ाते हुए कहा।
भीड़ से सहमति का स्वर उभरता देख वे पुनः बोले― "ये तो सरहद और सरहद के पार की बात है। हम अपने मुल्क़ में ही कितने सुरक्षित हैं? आये दिन देश के अन्दर आतंकवादी घटनाएँ हो रही हैं। हम उन्हें क्यों नहीं रोक पा रहे हैं? क्या ये सरकार नहीं जानती की आतंकवादी किस देश से आ रहे हैं? यदि जानती है तो कार्यवाही क्यों नहीं कर रही है? करना नहीं चाहती या करने का दम नहीं है? सच तो यह है कि इसके पास वो छाती ही नहीं है जो गोली खा सके और न ही वो जिगर है जो बन्दूक चला सके। यदि हमारी सरकार बनी तो किसी देश की हिम्मत नहीं है कि अपने मुल्क़ की तरफ आँख उठा के भी देख सके। फिर और देखिये, महंगाई दिन-बी-दिन बढ़ती जा रही है, बेरोज़गारी चरम पे है, भ्रष्टाचार नासूर बन गया है, शिक्षा व्यवस्था चरमराई हुई है, देश की अंतर्राष्ट्रीय साख पे बट्टा लग चुका है और विकास का पहिया ठप्प पड़ा है। क्या आपको इन सब पे गुस्सा नहीं आता? क्या आप अपने बच्चों के लिए ऐसा ही भविष्य चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं कि वे भी अपना जीवन आपकी तरह ग़रीबी और गुस्से में काटें? यदि नहीं तो सोचिये। यही वक़्त है परिवर्तन का..."
आज से ठीक एक दिन पहले, राष्ट्रपति भवन के अंदर।
"सर, सरहद पार से फिर सीज़फायर का उल्लंघन किया गया है। हमारे बारह जवान घायल और पांच शहीद हो गये हैं। एक अन्य आत्मघाती हमले में सेना के तीन जवान और बीस सिविलियन्स की भी मौत हो गयी है। क्या करना है?"
प्रेसिडेण्ट एक्स― "नमक कम करना है। बच्चों के लिये आज पास्ता बनाया उसमें नमक ज़्यादा हो गया है, कम करना है..."
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(31). सुश्री कविता वर्मा जी
आक्रोश
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सरहद के समीप उस शहर में आए दिन आतंकवादियों की घुसपैठ होती रहती थी जिसके कारण सेना की बटालियनें हमेशा तैनात रहती। आए दिन तलाशी होती सेना का मार्च होता और बारूद की गंध हवा को बोझिल किए रहती। उस शहर के बाशिंदे दोतरफा मार झेलते। एक ओर आतंकवादियों की धमकी दूसरी और सेना की चौकसी। जिस ओर से भी कार्यवाही तेज़ होती उसके लिए आक्रोश बढ़ता जाता कभी आतंकवादियों के लिए तो कभी सेना के लिए। धर्म अपनी प्रकृति के विरुद्ध उनकी सोच को अतिवादियों की ओर मोड़ ही लेता था और ऐसे में सेना के प्रति उनका आक्रोश स्थाई भाव होता जा रहा था।
वह भी तो नफरत करता था सेना से अपने शहर अपने प्रदेश की शांति का दुश्मन ही समझता था। यदा कदा उनके खिलाफ प्रदर्शन पथराव कर अपना गुस्सा जाहिर करता था।
उस रात बारिश ने अपना कहर बरपाया और सुबह का सूरज धरती पर नहीं पानी की विशाल चादर पर चमका। घर बस्ती दुकान मकान सब जलमग्न हो गये। मुसीबत में साथ देने का दम भरने वाले स्वार्थ के सोच में डूब गए। अचानक उस विशाल जल राशि पर सैकड़ों कश्तियों में सेना के जवान उनकी मदद को आये और उसकी बूढ़ी माँ पिता बीवी बच्ची को जिस प्यार और सम्मान से सुरक्षित निकाल कर उनके पुनर्वास की व्यवस्था की। उसका आक्रोश आंखों से पिघल कर बह गया।
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(32). श्री विनय कुमार सिंह जी
नामर्द
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रोज की ही तरह आज भी रग्घू खूब पी कर आया था और आते ही खटिया पर पसर गया| रधिया को नफरत थी इस शराब से लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी इसे छुड़ा नहीं पायी थी रग्घू से| पिछले दस साल से इसी सब से गुजर रही थी वो, अक्सर पिट भी जाती थी लेकिन कहाँ जाए, इसलिए सब बर्दास्त कर जाती थी| अभी तक कोई बाल बच्चा भी नहीं हुआ था और अब उसके लिए भी पास पड़ोस से ताने सुनने पड़ते थे| आज भी किसी पड़ोसन ने उसे बाँझ कह दिया था और उसका मन बेहद दुखी था|
"कहाँ मर गयी, कुछ खाने को भी देगी", खटिया पर लेटे लेटे ही रग्घू चिल्लाया|
वो अपने विचारों से बाहर निकली और थाली में खाना निकाल कर रग्घू के पास आई|
"मुंह हाथ तो धो लेते कम से कम खाने के पहले", कहते हुए उसने थाली को खटिया पर पटक दिया| रग्घू को उसका बोलना और इस तरह थाली पटकना, दोनों खटक गया|
"बहुत बोलने लगी है, थाली पटकेगी तू", रग्घू एकदम से गुस्से से उबल गया और खटिया से उतर कर उसको एक हाथ कसके मारा| रधिया दीवाल के पास जाकर गिरी, पीछे पीछे रग्घू आ गया और उसे और पीटने लगा| थोड़ी देर के बाद रग्घू उठा और खटिया पर बैठते हुए चिल्लाया "आगे से कुछ ऐसा किया तो तोड़ के रख दूंगा, मर्द हूँ तेरा"|
रधिया कराहते हुए उठी, उसकी ऑंखें गुस्से में जल रही थीं| उसने खड़े खड़े रग्घू की ओर थूक दिया और चिल्लाकर बोली "मर्द कहता है अपने आप को, तू मर्द नहीं है, तू नामर्द है"|
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(33). सुश्री सविता मिश्रा जी
पैंतरा
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बरामदे में लगे कैक्टस के पौधों को काटते देख रामलाल बोले, "बेटा इतने प्यार से लगाया था तुने। कहाँ-कहाँ से तो खोज कर लाया था दुर्लभ प्रजाति। अब क्यों काटकर फेंक रहा?? तू तो कहता था कि इन कैक्टस में सुंदर फूल उगते हैं? वो खूबसूरत फूल मैं भी देखना चाहता था।"
"हाँ बाबूजी, कहता था, पर फूल आने में समय लगता है परन्तु कांटे साथ-साथ ही रहते। आज नष्ट कर दूंगा इनको!"
"मगर क्यों बेटा?"
"क्योंकि बाबूजी, आपके पोते को इन कैक्टस के कांटो से चोट पहुँची है।"
"ओह, तब तो समाप्त ही कर दो! पर बेटा इसने अंदर तक जड़ पकड़ लिया है! ऊपर से काटने से कोई फायदा नही!"
"तो फिर क्या करूँ??"
"इसके लिए पूरी की पूरी मिट्टी बदलनी पड़ेंगी। और तो और इन्हें जहाँ कहीं भी फेंकोंगे ये वहीँ जड़ जमा लेंगी।"
"मतलब इनसे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं?"
"है क्यों नहीं! बस धूप में तपा दो।"
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(34). योगराज प्रभाकर
(लावा)
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कोमल सदैव माँ को रसोई के साथ रसोई होते देखती आई थीI कपड़ों से तेल घी की गंध और आटे से सने हुए हाथ माँ की पहचान बन चुके थेI आज भी रसोई में पसीने से लथपथ माँ को देख कर वह बिफरी:
“माँ क्या रसोई में काम करने का ठेका आप ने ही ले रखा है?
“घर में महमान आए हुए हैं बेटी, और फिर ये अपना ही तो काम हैI”
“घर में चाची भी हैं और दादी भी, तो फिर आप ही अकेले क्यों...?”
“इन बातों को छोड़ो बेटी, तुम्हारी इंटर की पढ़ाई है तुम उस पर ध्यान दोI” उसकी बात काटते हुए माँ ने कहाI
“नही माँ! मैं भी आपका हाथ बटाऊंगीI” उसने सलाद काटना शुरू किया ही था कि बाहर से आती दादी माँ का स्वर गूँजा:
“अरे बहू हो गया खाना तैयार?”
“हाँ माँ जी! तक़रीबन सब कुछ तैयार हैI”
“तुझे पता है ना कि मेरे भैया को शाही पनीर और राजमा कितने पसंद हैं?” रौबीले स्वर में दादी ने कहाI
“दोनो चीज़ें तैयार हैं, बस बस रोटियाँ सेंकनी ही बाक़ी हैंI”
“अरे कितनी बार बात बता चुकी हूँ कि भैया खुश्क रोटी पसंद नही करते, उनके लिए देसी घी के पराठे बना देना, समझीं?”
“समझ गई माँ जीI” एक अपराधी की तरह माँ ने उत्तर दियाI
“अरे हाँ! ज़रा पनीर और राजमा का स्वाद तो दिखाI देखूँ कहीं नमक मसाला कम ज़्यादा तो नहीI”
“वो रही दोनो चीज़ें दादीI” कोमल ने डोंगों की तरफ इशारा करते हुए रूखे स्वर में कहाI
“ठीक बनी हैं माँजी? कोई कमी बेशी हो तो बताएँI” डरते डरते माँ ने पूछाI
सास के फ़ैसले का बेसब्री से इंतज़ार कर रही माँ के बदलते हुए हाव-भाव और दादी के हर चटखारे के साथ कोमल की त्योरियाँ चढ़ रही थींI
“दोनो चीज़ें बहुत बढ़िया बनी हैं, ना कुछ ज़्यादा ना कमI अब जल्दी से परांठे भी बना लेI” कहकर सासू माँ रसोई से बाहर निकल गई, माँ ने बेटी की तरफ मुड़ते हुए कहा:
“तू जा यहाँ से बेटी! और जाकर इम्तिहान की तैयारी कर, मैं ज़रा स्टोर से आटा लेकर आती हूँI” पसीना पोंछते हुए माँ ने कहाI उसके बाहर जाते ही वह शाही पनीर और राजमा से भरे डोंगो को टेढ़ी नज़र से घूरते हुए कोमल बड़बड़ाने लगी:
“पिछले महीने मेरे मामा जी भी तो यहाँ आए थे. वो भी तो मेरी मम्मी के भाई थेI उनको तो सिर्फ़ चाय पिलाकर ही टरका दिया था दादी नेI और अब खुद अपने भाई की इतनी सेवा? कितना रोई थी माँ उस दिनI”
दादी के सामने दुबक कर बैठे हुए मामा जी का भयभीत सा चेहरा और माँ का पसीने से तरबतर चेहरा बार बार उसकी आँखों के सामने तैर रहा थाI उसकी साँसें तेज़ हो गईं, सामने पड़े दोनो डोंगे उसे मुँह चिढ़ाते हुए प्रतीत हुएI उसने रसोई के दरवाज़े से बाहर झाँका और तेज़ी से डिब्बा खोलकर नमक की दो मुठ्ठियाँ दोनो डोंगों में खाली कर दींI
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(35). सुश्री कल्पना भट्ट जी
हल्ला बोल
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" वो देखो वो कमीना पुलिस अफसर आ रहा है पूल पर उसकी गाडी देखि है , उसको इस पार नहीं आने देना है | " भीड़ में से किसी ने आवाज़ लगायी |
यह सुनते ही भीड़ ने आस पास इक्कठे किये हुए टायर उठाये और उन्हें जला दिया| और एक आदमी ने उनकी जीप को ही जला दी | पुलिस अफसर कुछ ही पल में जलता हुआ दुनिया को छोड़ने पर मजबूर हो गया |
यह भीड़ थी , उनमे आक्रोश था , हिन्दू मुस्लिम सभी भाई भाई की तरह रहने वाले लोग थे | पर राजनीती के चलते इस अफसर ने जो कृत्य किया था उसे कैसे कोई माफ़ करता , दंगे भड़क उठे , पत्थर बाजी , लठबाजी , तलवारे चल गयी | मुस्लिम लोगो को यह कहा गया था की किसी हिन्दू ने कुरान पाक एक एक पन्ना गली में फेंक दिया है | और यह सुनते है लोगों की भीड़ और तलवारे निकल पड़ी , फिर क्या था हर तरफ मौत का खेल शुरू हो गया | देखते ही देखते लाशें ही लाशें |
लोगों का यह रुख वहीँ करीब के एक मस्जिद में मौलवी साहब को भी पता चली , उन्होंने जल्दी जल्दी यह ऐलान करवाया कि यह खूनी खेल खत्म करें , उन्होंने सभी हिन्दू और मुस्लिम भाइयों से कहा कि असल में यह कृत्य उसी पुलिस अफसर का था |
इस कृत्य कि सजा तो उसको मिलनी ही थी | राजनीति का खेल खेला जा चुका था पर लोगों का एकता से हल्ला बोल करना राजनीति पर हावी हो चुका था |
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(36). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
ज्वालामुखी
धनाढ्य लेकिन अव्वल दर्जे के शराबी के शव को देख घर चीखों से गूंज उठा था। कविता अतीत में विचरण कर रही थी।ब्याह के चन्द दिनों बाद ही उसने ससुराल जाने से इनकार कर दिया था लेकिन पिता ने नाराजगी जताते हुए कहा :
" सम्पन्न घर में हैसियत से अधिक खर्च कर इसलिये विवाह नहीं किया था की तुम पुनः वापस लौट आओ। अब जैसे भी हो सके निभाओ।अभी तुम्हारी दो बहने बिनब्याही हैं।"
कविता विवश हो ससुराल लौट आयी।हर रात कोठी उसके चीखों से दहल जाया करती थी और घर के सदस्य कानों में तेल ड़ाल सोते रहते थे।
" उठो बेटी एकबार पति को देख लो " किसी वृद्धा ने कहा ,अतीत की गलियों से निकल कविता यंत्रवत चल पड़ी और अचानक आक्रोश का ज्वालामुखी आँखों के साथ -साथ जुबां के रास्ते फट पड़ा :
" अच्छा हो गया तुमने मुझे मुक्त कर दिया लेकिन तुम्हें कभी भी और कहीं भी चैन नहीं मिलेगा। "
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(इस बार कोई कथा निरस्त नहीं की गई हैI)
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बिजली व् नेट की समस्या के कारण बाद की चार पांच रचनाएँ नहीं पढ़ पाई थी सुबह ही इस संकलन में पढना आसान हो गया |इस सुन्दर संकलन के लिए आद० योगराज जी को हार्दिक बधाई |
आ० कविता वर्मा जी ,विनय कुमार जी ,आद० कल्पना भट्ट जी बहुत अच्छी लघु कथाएं लिखी हैं बहुत बहुत बधाई |
आद० योगराज जी ,लावा बेहतरीन लघु कथा के लिए दिल से ढेरों बधाई|
हार्दिक आभार आ० राजेश कुमारी जीI
आदरणीय महोदय! ल्घुकथा गोष्ठी 15 के आयोजन के सफल संचालन और त्वरित संकलन के लिये बधाई । क्रमाॅंक 10 पर संकलित मेरी कथा ‘‘लंघन‘‘ के संबंध में मित्रों के द्वारा दिये गये कुछ सुझावों के अनुसार इसे अब निम्न प्रकार संशोधित रूप में प्रस्तुत करना प्रस्तावित है। यदि मान्य हो तो संकलन में इसे इसी प्रकार स्थान देने का कष्ट करें और यदि शिल्पगत कोई कमी/त्रुटि हो तो कृपया उल्लेख करें ताकि तदनुसार पुनः प्रस्तुत किया जा सके।
लंघन
---
स्टेशन रोड के किनारे बने ढाबेनुमा टपरे से लगे एक खंडहर की दीवार के पास बैठे आठ दस भिखारियों को ढावे के मालिक का नौकर बचे हुए जूंठन को एकत्रित कर उन्हें क्रमशः बाॅंटते हुए कह रहा है,
‘‘ हाॅं! बता कितने हैं?‘‘
‘‘ चार‘‘
‘‘ अच्छा, ले कटोरे में दाल, चावल‘‘
‘‘ तू बता रे! आज क्या फिर खाली है?‘‘
‘‘ नहीं मालिक! दो ही मिले हैं‘‘
‘‘ देख बहुत उधारी अच्छी नहीं, समझा?‘‘
‘‘ सब चुका दूंगा साब! आज तो रोटी दे दो‘‘
‘‘ ले तू रोटी, पर कल से नहीं मिलेगी, उधारी चुकाना होगी पहले ‘‘
‘‘ अबे! तू उधर क्या देख रहा है, मिला कुछ कि नहीं?‘‘
‘‘ एक रुपया ही है साब!‘‘
‘‘ साले ! दिनरात दो कट्टा बीड़ी पीने को दस रुपये खर्च करता है पर खाने के लिये एक रुपया दिखाता है, आज तो ले ले पर कल से नहीं आना‘‘
‘‘ ओ किनारे पर लेटे लाटसाहब! तुम्हें क्या अलग से निमंत्रित करना पड़ेगा, गर्मी में कथरी ओढ़े कल से डले हो, तुम्हें चाहिये कुछ ?‘‘
‘‘ नहीं ‘‘ (धीमें से बोला)
‘‘अरे! क्या मर गया? जोर से नहीं बोल सकता?‘‘
‘‘ कह दिया न!!! कोई जरूरत नहीं !!!‘‘ (अपना रहा सहा सामर्थ्य जुटा कर जोर से बोला)
‘‘अबे! गरजता क्यों है?‘‘
‘‘अरे, गरजने वाले को छोड़ो साब! उसका हिस्सा मुझे दे दो, वह तो कहता है कि लंघन करने से ज्वर के कष्टों से ही नहीं, कष्टदायी इस जीवन से भी छुटकारा मिल जाता है, इसीलिये वह लंघन कर रहा है।‘‘
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी,मंच संचलक एवम प्रधान संपादक महोदय,
आपके समक्ष एक विशेष अनुरोध प्रेषित करना चाहता हूं! मैंने दिनांक १७ जून २०१६ को "आक्रोश" शीर्षक से एक लघुकथा ब्लोग पोस्ट के लिये प्रेषित की थी जो कि सफ़लता पूर्वक प्रकाशित भी हो गयी! कई साथी लघुकथाकारों ने उसे बहुत सराहा!
मेरी उस लघुकथा को एक साथी साहित्यकार द्वारा आपत्तिजनक और अश्लील करार दिया गया, और गंभीर ऐतराज़ जताया! हालांकि उस साहित्यकार को लघुकथा लेखन के क्षेत्र में मैंने कभी सक्रिय नहीं देखा! उनका इस तरह का आचरण मेरी समझ से परे है! मुझे मेरी उस लघुकथा में कुछ भी अनुचित नहीं लगा!
मेरा केवल इतना सा निवेदन है आप स्वयंम उस लघुकथा को एक बार अवश्य पढ़ें और अपने विचार प्रकट करें! यदि आप इज़ाज़त दें तो मैं चाहूंगा कि गोष्ठी में भाग लेने वाले अन्य साथी लघुकथाकार भी एक बार उस लघुकथा को पढ़ें और अपनी रॉय दें! आपका सहयोग अपेक्षित है! पुनः हार्दिक आभार!
ब्लॉग पोस्ट की बात केवल ब्लॉग पोस्ट पर, यहां केवल लघुकथा गोष्ठी में सम्मिलित रचनाओं पर ही चर्चा की जाए आ0 तेजवीर सिंह जी।
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी!
आ० डॉ टी आर सुकुल जी!
सादर प्रणाम!
आपकी कथा पर गोष्ठी के चलते खुल कर नहीं कह पाया था, उसका कारण मैंने गोष्ठी के दौरान ही निवेदन कर दिया थाI वस्तुत: मुझे आपकी यह लघुकथा थोड़ी बिखरी-बिखरी सी लगी, कुछेक जगह विवरण में परिमार्जन आपेक्षित लगा तो कई जगह स्पष्टता की कमीI उदाहरण के तौर पर रचना का पहला पैरा:
१. //स्टेशन रोड के किनारे बने ढाबेनुमा टपरे से लगे एक खंडहर की दीवार के पास बैठे आठ दस भिखारियों को ढावे के मालिक का नौकर बचे हुए जूंठन को एकत्रित कर उन्हें क्रमशः बाँटते हुए कह रहा है// विवरण ज़रूरत से ज्यादा विस्तार ले गया हैI
२. //आठ दस भिखारियों को ढावे के मालिक का नौकर बचे हुए जूंठन को एकत्रित कर उन्हें क्रमशः बाँटते हुए कह रहा है// नौकर तो मालिक का ही होगा, पर क्या केवल ढाबे वाले का नौकर लिखने से काम न चल जाता?
३. //‘‘ओ किनारे पर लेटे लाटसाहब! तुम्हें क्या अलग से निमंत्रित करना पड़ेगा, गर्मी में कथरी ओढ़े कल से डले हो, तुम्हें चाहिये कुछ?‘‘// इस लाटसाहब के बारे में थोडा सा कुछ बता दिया जाना चाहिए थाI “ओ किनारे पर लेटे लाटसाहब” संवाद का यह अंश यदि उसके “एक किनारे कथरी/कम्बल ओढ़े युवा/व्यक्ति” कहकर स्थिति बता दी जाती तो प्रभावशाली दृश्य चित्रण का निर्माण हो जाताI
४. //(धीमें से बोला) तथा (अपना रहा सहा सामर्थ्य जुटा कर जोर से बोला) को ब्रेकेट के मुक्त किया जाना चाहिए थाI
५.// वह कथरी ओढ़ कर लेता हुआ व्यक्ति बकौल आपके
-(धीमें से बोला)
- (अपना रहा सहा सामर्थ्य जुटा कर जोर से बोला)
तो ऐसी स्थिति में //‘‘अबे! गरजता क्यों है?‘‘// वाले संवाद का क्या औचित्य है? इसकी जगह ‘‘अबे! अकड़ता क्यों है?‘‘ करना क्या बेहतर न होता?
६. //अरे, गरजने वाले को छोड़ो साब! उसका हिस्सा मुझे दे दो,// ढाबे वाले का नौकर पैसे लेकर खाना (जूठन) दे रहा है न कि लंगर बाँट रहा है, तो यहाँ “उसका हिस्सा” कहना बिलकुल गलत हैI
सादरI
अादरणीय महोदय ,
सादर नमस्कार।
प्रत्येक लाइन पर चिंतन करते हुए अापने जो मार्गदर्शन दिया है उसके लिए हार्दिक अाभार।
मुझे तथ्यात्मक त्रुटियों से परिचित कराने के लिए भी विनम्र अाभार।
अब क्या मै इसे फिरसे सुधार कर प्रस्तुत कर सकता हूँ या नहीं , यदि हॉ तो कब तक ?
ससम्मान।
मेरी कहे को मान देने हेतु हार्दिक आभार आ० डॉ टी आर सुकुल जीI आप अगली गोष्ठी से पहले कभी भी अपनी परिमार्जित रचना भेज सकते हैंI
अादरणीय महोदय,
अापके सुझावानुसार क्रमांक १० पर अंकित कथा को निम्नांकित रूप मे पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है यदि मान्य हो तो प्रतिस्थापित करने का कष्ट करे। ससम्मान।
लंघन
-------
ढाबे के पास एक खंडहर की दीवार के सहारे बैठे आठ दस भिखारियों को ढावे वाले का नौकर बचे हुए जूंठन को बांटते हुए कहता है-
‘‘ हाॅं! बता कितने हैं?‘‘
‘‘ चार‘‘
‘‘ अच्छा, ले कटोरे में दाल, चावल‘‘
‘‘ तू बता रे! आज क्या फिर खाली है?‘‘
‘‘ नहीं मालिक ! दो ही मिले हैं‘‘
‘‘ देख बहुत उधारी अच्छी नहीं, समझा?‘‘
‘‘ सब चुका दूंगा साब! आज तो रोटी दे दो‘‘
‘‘ ले तू रोटी, पर कल से नहीं मिलेगी, उधारी चुकाना होगी पहले ‘‘
‘‘ अबे! तू उधर क्या देख रहा है, मिला कुछ कि नहीं?‘‘
‘‘ एक रुपया ही है साब !‘‘
‘‘ साले ! दिनरात दो कट्टा बीड़ी पीने को दस रुपये खर्च करता है पर खाने के लिये एक रुपया दिखाता है, आज तो ले ले पर कल से नहीं आना‘‘
- किनारे पर कथरी ओढे लेटे हुए व्यक्ति की ओर देखकर बोला , " तुम्हें चाहिये कुछ ?‘‘
‘‘ नहीं ‘‘ वह धीमें से बोला।
‘‘अरे! क्या मर गया? जोर से नहीं बोल सकता?‘‘
‘‘ कह दिया न!!! कोई जरूरत नहीं !!!‘‘ कथरी समेटते हुए, अपना रहा सहा सामर्थ्य जुटा कर जोर से बोला।
‘‘अबे ! बिगड़ता क्यों है?‘‘
"जाने दो साब , बेचारा दो दिन से बीमार है, लंघन कर रहा है ,कह रहा था कि इससे ज्वर के कष्टों से ही नहीं, कष्टदायी इस जीवन से भी छुटकारा मिल जाता है।‘‘
यथा निवेदित तथा प्रस्थापित
हर रचना का गूढ़ आंकलन
हुआ समापन, त्वरित संकलन
प्रेषित इस निष्ठा को वंदन,
सफल आयोजन व् त्वरित संकलन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ..सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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