परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 135वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब हसरत मोहानी साहब की गजल से लिया गया है|
"अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम "
221 2121 1221 212
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मफ़ाईलु फ़ाइलुन
बह्र: मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 सितंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 सितंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय चेतन प्रकाश जी नमस्कार! बहुत-बहुत शुक्रिया आपका आपने समय निकाला ग़ज़ल तक आये और मेरी हौसला अफ़ज़ाई की!दूसरे शैर का सानी में तब्दीली कर दी गई है सादर!
मेरा नाम दण्डपाणि नाहक है आदरणीय
क्या तब्दीली की है बताइये?
दूसरा शैर इस तरह पढ़ा जाय
"जन्नत अगर कहीं है यहीं है यहीं तो है
अच्छे नहीं सनम यूँ ही सारे जहाँ से हम "
आदरणीय डंडापानी जी, अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें
आदरणीय संजय शुक्ला जी सादर अभिवादन! बहुत बहुत शुक्रिया आपका आपने वक़्त निकाला ग़ज़ल तक आये और मेरा हौसला बढ़ाया!
उम्दा गज़ल हुयी बधाई आदरणीय
221 2121 1221 212
1
बैठेंगे कब तलक सुनो यूँ बे-ज़बाँ से हम
कुछ तुम कहो वहाँ से कहें कुछ यहाँ से हम
2
चाहे बचें न अश्कों के आब-ए-रवाँ से हम
माँगेंगे पर न कुछ तेरे ज़ालिम जहाँ से हम
3
भटके हैं शह्र शह्र गली कूचे कूचे में
उठ्ठे अना में जब भी तेरी आस्ताँ से हम
4
सोचा नहीं था वक़्त कभी ऐसा आएगा
चल देंगे टूटा दिल ले के उनके मकाँ से हम
5
जो मुस्कुरा के बात ग़म-ए-दिल की कह सके
ऐसा हुनर भी बोलिए लाएँ कहाँ से हम
6
कितना भी ज़ुल्म करता रहे यह जहाँ मगर
हारेंगे जीस्त के न किसी इम्तिहाँ से हम
7
हम-दम समझ सको तो समझ लेना ख़ुद ब ख़ुद
"अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम"
8
"निर्मल" क़फ़स में ऐसे ज़रूरत के फँस गए
भटके हैं आज अपने ही नाम-ओ-निशाँ से हम
मौलिक व अप्रकाशित
बहुत अच्छी ग़ज़ल की बधाई मोहतरमा .चौथे शेर में कुछ रवानी की कमी लगी . 'लौटेंगे टूटा दिल लिए उनके मकाँ से हम' सानी में इस पर विचार हो सकता है .मकते में 'भटके' शब्द बदलाव चाहता है सानी को यूँ देखा जा सकता है .. वाकिफ़ रहे न अपने ही नामों निशाँ से हम ' सादर
आदरणीय अनिल कुमार सिंह जी, ग़ज़ल पर अपनी राय देने के लिए आभार।जी, सही कहा आपने, चौथे शेर से मैं भी संतुष्ट नहीं थी।सर् की इस्लाह आने के बाद सुधार करती हूँ।
आ. रचना बहन सादर अभिवादन। तरही मिसरे पर खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
आ. भाई अनिल जी की राय से मैं भी सहमत हूँ । सादर...
भाई लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी जी, ग़ज़ल पर अपनी राय देने के लिए आभार।जी, सही कहा आपने, चौथे शेर से मैं भी संतुष्ट नहीं थी।सर् की इस्लाह आने के बाद सुधार करती हूँ।
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