आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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//मगर झण्डे को लगा उसकी रीढ़ जमती जा रही है । उसने डण्डे की ओर देखा । डण्डा भी उसी की ओर आँखें फाड़े देख रहा था - ’झण्डेऽऽ, तू तो गया बे ! नक़्शा गया, तो फिर तू क्या है बे ?!..’
झण्डा एकबारग़ी तो सिहर गया । लेकिन फिर गहरी आँखों से देखता हुआ बोला - ’डण्डेराम, देश क़ाग़ज़ पर बना महज़ नक़्शा नहीं होता । ये नक़्शे से कहीं अलग एक मुकम्मल तस्वीर हुआ करता है, जिसके रंग हमारे ही रंग हैं.. हमारे जिये हुए रंग.//.’
देश को मह ज एक ज़मीन का टुकड़ा समझने वाली सोच पर सही प्रहार, और शिल्प और शब्द चयन का तो कहना ही क्या हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ पांडे जी!आपकी लघुकथा पर मेरा टिप्पणी करना एक अतिश्योक्ति कही जायेगी!अतः सिर्फ़ यही कहूंगा "बेहतरीन प्रस्तुति" !
आदरणीय तेज़वीर भाईसाहब, आपने दिल और मान रख लिया मेरी कोशिश का.. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय
आदरणीया प्रतिभा जी, आपसे मिला अनुमोदन मुग्धकारी है. सादर धन्यवाद
आय हाय हाय, प्रतिक और बिम्बों का 'मजगर' प्रयोग इस लघुकथा में हुआ है, जिन बातों को कहने के लिए किताब छोटी हो जाती उसे आप लघुकथा में समाहित कर दिया, बहुत ही सुन्दर, बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ भईया.
जब लघुकथा के पारखी आ लघुकथा के श्रेष्ठ से बाह बाह मिले त मन नौवाँ असमान प होला, तरेगन तूरत ! :-)))..
हार्दिक धन्यवाद गनेस भाई..
हेतना मान देवे बदे बहुते आभार भईया :-)
आपकी यह रचना कथ्य, शैली, विषय, प्रवाह, सन्देश, पंचलाइन बहुत कुछ सिखा रही है आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सर| रचना ऐसी बनी है कि इसकी प्रशंसा में शब्द कम पड़ जाएँ| इस रचना के सृजन हेतु सादर नमन आपको|
आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय चन्द्रेश भाईजी.
आप ने प्रस्तुति को समय दिया मेरे लिए पुरस्कार सदृश है. वर्ना कई आत्मीय बड़े करीने से इस प्रस्तुति के पहले वाली और इसके बाद वाली प्रस्तुतियों पर टिप्पणी कर गये हैं. कारण आपको पता चले तो अवश्य साझा कीजियेगा.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ सर, पिछले कुछ दिनों से देश में चल रही हलचल की खबर लेती बढ़िया लघुकथा. प्रतीक अपने इंगितों को खुलने के लिए उकसाते है और पाठक को भीतर तक प्रभावित करते है. वास्तव में यह सब कुछ जो हो रहा है उसे एक साथ जोड़ते हुए एक शानदार कथानक बुना है आपने. कोसने वाली कौम से लेकर अलगाववादीयों और दहशत वालों तक सबको एक ही कथा में नाप दिया. कुछ शाब्दिक इंगितों का लोप कर कथा को साहित्यिक दुनिया में चल रही राजनीति और कोसने की प्रवृत्ति से जोड़कर बिलकुल नए आयाम पर कथा को खोला जा सकता है. मुख्य तो है झंडे की डंडेराम को सीख. बहुत शानदार लघुकथा लिखी है आपने. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई सादर
आपकी संवेदनशीलता ने इस प्रस्तुति में बहुत कुछ देख लिया जो मेरे लिए भी एक रचनाकार के तौर पर एक सार्थक पहल होगी.
अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश भाई.
शुभ-शुभ
तस्वीर का दूसरा रुख
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" भाभी , मैं राजेश पर केस करना चाहती हूँ।"
" क्यों ?क्या हुआ हैं?"
" उसने मुझे धोखा दिया हैं, अपनी पहली पत्नी के लिए मुझे नौकरानी की तरह इस्तेमाल किया हैं।"
" तुम पहले से ही सब जानती थी ?फिर पिता की ओर से अनजाने में हुई उपेक्षा का बदला लेते लेते तुम उनकी नजरों में इतना गिर गयी की उनके लिए तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं रहा।कहीं इसी तरह राजेश भी तुमसे दामन ना झटक ले। "
"आज औरत की तस्वीर इतनी कमजोर नहीं रही की दामन थामने वाला कोई ना मिले "
" बेटी पत्नी और माँ होने के बावजूद भी पता नहीं तुम औरत की तस्वीर के किस रुख की बात कर रही हो?"
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