आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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हार्दिक बधाई आदरणीय कुमार गौरव जी!लघुकथा तो बेहद लाज़वाब है!कितनी सार्थक और मार्मिक बात छुपी है!
बहुत ही सुन्दर लघुकथा आकार ली है आदरणीय कुमार गौरव जी, बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर.
आदरणीय कुमार गौरव जी, आपकी किसी पहली प्रस्तुति से गुजर रहा हूँ. प्रदत्त विषय को सार्थक करती शानदार लघुकथा लिखी है आपने. लघुकथा अपने मर्म को शाब्दिक करने में सफल है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आदरणीय योगराज सर के मार्गदर्शन पर ध्यान दीजियेगा. "?", "इस" और "अगली सुबह"
लगभग दो वर्ष पूर्व मैनें एक कहानी (लघुकथा नहीं) को कहने का प्रयास किया था, "सच की तस्वीर", उसमें तस्वीर कुछ और कहती है, लेकिन आपकी इस रचना ने उस कहानी की याद दिला भाई कुमार गौरव जी| विद्यालयों में मद्याह्न भोजन के कटु सत्य को उजागर करती इस रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें| आदरणीय योगराज जी सर के सुझावों पर ध्यान देंगे तो रचना विलक्षण दिखाई देगी|
बहुत बढ़िया रचना विषय पर, बधाई आपको
बदली तस्वीर (लघुकथा)
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शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ आम सी हो गई थी । मगर उसकी बगल में अभी भी कुछ लोग चुपचाप सहमें हुए बैठे थे, पिछले तीस वर्षों से जोगिन्द्र परिवार समेत इस शहर में आ कर रह रहा था ।
पढने के लिए इस शहर में आया था, तब यहीं का हो कि रह गया । जब के उनके बजुर्ग पार्टीशन समें बार्डर पार से यहाँ नजदीक के इक गाँव में आ कर टिक गए थे ।
वैसे जोगिन्द्र बहुत ही सुगली आदमी है, जब भी किसी से मिलता अपने खिले हुए चेहरे के साथ उनका ही हो जाता । उसका ये रूप दोस्तों को ही नहीं सभी को बहुत प्रभावित करता । किसी फंक्शन में जब कभी स्टेज संभालता,किसी को भी उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत न होती ।
मगर आज वह जिस तरह बातें कर रहा था,तो उसके दिल के किसी कौने में दंगों के दर्द की टीस साफ नजर आ रही थी । इक बार वह बाज़ार जा कि खुद पूरा मंजर देख आया था, लट लट जलती दुकानें और दुसरे कारोबार । और उसको यकीं नहीं आ रहा था कि ऐसे भी.........
“असी तीह साल पहला इथे पढ्न आए सी, ते इथे दे हो के रह गए, कदे सोच्या नहीं सी,” पर हुन लगदा ए कि की मेरे वर्गे इथे पराये हन, जिन्दा साडे नाल होइया ए” जब वह ये कह रहा था, तब उस के चेहरे से दुःख और गुस्सा दोनों झलक रहे थे, डर व सहम अभी भी नजर आ रहा था ।
दीवार पर लगी तस्वीर जिस में दसवीं कक्षा के तब के सभी साथी नजर आ रहे थे, अब उसे तस्वीर बदली हुई लगी,जैसे उस के साथ कुछ और चेहरे इस में से गायब हो गयें हों,
“मगर, ऐसा नहीं हो सकता”,जोगिन्द्र ने ऊँची आवाज़ में कहा, सभी साथ बैठे लोग उस तरफ देखने लगे ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
आन होती जा रही सामाजिक समस्या का आपने बखूबी चित्रण किया हैं ।उम्दा प्रयास के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी ।
आ० मोहन बेगोवाल जी, 1984 से दिल्ली दंगों का बेहद सुन्दरता से चित्रण कर दिया इस लघुकथा के माध्यम सेI हालाकि लघुकथा कई दफा पढने के बाद ही समझ आईI हार्दिक बधाई स्वीकारेंI
//शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ आम सी हो गई थी ।// = शहर की सड़कों पे जिंदगी कुछ सामान्य सी हो गई थी ।
//जब के उनके बजुर्ग पार्टीशन समें // = जब के उनके बजुर्ग बंटवारे के दौरान
//लट लट जलती दुकानें // धूं धूं
//“असी तीह साल पहला इथे पढ्न आए सी, ते इथे दे हो के रह गए, कदे सोच्या नहीं सी,” पर हुन लगदा ए कि की मेरे वर्गे इथे पराये हन, जिन्दा साडे नाल होइया ए” // इस संवाद को हिंदी में कह दिया जाता तो बेहतर होताI
सुगली (शुगली) = विनोदी
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