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आ० कान्ता रॉय जी
बहुत सुन्दर लघुकथा .
पति-पत्नी के बीच परस्पर विश्वास वैवाहिक जीवन का आधार होता है, लेकिन इस कथानक के परिपेक्ष में क्या ये विशवास स्वयं को ही धोखा देने जैसा नहीं लगता. 'किसी से कहना नहीं' ये वाक्यांश दो बातें स्पष्ट करता है:
१. समाज में पहुँच ऐसी बातें हज़ार और बातों को जन्म देती हैं...जितने मुंह उतनी बातें बनटी हैं
२. नायिका की विवशता भी झलकती है, क्या इसकी स्वीकार्यता के अलावा कोई और विकल्प था?
इस सहज लघुकथा के लिए हृदय से बधाई.
अपने जीवन साथी पर अंधे विश्वास के इर्द गिर्द घूमती यह लघुकथा अच्छी तो है, लेकिन उत्कृष्ट नहीं हैI अपनी सहेली (?) की हर बात को काटती आ रही महिला का एकदम उसे सच्चाई बता देना अस्वाभाविक लगाI बहरहाल, आयोजन के शुभारम्भ हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है, ख़ूबसूरत रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीया कांता जी । सादर
अपने जीवनसाथी पर इतना विश्वास और यह जानते हुए भी वो गलत है, अपने पति के लिये स्त्री ने ममत्व की भावना से उसे देखा| एक नज़र में पढने पर मुझे लगा कि इस रचना का शीर्षक 'विश्वास' होता तो ज़्यादा अच्छा था, लेकिन रचना के भाव जो की उस स्त्री को दर्शा रहे हैं जिसे अपने रिश्ते में मज़बूती अच्छी लगती है, 'रिश्ते की जकड़' ही बेहतर शीर्षक है| सादर बधाई आपको इस रचना के सृजन हेतु|
वाह इतना विशवास , पर कथा बहुत कोमल है ,सुगढ़ शिल्प के साथ हार्दिक बधाई आपको आदरणीया कांता जी
अंध विश्वास का अच्छा उदाहरण आपने प्रस्तुत किया है जो नारी स्वभाव के विपरीत होने के कारण कुछ अटपटा सा लगता है, लघुकथा गोष्ठी में सहभागिता हेतु बधाई आदरणीया कांता जी.
रिश्तों की मज़बूरी को बखूबी दर्शाया है आपने आ कान्ता जी इस रचना में, बहुत बहुत बधाई आपको
बहुत अच्छी लघु कथा , बधाई , आदरणीया कांता जी !
अंतिम पंक्ति से साथी की बेबसी झलक रही है कि वह अपने घर की बात को घर मे ही रखना चाहती है ।
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